Wednesday, April 30, 2014

मैंने तो मन की धरती पर गीतों के सपने बोये हैं - कृष्ण मुरारी पहारिया

मैंने तो मन की धरती पर
गीतों के सपने बोये हैं
ऊपर से उन्मन लगता हूँ
भीतर प्राण नहीं सोये हैं

प्राणों में सर्जन चलता है
और सदा चलता रहता है
जो भी देखा सुना जगत में
बिंबों में ढलता रहता है
जो अपने भीतर-ही-भीतर
कुंठा की गांठें ढोता है
उसको कवि की कारगुजारी
पर विश्वास नहीं होता है

सारा वातावरण गुँजाने
के संकल्प नहीं खोये हैं

सर्जन सदा अकेले होता
यों काया पर दया सभी की
देखो कितने और चले थे
उनकी क्षमता चुकी कभी की
सर्जन में साहस लगता है
यह कायर का खेल नहीं है
अपना लोहू इसे दिया है
यह तेली का तेल नहीं है

किसी तरह से अपने तन पर
दुनिया के बोझे ढोये हैं


Tuesday, April 29, 2014

मैं परिधियों में रहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियाँ - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं परिधियों में रहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियाँ
यह , कि मेरे सिन्धु-व्यापी प्यास के क्षण तय  करेंगे !

शीश पर जैसे किसी ने मेघ-मालायें कासी हैं ,
आदिवासी कामनायें लोचनों में आ बसी हैं ,
मैं परिधियों में ढहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियाँ
यह , कि मेरे ऊर्ध्वगामी ह्रास के क्षण तय करेंगे !

आज हम दोंनों प्रभंजन की भुजाओं  में जड़े हैं ,
पारदर्शी-सीपियों में ज्वार के झूले पड़े हैं ,
मैं परिधिओं में बहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियाँ
यह , कि मेरे शेषशायी त्रास के क्षण तय करेंगे !

जल-विसर्जित दीप झिलमिल चंद्रमा की बाँह में है ,
चन्दनी दावाग्नि , अक्षय ओस-कण की छांह में है ,
मैं परिधिओं को सहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियां
यह , किमेरे शून्यवासी रास के क्षण तय करेंगे !

इन्द्रधनुषी शिंजिनी आकर्ण खिंच कर रह गयी है ,
आत्म-चेतना मूर्छना से अनकहे कुछ कह गयी है ,
मैं परिधिओं में दहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियाँ
यह , कि मेरे नटवरी संन्यास के क्षण तय करेंगे !

बादलों पर तुम लगाओ दोष मनमाने निरंतर - राम अधीर

बादलों पर तुम लगाओ दोष मनमाने निरंतर
जानता हूँ मैं
तुम्हारा घट कभी प्यासा नहीं था !

है मुझे मालूम अब यह पक्षपाती हो गया है ,
पूर्णिमा , एकादशी-जैसा विसाती हो गया है ,
साँझ या भिनसार पनिहारिन यहाँ दीखे न दीखे
गाँव को मालूम है
पनघट कभी प्यासा नहीं था !

आजकल वह आंसुओं से रोज़ करता है लड़ाई ,
और तुम थकते नहीं  करते हुए अपनी बड़ाई ,
सूख जाने पर नदी की रेत दीखेगी यहाँ पर
किन्तु मिट्टी की नमी से
तट कभी प्यासा नहीं था !

याद है मुझ को सलोनापन , कि जब तुम गाँव आयी ,
और आँचल में समेटे सैकड़ों संसार लायी ,
घेर कर सब ने कहा था , 'दुल्हन प्यासी लग रही है'
पर मुझे मालूम था
घूँघट कभी प्यासा नहीं था !

रेणुका ब्रज की मुसाफ़िर के लिए कंचन नहीं हैं ,
गोपिकाओं के लिए , हर गाँव भी मधुवन नहीं है ,
रासलीला हो न हो , मधुकर यहाँ आये न आये
नूपरों के संग
वंशीवट कभी प्यासा नहीं था !

