Monday, March 31, 2014

मेरा नन्हा-सा बच्चा अब काफी बडा हो गया है - शालिनी खन्ना

मेरा नन्हा-सा बच्चा
अब काफी बडा हो गया है
जो दूकानों ,मॉलों मे जाकर भी
पैर पटकने लगता था बार-बार
पूरा करने को अपने शौक व अरमान
सबकी चुभती नज़रों से होकर अनजान
अब हमारी ज़रा-सी तेज़ आवाज़ पर
देखा करता है आंखें तरेर कर
घर आकर पुन: है डांटता
और सहम सी जाती हूं मैं
यूं लगता है जैसे अभिभावक बन
हमारे सामने खडा हो गया है


मेरा नन्हा-सा बच्चा
अब काफी बडा हो गया है......
जो अक्सर कहा करता था
कपडों मे क्यों पैसे बर्बाद करना
अब अक्सर हर कुछ अच्छे ब्रांड के
उसके लिये खरीदने है पडते
जूते ,चश्मे की बात तो छोडिये
अब हेयर-जेल और परफ्यूम के खर्चे भी
उसे कभी नागवार नही लगते
जिसे चौबीस घण्टों मे एक बार भी आइने मे
चेहरा निहारने की सुध नही रहती थी
देखो... वह घण्टे भर मे चौबीसवें बार
आइने के सामने खडा हो गया है....
क्योंकि मेरा नन्हा-सा बच्चा
अब काफी बडा हो गया है...
जो अपनी हर ज़िद्द पूरी करवाता था
रो-धोकर ,लोट-लोटकर
अब प्यार से लिपटकर ,फुसलाकर
गलबहियां डाल सारी बात मनवाता है
हर वक़्त जो पालन करता था
मेरे बनाये कार्यक्रम और दिनचर्या का
हर कहना जो माना करता था
सुबह ,दोपहर ,सन्ध्या का
उसके कानो मे जूं नही रेंगती ,
अब वह चिकना घडा हो गया है
सच....मेरा नन्हा-सा बच्चा
अब काफी बडा हो गया है...

Sunday, March 30, 2014

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है - केदारनाथ अग्रवाल

" जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा..."

याद आया ये आज कौन इतनी रात ढले ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

याद आया ये आज कौन इतनी रात ढले !
सूने  कमरे में  जैसे  कोई दबे  पाँव चले !

पहली बारिश  भी कहाँ  दे गई  पनाह मुझे,
स्याह अलकों में छिपी घोर घटाओं के तले !

दर्द  सहने की  महारत-सी  हो  गई  है  मुझे,
बर्फ़ के दिल पे रखी आग कितनी देर जले !

पानी-पानी  है  रात, पास  मैकदा भी  नहीं,
याद तो  उसकी  हाथ  धो-के पड़ी  मेरे गले !

नफ़स-नफ़स मेरी हर लम्हा गुनगुनाती रहे,
ज़िंदगी  और  छले,  और  छले,  और  छले !

ख़बर   कहाँ   है   'सिन्दूर'   ज़िंदगी  को अभी,
मैं  उसके  साथ  चलूँ ,  मौत  मेरे साथ  चले !

Saturday, March 29, 2014

रूप, विरूप जिया, या रूप अनूप जिया ! - प्रोफे. राम स्वरुप सिन्दूर

मैंने जीवन का अभिनव प्रारूप जिया !
रूप, विरूप जिया, या रूप अनूप जिया !

टूटा बंधन एक, मुक्ति मिल गयी मुझे
मेरा शून्य न रह पाया सीमांकन में,
गीतों से जुड़ गए तार इन श्वांसों के
तृप्ति अमृत की मिली मुझे अहि-दंशन में,
मैं घट-घट में, एक सोमरस कूप जिया !
रूप, विरूप जिया, या रूप अनूप जिया !

मैं अभाव का ऋणी, विभव पर ऋण मेरा
मेरी गणना होती है अपवादों में ,
मुझ को साक्षर संवेदन गा पता है
मैं गुंजन हो जाता हूँ , अवसादों में ,
हर पल रंक जिया मैं , हर पल भूप जिया !
रूप, विरूप जिया, या रूप अनूप जिया !

मैं बड़वानल भी हूँ , मैं दावानल भी
वास सिन्धु में करूँ, प्रवास तपोवन में ,
स्वप्नों का संवास मेघ-मालाओं में ,
तन से बाहर रहता है मन , सावन में ,
मैं रवि हूँ , मैं छाया में भी धुप जिया !
रूप, विरूप जिया, या रूप अनूप जिया !

Monday, March 24, 2014

मैं अपने ही अधर चूम लूँ दर्पण में - प्रोफे. राम स्वरुप सिन्दूर

मैं अपने ही अधर चूम लूँ दर्पण में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !

अधरों पर धर गया बांसुरी लीलाधर-बादल कोई,
मैं जितना जागा-जागा, संसृति उतनी सोयी-सोयी,
बिजली कौधें , आग लगे चन्दन-वन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !

आँखों की झील में तैरता सपना एक शिकारे-सा,
तन की घाटी में बजता है भीगा मन इकतारे-सा,
प्राणों में साकेत , प्राण वृन्दावन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !

