Sunday, February 16, 2014

अक्षर-अक्षर मेघ उभरते - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'



अक्षर-अक्षर मेघ उभरते

तू न सही, तेरे पत्रों से ही बातें होती हैं !
चंदा-वाले दिन, सूरज-वाली रातें होती हैं !

चित्रांकित सम्बोधन अनपढ़-सपने पढ़ लेते हैं,
प्राकृत आलेखों को आँसू अर्थ नए देते हैं,
सुधियाँ कैसी भी हों, मादक सौगातें होती हैं !


अक्षर-अक्षर मेघ उभरते, नीर बरस जाता है,
इन्द्रधनुष का शब्द-भेद शर कल्प-छन्द गाता है,
यौवन अक्षत कर दें, ऐसी भी घांतें होती हैं !

मैं तेरी करुणा को, अपनी धुन में लेता हूँ,
अपने विगत रूप का अब मैं, केवल अभिनेता हूँ,
जमुना-जल पर, गंगा-जल की बरसातें होती हैं !

Tuesday, February 11, 2014

इश्क ख़ुदकुशी कर लेता - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

देर हुई घर आने में !
दिल बैठा तैखाने में !!

क्या बतलाऊँ क्या-क्या था !
मेरे लुटे खजाने में !!

गुलशन रास न आया तो,
लौट पड़ा वीराने में !


इश्क ख़ुदकुशी कर लेता,
मान गया समझाने में !

मुझे चैन सा मिलता है,
दिल-ही-दिल पछताने में !

वो शर्माता है, सिर पर,
अपना बोझ उठाने में !

मसला सुलझा, एक नहीं,
उम्र गयी सुलझाने में !

जिसको मैंने मन्त्र दिया,
मुझे लगा बहकाने में !

उम्र कैद की सज़ा मिली,
इश्क किया बचकाने में !

जिस ने जो चाहा जोड़ा,
पाक-साफ़ अफ़साने में !

सांसें जल-कर खाक हुईं,
दिल की आग बुझाने !

घर- बैठा 'सिन्दूर' मगर,
दिल है कहाँ ठिकाने में !







Thursday, February 6, 2014

नयन रह जाएँ ठगे-ठगे ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'


ऐसे क्षण आये जीवन में, माटी कंचन लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

तन लहराये अगरु-गंध-सा
मन लहरे किसलय-सा
हर पल लगे प्रणय की वेला
हर उत्सव परिणय-सा,
छाया तक कस लेने-वाला बंधन, कंगन लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

अपनी छाया अंकित कर दूँ
इस दिहरी, उस द्वारे,
पानी में प्रतिबिम्ब निहारूं
मन मोहक पट धरे,
चकाचौंध कर देने-वाला सूरज, दर्पण लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

इधर प्रभंजन उठे, उधर
मैं उपवन-उपवन डोलूं,
फूलों के उर्मिल रंगों में
धूमिल पलकें धो-लूँ,
गगन-विचुम्बी वातचक्र, नर्तित नंदनवन लगे !
ऐसे क्षण आये जीवन में, माटी कंचन लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

तन लहराये अगरु-गंध-सा
मन लहरे किसलय-सा
हर पल लगे प्रणय की वेला
हर उत्सव परिणय-सा,
छाया तक कस लेने-वाला बंधन, कंगन लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !



अपनी छाया अंकित कर दूँ
इस दिहरी, उस द्वारे,
पानी में प्रतिबिम्ब निहारूं
मन मोहक पट धरे,
चकाचौंध कर देने-वाला सूरज, दर्पण लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

इधर प्रभंजन उठे, उधर
मैं उपवन-उपवन डोलूं,
फूलों के उर्मिल रंगों में
धूमिल पलकें धो-लूँ,
गगन-विचुम्बी वातचक्र, नर्तित नंदनवन लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

Sunday, February 2, 2014

घर में भी सम्मान मिला है - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'


मैं प्रसंगवश कह बैठा हूँ तुम से अपनी राम कहानी !