पंथ पर विश्वास मेरा हो गया दृढ़तर - इन्दिरा मोहन

पंथ पर विश्वास मेरा हो गया दृढ़तर
तुम्हारा साथ पा कर !

मौन गलियां जी उठी  हैं आहटों के नाद से ,
अर्थ-साँकल खुल गई है शब्द के उन्माद से ,
द्वार का आतिथ्य अनुपम मिल गया जी-भर !
तुम्हारा साथ पा कर !

दिन वसन्ती लौट आये गंध के परिवार से ,
सगुन-पंक्षी फड़फड़ाये नीड़ के परिवार से ,
खुल गए कुछ मर्म मन के गीत सुन-सुन कर !
तुम्हारा साथ पा कर !

बात कस्तूरी समायी अनकहे संवाद में ,
आस्था फिर गुनगुनायी मिलन के आहलाद में ,
प्रीति के संस्पर्श से फिर बस गया है घर !
तुम्हारा साथ पा कर !

Monday, April 28, 2014

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के । - बल्ली सिंह 'चीमा'

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के ।
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के ।

कह रही है झोपडी औ' पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के ।


बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं ये जानकर,
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के ।

कफ़न बाँधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है,
ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गाँव के ।

हर रुकावट चीख़ती है ठोकरों की मार से,
बेड़ियाँ खनका रहे हैं लोग मेरे गाँव के ।

दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंक़लाब,
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के ।

एकता से बल मिला है झोपड़ी की साँस को,
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के ।

तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में,
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव में ।

देख 'बल्ली' जो सुबह फीकी दिखे है आजकल,
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के ।

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो । - बल्ली सिंह चीमा


तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।

ख़ुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है ज़िन्दगी,
रेंग कर मर-मर कर जीना ही नहीं है ज़िन्दगी,
कुछ करो कि ज़िन्दगी की डोर न कमज़ोर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।


खोलो आँखें फँस न जाना तुम सुनहरे जाल में,
भेड़िए भी घूमते हैं आदमी की खाल में,
ज़िन्दगी का गीत हो या मौत का कोई शोर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।


सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।


तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।

Sunday, April 27, 2014

खो गयी है सृष्टि - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

दीप को जल में विसर्जित कर दिया मैंने !
इस अँधेरी रात में , यह क्या किया मैंने !

यूँ लगे , जैसे नदी में बह गया हूँ मैं ,
तीर पर , यह कौन बैठा रह गया हूँ मैं ,
एक क्षण , पूरे समर्पण का जिया मैंने !

मिट गया अन्तर , सुरभियों और स्वांसों में ,
छोड़ यह तन , छिप गया सब कुछ कुहासों में ,
अमृत से बढ़ कर , तृषा का रस पिया मैंने !

खो गयी है सृष्टि , या-फिर खो गया हूँ मैं ,
जन्म के पहले प्रहर-सा , हो गया हूँ मैं ,
काल जैसे कुशल ठग को , ठग लिया मैंने !

