Friday, March 31, 2023

तुमने जो आरती सजायी, मेरा मन हो गया कपूरी - कृष्ण मुरारी पहरिया

 तुमने जो आरती सजायी, मेरा मन हो गया कपूरी

इसी तरह से तय होती है, दुखते पल से सुख की दूरी 


उस कोने में मूर्ति सजी है, श्याम विराजे बंसी लेकर 

उनके आस पास जो रहता, मुस्काते उसको कुछ देकर

तुमने जो सुगंध बिखरायी, बंसी के स्वर मुखर हो गये 

और किसी की मैं क्या जानू, मुझको दिये गीत कस्तूरी


झोली में उनके सब कुछ था, तुमने पर स्वीकारी ममता

उसमें करुणा घोल ह्रदय की, पायी है कैसी यह क्षमता 

अवसादों का नाम नहीं है, जहाँ जहाँ तक पहुँच तुम्हारी 

वृन्दावन उतनी धरती है, जितनी यह चहारदीवारी


छन्द यहाँ ऐसे झरते हैं, जैसे यह उनकी मज़बूरी 


Monday, December 19, 2022

कुंडली तो मिल गई है...... - इति शिवहरे औरय्या उत्तर प्रदेश

 कुंडली तो मिल गई है,

मन नहीं मिलता, पुरोहित !

क्या सफल परिणय रहेगा ?


गुण मिले सब जोग वर से, गोत्र भी उत्तम चुना है |

ठीक है कद, रंग भी मेरी तरह कुछ गेंहुआ है |

मिर्च मुझ पर माँ न जाने  क्यों घुमाये जा रही है |

भाग्य से है घर-वर, बस यही समझा रही है |


भानु, शशि, गुरु, शुभ त्रिबल, गुण-दोष.

है सब कुछ व्यवस्थित,

अब न प्रति-पल भय रहेगा ?


रीति- रस्मों के लिये शुभ लग्न देखा जा रहा है |

क्यों अशुभ कुछ सोचकर, मुहं को कलेजा आ रहा है ?

अब अपरिचित हित यहाँ मंतव्य जाना जा रहा है |

किन्तु मेरा मौन 'हाँ' की ओर माना जा रहा है |


देह की हल्दी भरेगी घाव अंतस के अपरिमित ?

सर्व मंगलमय रहेगा ?


क्या सशंकित माँग पर सिन्दूर की रेखा बनाऊँ ?

सात पग भर मात्र चलकर साथ सदियों का निभाऊँ ?

यज्ञ की समिधा लिए फिर से नये संकल्प भर लूँ ?

क्या अपूरित प्रेम की सद्भावना उत्सर्ग कर दूँ ?


भूलकर अपना अहित-हित पूर्ण हो जाऊँ समर्पित ?

ये कुशल अभिनय रहेगा !

क्या सफल परिणय रहेगा ?  

Wednesday, December 14, 2022

धूप - सीमा अग्रवाल

 सर्द ब्याही बिटिया के-

जैसी आती है 

सर्द सवेरे वाली धूप 


हौले से दहलीज़ चूमती 

सकुचाती शर्माती 

फिर घर-आँगन कि पनियाई 

आँखों को दुलराती 


और जरा सी देर बीतते

हो जाती है 

वही पुरानी 'लाली' धूप


औचक ही खोई खोई सी

औचक ही नटखट सी 

कभी लहराती चूनर जैसी

कभी दिखे घूँघट सी


बड़े जतन से दोनों मन की

पारी पारी 

करती रखवाली धूप


कभी बहनों से वापस 

जाने के जाल बिछाती 

कभी पेड़ की फुनगी फुनगी

से उड़कर बतियाती


इस तट पीहर उस तट सासुल

बहती रहती 

नदिया सी मतवाली धूप 

Tuesday, December 13, 2022

चल पड़ा तो इक नदी के ढाल सा जीवन - अभिषेक औदिच्य

चल पड़ा तो इक नदी के ढाल सा जीवन.
रुक गया तो सिर्फ मैले ताल सा जीवन ..

साँस के चलते अनोखी दौड़ करते हम.
हाँ, स्वयं के बिम्ब से ही होड़ करते हम.
ट्रेडमिल पर एक झूठी चाल सा जीवन.
चल पड़ा तो इक नदी के ढाल सा जीवन..

आत्मा का, देह को क्षणभर निलय करना.
फिर जहाँ उद्गम वहीँ पर ही विलय करना.
थाह इसकी है नहीं, पातळ सा जीवन.
चल पड़ा तो इक नदी के ढाल सा जीवन.
रुक गया तो सिर्फ़ मैले ताल सा जीवन..

एक परिभाषा बताता है हमें विज्ञानं .
कोशिकाओं से बना तन ऊर्जा से प्राण.
मानवों का है कवक - शैवाल सा जीवन.
चल पड़ा तो इक नदी के ढाल सा जीवन..

लक्ष्य क्या है जन्म का? यह भेद तो खोलो.
है अगर मरना सभी को, क्यों जियें बोलो? 
प्रश्न यह कर्ता रहा बेताल सा जीवन.
चल पड़ा तो इक नदी के ढाल सा जीवन..

हम छिपें चाहे किसी कोने, किसी चप्पा.
मौत कर देगी अचानक एकदिन 'धप्पा'.
वृक्ष से अधजुड़ी इक डाल सा जीवन.
चल पड़ा तो इक नदी के ढाल सा जीवन.

Friday, October 28, 2022

हम निकल पाये न पिंजरे तोड़कर - विनोद श्रीवास्तव

 हम निकल पाये न पिंजरे तोड़कर  

बादलों ने फिर कहा 

आओ चलें घर छोड़कर

चाहकर भी हम 

निकल पाये न पिंजरे तोड़कर


आँख खुलते ही खड़ी मिलती 

हजारों ख्वाहिशें 

घेरकर रखतीं हमेशा प्रार्थनायें आयतें 



यों न आया जा रहा 

घर - द्वार से मुंह मोड़कर 

चाहकर भी हम 

निकल पाये न पिंजरे तोड़कर 


बालपन से आज तक

घुमड़ी घटा से प्यार है 

पर हमारे पास तो बस 

जेब है बाज़ार है 


फिर भला आ जायें कैसे 

सिर्फ खालें ओढ़कर

चाहकर भी हम 

निकल पाये न पिंजरे तोड़कर 


बादलों ! जो है तुम्हारे गाँव 

हम सब के बनें 

गर्जना हो बिजलियाँ हों

छतरियां जल की तनें


दौड़ आयेगा 

हिरन - मन मुग्ध सपने जोड़कर 

चाहकर भी हम 

निकल पाये न पिंजरे तोड़कर

Friday, May 22, 2020

आगे खुला सवेरा है - गीतकार प्रमोद तिवारी

सच है बहुत अँधेरा है
तूफानों ने घेरा है
बीच राह का डेरा
फिर भी साथी हिम्मत बांधो
आगे खुला सवेरा है

सीमाओं में बंधा-बंधा
जल का तेवर सधा-सधा
चाहे जितना तेज बहे
पर निर्झर सा कहाँ बजा
माना सागर ठहरा है
युगों-युगों से ठहरा है
सीमाओं का पहरा है
फिर भी साथी हिम्मत बांधो
आगे खुला सबेरा है 

अक्षुण सेना - अनिल सिन्दूर

मेरे पास नहीं है
कोई अक्षुण सेना
और, कोई धनुरधर पिता भी नहीं
फिर भी
मैं लडूंगा, करूँगा संघर्ष
उन असीमित मिले अधिकारों से
जो नहीं देते आज़ादी
बयां करने को अपना दुःख