Wednesday, December 31, 2014

हँस कर और जियो .............प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’




रो-रो मरने से क्या होगा
हँस कर और जियो !
वृद्ध क्षणों को बाहुपाश में
कस कर और जियो !

रक्त दौड़ता अभी रगों में, उसे न जमने दो,
बाहर जो भी हो, पर भीतर लहर न थमने दो,
चक्रव्यूह टूटता नहीं, तो
धंस कर और जियो !


श्वास जहाँ तक बहे, उसे बहने का मौका दो,
जहाँ डूबने लगे, उसे कविता की नौका दो,
गुंजन-जन्मे संजालों में
फँस कर और जियो !

टूटे सपने जीने का अपना सुख होता है,
सूरज, धुन्ध-धुन्ध आँखें शबनम से धोता है,
ज्वार-झेलते अंतरीप में
बस-कर और जियो !


प्राणों में साकेत - .........प्रोफे. रामस्वरुप ‘सिन्दूर’




मैं अपने ही अधर चूम लूँ दरपन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !

अधरों पर धर गया बाँसुरी लीलाधर-बादल कोई,
मैं जितना जागा-जागा, संसृति उतनी सोयी-सोयी,
बिजली कौंधे, आग लगे चन्दन-वन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !


आँखों की झील में तैरता सपना एक शिकारे-सा,
तन की घाटी में बजता है भीगा मन इकतारे-सा,
प्राणों में साकेत, प्राण वृन्दावन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !
 प्राणों
खारे सागर में उभरी हैं तल-तक डूबी सरिताएं,
महामौन में अनुगुंजित आदिम यौवन की कविताएं,
होना है नौका-विहार, जलप्लावन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !

Tuesday, December 30, 2014

सौरऊर्जा-वाले दौर ---- प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’



सौरऊर्जा-वाले दौर

तेरी बात और है
प्यारे! मेरी और !

मैं निर्झर, खो गया धधकते सागर में,
अनचाहा-आगुन्तक-सा अपने घर में,
सिर से मौर गिरी
मैं हूँ ऐसा सिरमौर !


शीशफूल में रहा कभी आभरणों में,
रस-फल-सा चढ़ गया, निपट जड़-चरणों में,
अब न फलेंगे
कल्पवृक्ष पर आये बौर !

आगत मुझ को विगत नहीं होने देता,
चेतन, अंतिम नींद नहीं सोने देता,
आते-रहते
सौरऊर्जा-वाले दौर !

मैं हूँ बड़ा कीमती - प्रोफ़े. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

 मुझ को यह क्या हुआ, उपेक्षा ख़ुश कर जाती है !
गहरी आह, ऊर्जा से सांसें भर जाती है !

देख तरोताज़ा मुझ को दुनिया हैरत में है,
जान छिडकता मुझ पर जो मेरी संगत में है,
मेरे मन का भेद न ले पाता मुझ से कोई
पारंगत ‘इंटरव्यूकर्ता’ भी सांसत में है,
अखबारी लेखनी प्रश्न करते डर जाती है !

भटक-भटक जाता हूँ बेहद परिचित राहों में,
खीझ लगे तो कस लेता हूँ ख़ुद को बाँहों में,
ऐसी बढ़िया क़िस्मत ले कर जन्म लिया मैंने
कौड़ी पास न होने पर भी गिनती शाहों में,
मैं बाहर रह जाता, जब काया घर जाती है !


मेरे तौर-तरीकों पर हैं फ़िदा शत्रु मेरे,
बिल्कुल अपने, रहें आजकल मुझ से मुँह फेरे,
मीठी अमराई की कच्ची-कच्ची गंधों ने
पथराये तन पर डाले सम्मोहन के घेरे,
आती है घनघोर बौर, लेकिन झर जाती है !

कोई भी पुस्तक हो पढ़ी-पढ़ी सी लगती है,
मुझे न ठग पाती माया, जो सबको ठगती है,
मैं हूँ बड़ा कीमती यह भ्रम दूर नहीं होता
दर्पण व्यंग करे तो गोली-जैसी दगती है,
मौत, मुझे छूने से डर जाती है !