हां, मैं दुस्साहसी हूँ - लोक मित्र गौतम

अगर सपने देखना दुस्साहस है
अगर जुल्मी और जुल्म की नाफरमानी दुस्साहस  है
अगर सर्वोच्च अदालत के फैसले पर अपनी राय रखना दुस्साहस है
आइंसटीन की बिगबैंग थ्यौरी पर नये सिरे से सोचना दुस्साहस है
और वक्त के सरमाये से हक मांगना नक्सलवादी दुस्साहस है
तो मी लार्ड मैं दुस्साहसी हूं
आप भी मुझे इस मुगालते में
सख्त से सख्त सजा दीजिए
कि मेरे बाद कोई दूसरा दुस्साहसी पैदा नहीं होगा
पर आपकी नासमझी पर
तरस खाने का दुस्साहस
तो मैं फिर  भी करूंगा
माना की हर कहानी की शुरूआत
एक था राजा एक थी रानी जैसी सपाट नहीं होती
लेकिन यकीन मानिए हर कहानी का अंत
उसकी शुरूआत का नतीजा होती है
मुझे मालूम है
मेरे दुस्साहस की कहानी की शुरूआत सुनने की
आपमें जरा भी दिलचस्पी नहीं है
लेकिन आखिरी सजा दोगे
तो आखिरी ख्वाहिश भी तो पूरी ही करनी पड़ेगी
सजायाफ्ता के सुकून के लिए नहीं
कटघरे के बाहर खड़े उन लोगों के लिए
जिन्हें इस मुगालते में रखना है
कि निजाम अपने लिए नहीं
निजाम की भलाई के लिए कड़े फैसले लेता है
खैर!
मुझे यहां निजाम की नहीं अपनी कहानी सुनानी है
मैं जहां पैदा हुआ था
वहां की भाषा में
आजादी की आधी सदी से ज्यादा
गुजर जाने के बाद आज भी
दो ही शब्द हैं
जी और हुजूर
मैंने दुस्साहस यह किया
कि एक तीसरा शब्द सीखा, क्यों
जिससे अपने आपमें
कोई पूरा वाक्य तो नहीं बनता
लेकिन यह नाजुक सा शब्द
बड़े-बड़े ब्रह्मवाक्यों तक की
तलाशी लेने की कूव्वत रखता है
मैं वहां पैदा हुआ था
जहां आज भी
दो ही सपने देखे जाते हैं
एक स्याह
दूसरा सफ़ेद
मेरा दुस्साहस ये रहा कि मैंने इनके साथ
एक सुर्ख रंग के सपने को भी ला खड़ा किया
जिसने स्याह और सफ़ेद में
वो जज्बा भरा
कि तीनों मिलकर
इन्द्रध्नुषी सपनों की बुनियाद रखने लगे
मी लार्ड मैं वहां पैदा हुआ
जहां इच्छाएं जन्मजात नत्थी होती हैं
मेरा दुस्साहस ये रहा कि मैंने
इसमें कुछ जोड़ दिया, कुछ घटा दिया
नतीजतन
सनातनी समीकरण बिगड़ गया
और मुझे खौपफनाक घोषित कर दिया गया
और सुनिए मी लार्ड
मैं वहां पैदा हुआ था
जहां फूलों की खेती करने वालों को
फूलों को सूंघना मना था
मैंने दुस्साहस यह किया कि गुलाब की
नाजुक पंखुड़ी को अपने होठों से लगा लिया
आपने शायद कभी हमारा देश नहीं देखा
जहां से बैठकर आप हमारी किस्मत का
फैसला कर रहे हैं
यहां से वह बहुत दूर है
और बहुत अलग है
जहां आषाढ़ की पहली बारिश में
मोर तो झूमकर नाच सकते हैं
इंसान ऐसा करे तो उसे
मर्यादा भंग करने का दोषी समझा जाता है
मैंने जंगल की ऐसी ही मर्यादा के उल्लंघन का
दुस्साहस किया है
इसलिए मी लार्ड
आप मुझे जो सख्त से सख्त सजा सुना सकते हैं
सुना दीजिए
क्योंकि मैं जिंदा रहा
तो यह गुनाह बार बार करूंगा
दुस्साहस मेरे खून में है
और मैं....
आपकी सजा के डर से
अपना खून पानी नहीं होने दूंगा

तन के भूगोल से परे .......... - निर्मला पुतुल

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गांठो को खोल कर
कभी पढ़ा है
उसके भीतर का खौलता इतिहास

घर प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी जमीन
के बारे में बता सकते हो तुम
अगर नहीं
तो फिर जानते क्या हो तुम

रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में ................

तुम्हें आपत्ति है - निर्मला पुतुल


तुम्हें आपत्ति है

तुम कहते हो
मेरी सोच ग़लत है
चीज़ों और मुद्दों को
देखने का नज़रिया ठीक नहीं है मेरा

आपत्ति है तुम्हें
मेरे विरोध जताने के तरीके पर
तुम्हारा मानना है कि
इतनी ऊँची आवाज़ में बोलना
हम स्त्रियों को शोभा नहीं देता

धारणा है तुम्हारी कि
स्त्री होने की अपनी एक मर्यादा होती है
अपनी एक सीमा होती है स्त्रियों की
सहनशक्ति होनी चाहिए उसमें
मीठा बोलना चाहिए
लाख कडुवाहट के बावजूद

पर यह कैसे संभव है कि
हम तुम्हारे बने बनाए फ्रेम में जड़ जाएँ
ढल जाएँ मनमाफिक तुम्हारे सांचे में

कैसे संभव है कि
तुम्हारी तरह ही सोचें सब कुछ
देखें तुम्हारी ही नज़र से दुनिया
और उसके कारोबार को

तुम्हारी तरह ही बोलें
तुम्हारे बीच रहते ।
कैसे संभव है ?