मेरे मन-भावन मंदिर में बैठी हैं खंडित प्रतिमाएं,
विधिवत् आराधन जारी है, हँसी उड़ाती दसों दिशाएं;
मूक वेदना के चरणों में, मुखर वेदना नत-मस्तक है,
जितनी हैं असमर्थ मूर्तियाँ, उतना ही समर्थ साधक है;
एक ओर ज़िंदगी कामना, एक ओर निष्काम कहानी !

बिखर गयी ज़िंदगी कि जैसे बिखर गयी रत्नों की माला,
कोहनूर कोई ले भागा, तन का उजला मन का काला;
हारा मेरा सत्य, कि जैसे सपना भी न किसी का हारे,
सांसों-वाले तर चढ़ गये, जो वीणा के तार उतारे;
ख़ास बात ही तो बन पाती है, दुनिया की आम-कहानी !

एक ज्वार ने मेरे सागर को शबनम में ढाल दिया है,
कहने को उपकार किया है, करने को अपकार किया है;
प्रखर ज्योति ने आँज दिया है आँखों में भरपूर अँधेरा,
मैं इस तरह हुआ जन-जन का, कोई भी रह गया न मेरा;
कामयाब है जितनी, उतनी ही ज्यादा नाकाम कहानी !

निर्वसना प्रेरणा कुन्तलों बीच छिपाये चन्द्रानन है,
आँसू ही पहचान सकेगा, लहरें गिन पाया सावन है;
मेरा यह सौभाग्य, कि मुझको हर अभाव धनवान मिला है,
पीड़ा को बाहर-जैसा ही, घर में भी सम्मान मिला है;
नाम-कमाने की सीमा तक, हो-बैठी बदनाम कहानी !

Saturday, February 1, 2014

चिता जहाँ मेरी सजती हो कविता पाठ वहीँ कर लेना - कृष्ण मुरारी पहारिया


आज आपको एक ऐसे रचनाकार का परिचय देता हूँ जिसका पूरा जीवन अभावों के सुख से बीता ! उसके गीतों का बेमिशाल संग्रह प्रगतिशीलता का आवरण ओढ़े रचनाकारों के दुराग्रह की भेंट चढ़ गया ! रचनायें  टकसाली होने के कारण प्रगतिशील रचनाकारों ने दोयम दर्जा देकर अलग थलग कर दिया ! बाँदा निवासी कृष्ण मुरारी पहारिया रेलडाक व्यवस्था के विगलक पद पर तैनात रहे ! वो सूर, कबीर और निराला को अपने पुरखे मानते थे ! वो मानते थे की इन्हीं पुरखों से उन्होंने  विरासत में बहुत कुछ पाया ! सादगी से भरे इस रचनाकार की एक कृति ‘यह कैसी दुर्धर्ष चेतना’ १९९८ में उरई (जालौन) के सहयोगियों से प्रकाशित हो सकी ! आज भी ४०० के लगभग अप्रकाशित गीत उनकी हस्त लिखित डायरी में प्रकाशित होने का इंतजार कर रहीं हैं ! आज वो इस दुनिया में नहीं हैं उनकी वो टकसाली रचनाएँ अब प्रवुद्ध जन कभी पढ़ भी पाएंगे ?

चिता जहाँ मेरी सजती हो, कविता पाठ वहीँ कर लेना
प्राणों को लय पर तैराकर, अच्छी तरह विदा कर देना

अगर सगे सम्बन्धी मेरे, चिता सजा कर रोयें धोयें
उनसे बस इतना कह देना, कांटे अंतिम बार न बोयें
जब तक सांसें रही देह में, तब तक की सेवा क्या कम है
चलते समय आँख गीली क्यों और पूछना कैसा गम है

वे स्वतंत्र हैं उनकी नैया, उनके हाथ उन्हीं का खेना

तुम पर मेरा, मेरे मित्रों और नहीं इतना तो ऋण है
सारी रचना तुम्हें समर्पी, जैसे हरी दूब का तृण है
उस तृण की शीतलता पीकर, कभी ह्रदय सहलाया होगा
भटका हुआ पिपासित यह मन, क्षण भर को बहलाया होगा
 

इतना करना मेरी खातिर, खड़ी रहे छंदों की सेना

कृष्ण मुरारी पहरिया