खारे सागर में उभरी है तल-तक डूबी सरिताएं,
महामौन में अनुगुंजित आदिम यौवन की कविताएँ,
होना है नौका-विहार जल-प्लावन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !


Sunday, March 16, 2014

कुछ भी नया नहीं लगता है दीवाली में , होली में ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

कुछ भी नया नहीं लगता है दीवाली में , होली में !
मेरे लिए बचा ही क्या है , मेरी ख़ाली झोली में !!

जन्मपत्रियों ने तो बंधन में , जकड़ा दो लोगों को ,
कब तक साथ निभेगा योगी , भोगी , चन्दन रोली में !




खुद की कमजोरी को जो दुनिया के सिर मढ़ देते हैं ,
उन्हें पनाह नहीं मिलती है , दिल-वालों की टोली में !

क्यों न आज भी भुला पा रही ये दुनिया 'सिन्दूर' तुझे ,
अब वो बात कहाँ है तुझ में , तेरी मीठी बोली में !

Friday, March 14, 2014

कुछ चला तू, कुछ चला मैं फ़ासला जाता रहा - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

कुछ चला तू, कुछ चला मैं, फ़ासला जाता रहा !
एक  झरने-सा,  कोई, लम्हा  हमें  गाता   रहा !

तू मिला मुझसे, तो कुछ, इस तौर से मझधार में,
दूर   हो   जाता   रहा,  आग़ोश  में   आता  रहा !

आईना   देखा   जो  मैंने,  तो  बड़ी    हैरत  हुई,
मेरे   चेहरे  पर  तेरा,  चेहरा  नज़र  आता  रहा !

वायदों  पर   वायदों  का,  सच  मुझे  मालूम  था,
फिर भी भोले दिल को मैं, हर बार समझाता रहा !

वक़्त ने 'सिन्दूर' मुझको एक ऐसा फन दिया !
मैं   ग़ज़ल  से  दर्द  को  ताउम्र  बहलाता  रहा !

देह मुक्ति मिल गयी मुझे - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं निर्बंध हो गया, पहले ही निर्बंध मिलन में !
देह मुक्ति मिल गयी मुझे, पहले ही भुजबंधन में !

अधर-तृप्त अर्पित-अंजलि में स्वत्व सिमट जाता है,
शब्द-शब्द में एक अजन्मा गीत, मुझे गाता है,
मैं अरविन्द हो गया, पहले ही अरविन्द-मिलन में !
देह-मुक्ति मिल गयी मुझे, पहले ही परिरम्भन में !

मेघिल गंध तरंगित रहती अन्तर की घाटी में ,
मृग-शावक-सा भरे कुलाचें, कस्तूरी माटी में ,
मैं मकरंद हो गया, पहले ही मकरंद-मिलन में !
देह-मुक्ति मिल गयी मुझे, पहले ही मधु-मन्थन में !

विसुधि, देवदासी से मीरा-मीरा हो जाति है,
नर्तित-झंकृति आशु-पदों में आत्म-निरति गाती है,
मैं रस-छन्द हो गया, पहले ही रस-छन्द मिलन में !
देह-मुक्ति मिल गयी मुझे, पहले ही सम्मोहन में !

श्वास, पवन की शिखर श्रेणियां पार किये जाती है,
अन्तरिक्ष का ताप, सिन्धु की तरह पिये जाती है,
मैं आनन्द हो गया, पहले ही आनन्द-मिलन में !
देह-मुक्ति मिल गयी मुझे, पहले ही संवेदन में !





Monday, March 10, 2014

मुझको एहसास की चोटी से उतारे कोई - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मुझको एहसास की चोटी से उतारे कोई !
मेरी आवाज़ में ही मुझको पुकारे कोई !

ज़िन्दगी दर्द सही, प्यार के काबिल न सही,
मेरे   रंगों  में   मेरा   रूप   सँवारे   कोई !

जीती बाज़ी को हार कर भी मैं उदास नहीं,
मेरी  हारी  हुई   बाज़ी  से  भी    हारे  कोई !





राख कर डाली किसी नूर ने हस्ती मेरी,
राख  मल-मल  के  मेरी रूह निखारे कोई !

चोट-पर-चोट  कर गई है  स्याह हर पहलू,
दम निकलता है अगर फूल भी मारे कोई !

बांसुरी - जैसी  बजे  घाटियों की  तनहाई,
किस कदर प्यार से 'सिन्दूर' पुकारे कोई !


न मैंने देखे कभी तख्तो-ताज के सपने - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

बिछड़ के तुझसे एक उम्र मैं उदास रहा !
खुदी  से  दूर, बेख़ुदी के  आसपास रहा !!

न ग़मगुसार रहा जो, न गमगियास रहा !
जुनेने-शौक के  धोखे में  बदहवास रहा !!

उसे  कहूँ तो  किस  तरह से  कहूँ  बेगाना ,
न  दूर-दूर  रहा  वो, न  पास-पास  रहा !

तमाम  रंग  भर  दिए  जहान  में  जिसने ,
वो  रंगरेज़,  यहाँ  जोगिया  लिबास  रहा !

न मैंने देखे कभी तख्तो-ताज के सपने ,
तमाम  उम्र   कोहेनूर  मेरे  पास  रहा !

किसे पता है कि 'सिन्दूर' की  निगाहों मे ,
न कोई आम रहा, औ ' न कोई ख़ास रहा !