मैंने तो चाहा था साथ चलना
मिल बैठकर साथ तुम्हारे
सोचना चाहती थी कुछ
करना चाहती थी कुछ नया
गढ़ना चाहती थी बस्ती का नया मानचित्र
एक योजना बनाना चाहती थी
जो योजना की तरह नहीं होती
पर अफ़सोस !
तुम मेरे साथ बैठकर
बस्ती के बारे में कम
और मेरे बारे में ज़्यादा सोचते रहे

बस्ती का मानचित्र गढ़ने की बजाय
गढ़ते रहे अपने भीतर मेरी तस्वीर
और बनाते रहे मुझ तक पहुँचने की योजनाएँ
हँसने की बात पर
जब हँसते खुलकर साथ तुम्हारे
तुम उसका ग़लत मतलब निकालते
बुनते रहे रात-रात भर सपने

और अपने आसपास के मुद्दे पर
लिखने की बजाय लिखते रहे मुझे रिझाने बाज़ारू शायरी
हम जब भी तुमसे देश-दुनिया पर
शिद्दत से बतियाना चाहे
तुम जल्दी से जल्दी नितांत निजी बातों की तरफ़
मोड़ देते रहे बातों का रुख
मुझे याद है!

मुझे याद है-
जब मैं तल्लीन होती किसी
योजना का प्रारूप बनाने में
या फिर तैयार करने में बस्ती का नक्शा
तुम्हारे भीतर बैठा आदमी
मेरे तन के भूगोल का अध्ययन करने लग जाता ।

अब तुम्हीं बताओ !
ऐसे में भला कैसे तुम्हारे संग-साथ बैठकर हँसू-बोलूँ ?
कैसे मिल-जुलकर
कुछ करने के बारे में सोचूँ?

भला, कैसे तुम्हारे बारे में अच्छा सोचकर


मीठा बतियाऊँ तुमसे?
करूँ कैसे नहीं विरोध
विरोध की पूरी गुंजाईश के बावजूद?

कैसे धीरे से रखूँ वह बात
जो धीरे रखने की मांग नहीं करती !

क्यू माँ के गर्भ से ही ऐसा पैदा हुई मैं ?

वो जिससे चाँद भी रूठा हो और सूरज भी - डॉ. रेनू चंद्रा

गज़ब जो ऐसा हुआ हो , कभी खुदा न करे
कि प्यार शक़ में ढला हो , कभी खुदा न करे

वो जिससे चाँद भी रूठा हो और सूरज भी
अंधेरा उससे ख़फ़ा हो , कभी खुदा न करे

कुबूल जिसकी दुआएं कभी हुई ही नहीं
शुमार उसकी खता हो ,कभी खुदा न करे

किसी को प्यार भरे दिल कुछ न परवा हो
गुरुर इतना बढ़ा हो , कभी ख़ुदा न करे





सिसक-सिसक के कोई मांगता हो मौत अगर
न वो भी उसको अता हो , कभी ख़ुदा न करे


न आये मौत न , ही रास ज़िन्दगी आए
नसीब इतना बुरा हो , कभी ख़ुदा न करे

जो हमसे रूठे हुए हैं , मनाएं हम उनको
हमें किसी से गिला हो , कभी ख़ुदा न करे


Saturday, April 26, 2014

लाख अभिनय किया करे कोई - डॉ. रेनू चंद्रा

लाख अभिनय किया करे कोई
सच कभी तो कहा करे कोई

मुझको करना है जो , करुँगी मैं
चाहे  कुछ  भी  कहा  करे कोई

उनका आना भी कोई आना है
ऐसे आने का क्या करे कोई


साध ये कौंधती है रह-रह कर
मैं कहूँ और सुना करे कोई

कौन सागर हूँ मैं कि मेरे से
आ के दरिया मिला करे कोई

अपने मन की कहन का कोई शेर
मनकही   से  चुना  करे  कोई

Friday, April 25, 2014

एक बार फिर हम इकट्ठे होंगे विशाल सभागार में - निर्मला पुतुल


एक बार फिर
हम इकट्ठे होंगे
विशाल सभागार में
किराए की भीड़ के बीच

एक बार फिर
ऊँची नाक वाली
अधकटे ब्लाउज पहने महिलाएँ
करेंगी हमारे जुलुस का नेतृत्व
और प्रतिनिधित्व के नाम पर
मंचासीन होंगी सामने



एक बार फिर
किसी विशाल बैनर के तले
मंच से खड़ी माइक पर वे चीख़ेंगी
व्यवस्था के विरुद्ध
और हमारी तालियाँ बटोरते
हाथ उठा कर देंगी साथ होने का भरम

एक बार फिर
शब्दों के उड़न-खटोले पर बिठा
वे ले जाएँगी हमे संसद के गलियारों में
जहाँ पुरुषों के अहम से टकराएँगे हमारे मुद्दे
और चकनाचूर हो जाएँगे
उसमे निहित हमारे सपने

एक बार फिर
हमारी सभा को सम्बोधित करेंगे
माननीय मुख्यमंत्री
और हम गौरवान्वित होंगे हम पर
अपनी सभा में उनकी उपस्थिति से

एक बार फिर
बहस की तेज़ आँच पर पकेंगे नपुंसक विचार
और लिए जाएँगे दहेज़-हत्या, बलात्कार, यौन उत्पीडन
वेश्यावृत्ति के विरुद्ध मोर्चाबंदी कर
लड़ने के कई-कई संकल्प

एक बार फिर
अपनी ताक़त का सामूहिक प्रदर्शन करते
हम गुज़रेंगे शहर की गलियों से
पुरुष-सत्ता के खिलाफ़
हवा में मुट्ठी बाँधे हाथ लहराते
और हमारे उत्तेजक नारों की ऊष्मा से
गरम हो जाएगी शहर की हवा

एक बार फिर
सड़क के किनारे खडे मनचले सेकेंगे अपनी ऑंखें
और रोमांचित होकर बतियाएँगे आपस में कि
यार, शहर में बसंत उतर आया है

एक बार फिर
जहाँ शहर के व्यस्ततम चौराहे पर
इकट्ठे होकर हम लगाएँगे उत्तेजक नारे
वहीं दीवारों पर चिपके पोस्टरों में
ब्रा-पेंटी वाली सिने-तारिकाएँ
बेशर्मी से नायक की बाँहों में झूलती
दिखाएँगी हमें ठेंगा
धीर-धीरे ठंडी पड़ जाएगी भीतर की आग
और एक बार फिर
छितरा जाएँगे हम चौराहे से
अपने-अपने पति और बच्चों के
दफ़्तर व स्कूल से लौट आने की चिंता में





और तुम बांसुरी बजाते रहे - निर्मला पुतुल

और तुम बांसुरी बजाते रहे

कोई आया , कुछ उठा कर ले गया
और तुम बांसुरी बजाते रहे
मैं चुप रही

बस्ती में आग लगी
सब बचाने दौड़े
एक तुम थे कि
बांसुरी बजाते रहे
बावजूद मैं चुप रही

घर के सामने से जुलूस गुजरी
जुलूस के शोर में तुम्हारी
बांसुरी की आवाज दब गयी
फिर भी तुम बांसुरी बजाते रहे
और मैं चुपचाप देखती रह गयी

इस बार मैं चुप नहीं रहूंगी
छीन कर तोड़ दूंगी तुम्हारी बांसुरी
कि देखो कि इस बार
वो मुझे उठाने आ रहे हैं

Thursday, April 24, 2014

चलो अच्छा बताओ क्या करे ? तुम्हारी इतनी नफरतों का क्या हल करें ? - वीरू सोनकर


चलो
अच्छा बताओ
क्या करें 
तुम्हारी इतनी नफरतों  का क्या हल करें  ?
क्या
सभी मुसलमानों को
एक साथ
मार दे ?
उनके गॉव लूट लें
उनके मकान
जमीन सब अपना कर लें  ?
इस मुल्क से
उनका इतिहास मिटा दें


और
उस इतिहास में
पूरी ठिठाई के साथ
बेशर्मी से
अपना नाम चढ़ा लें ,
और फिर
कुछ देर सुस्ता लें
क्यों कि
मुसलमानों को मारने के बाद
हम फिर
दलितों को मारेंगे ?
ये कमीने
नयी हवा में कुछ ज्यादा ही बौराये  हैं
जबकि
उनका जन्म
हमारी सेवा को ही हुआ है
उसके बाद
हम बगल के गॉव पर हमला करेंगे
सजातिये हुए तो क्या
हमारे बराबर के कैसे बन गए ?
इनको भी मार कर
फिर हम
अपना घर सुधारेंगे......./
अपनी औरतों  को
चारदीवारी की हद बताएँगे
चार किताबे पढ़ के
ये भी
बड़ा हक़ हक़ चिल्ला रही हैं
इनको भी
इनकी औकात बताएँगे,
तब ही हम
चैन की सांस पाएंगे
क्यों कि
हमको हमारे ईश्वर ने
सर्वश्रेठ बनाया हैं
हम इन सबको
मार कर
इसका अहसास कराएँगें
और
अंत में
हम अकेले रह जायेंगे.....
तो क्या हुआ
जब मेरे घर के बगल की मस्जिद
बिना अजान रह जाएगी
जिस अजान से
मैं रोज सुबह उठता था
काम पर जाने को तैयार होता था,
तो क्या हुआ
जो अब रोज़
अब्दुल भाई से खेतो पर
दुआ सलाम न होगी,
तो क्या हुआ
मेरा बच्चा
अपने मुस्लिम दोस्तों के बिना
अकेला खेलेगा,
वो स्कूल भी नहीं जायेगा
क्यों कि
उसके स्कूल टीचर नीच जात के थे
मार दिए गए,
तो क्या हुआ
सब ठीक तो हैं...
  क्यों कि हम तो जिन्दा हैं
अपना सर
गर्व से उठाये
सीना ताने
अपने जातीय और धार्मिक दंभ
को संभाले हुए....
मुसलमान रहे न रहे
दलित रहे न रहे
हम तो हैं
क्यों कि हमारे ईश्वर ने
सिर्फ हमको ही
ये अधिकार दिया हैं
और
ये अधिकार रहना चाहिए
फिर चाहे हम
इंसान रहे या न रहे
कोई बात नहीं
क्यों कि मूलतः
पहले
हम जानवर ही तो थे
तो बताओ फिर
क्या बना जाये
जानवर ही रहा जाये
या इन्सान बना जाये ?..

वो महान हैं देश की शान हैं वो बहुत सारे दावे भी कर देते हैं.... - वीरू सोनकर



वो महान हैं
देश की शान हैं
वो बहुत सारे दावे भी कर देते हैं
क्यों कि लोग आसानी से
उनके दावे को मान लेते हैं
उनके पास हर चीज़ का विकल्प हैं
पर वो
अक्सर कुछ बातों पर मौन रहते हैं,
वो भूख के विकल्प में
रोटी नहीं
देश का खाद्य  भंडार बता देते हैं
भूख शांत हो जाती हैं....../
वो बेरोजगारों को
अमेरिका में
बढती बेरोजगारी दर से डरा देते हैं
बेरोजगार भी सहम जाते हैं
उनके चरणों के प्रताप से
हर गॉव में
अब एक स्कूल हैं
वही यार
जहाँ हर महीने
पहली तारीख पर
शिक्षा मित्र आते हैं
बच्चो से स्कूल में झाड़ू लगवा कर
दोपहर में मिड डे मील बनता हैं,
और बेचारा कुपोषित बच्चा
एक दिन के लिए
खिल खिल उठता हैं....
तुम
उनसे कह कर तो देखो
वो तुम्हे कागज पर बनी रोड से सीधे सिंगापूर पंहुचा देंगे,


उनके हिसाब से
हर नहर नाले नदी पर
अब पुल बन चुका हैं,
देश चारों  तरफ तरक्की कर चुका हैं,
पर हर अगले चुनाव में
वो ये सारा विकास खुद झुठलाते हैं
बस अबकी जिता दो
कह कह कर
हर बार
कागज में
विकास की गंगा बहाते हैं.......

सुनो मैं अपने हाथो में कलम लिए लिए हजारो मील चल सकता हूँ - वीरू सोनकर


सुनो
मैं अपने हाथो में
कलम लिए लिए
हजारो मील चल सकता हूँ
सोच सकता हूँ
जहाँ भी मन आये
बैठ कर लिख सकता हूँ
मुझे कोई फर्क नही
अगर तुम मेरी तरफ देखो भी न,
मेरे लिखे को सराहो भी न,
तुम मेरे काव्य की चर्चा भी न करो


अपनी चौपालो पर,
मुझे तुमसे कोई लेना देना नही
क्युकी
मेरा लिखना
या सोचना
तुम्हारी तवज्जो का मोहताज नही
मैं तो बस
इस लिए लिखता हूँ
की कोई
थकी हारी
मजदूरनी
रात को
अपने बच्चे को
मेरे गीत सुना कर सुला सके
कोई प्रेमी
अपनी विरह के अकेलेपन में
मुझको अपने संग पा सके
कोई बच्चा
मेरे गीतों में
अपने सपने पा सके
कोई शिक्षक
मेरे गीतों से
अपने विद्यार्थियों को
सच कहना सिखा सके,
तो सुनो तुम
अगर तुम इनमे से कोई नहीं हो
तो मेरे गीतों से दूर रहो
मैं अभी
और चलूँगा
अपनी कलम के साथ
नंगे पैर
कड़ी धूप में,
मैं अभी
और बहुत सा सोचूंगा
खूब खूब लिखूंगा.............

गंध बारूद की अब हवाओं में है - बल्ली सिंह चीमा

गंध बारूद की अब हवाओं में है ।

ख़ूँ बहाने की लत पड़ गई है इन्हें,
एक हिंसक जुनूँ इन ख़ुदाओं में है ।

खुल रही पगड़ियाँ, नुच रही दाढ़ियाँ,
अटपटा-सा ये मंज़र निगाहों में है ।

वाह री ! जम्हूरियत जाऊँ सदके तेरे,
हिटलरी रंग तेरी अदाओं में है ।

ख़ौफ़ दो रंग का मेरे गाँवों में है 

सुनो ! वैदेही कुछ तो बोलो - दिव्या शुक्ला

सुनो ! वैदेही कुछ तो बोलो
--------------------------
न जाने कितनी मनौतियों मांगी देवी मईया से
बहुत अनुनय विनय की थी बाबा नें
तब कहीं जन्मी थी वैदेही ---दुनिया में आते ही -
बंदूकें दाग कर स्वागत हुआ था उसका
लोग जलभुन कर बोले भी --छठी मनाये हैं
मानो कुलदीपक जन्मा हो ---पराई अमानत है
इतना दुलार ---कभी कभी माँ झुझला भी जाती --
बोलती सुनो ! कहाँ ब्याहोगे इतना न बिगाड़ो दुलार से
बाबा ठठा कर हँसतें राजकुमारी है मेरी
उसे क्या जरूरत कुछ सीखने की ----
राजकुमार खुद से मांग कर ले जायेगा ---
---और हुआ भी यही ---एक दिन आया
बाबा बीमार हुये सबसे ज्यादा फिकर हुई
अपनी लाड़ली की तेरह चौदह साल की ही हुई थी


रिश्ता भी आ गया खुद चल कर ------
---घर वर दोनों ही मन मुताबिक ------
वैदेही का रघुवीर से नाता जुड ही गया
गुड़िया और सखियों के साथ गुट्टे खेलने की उम्र में
सात फेरे हुये ---वो बस यही सोच कर खुश थी
अब पता चलेगा माँ को ---बहुत डांटती थी न --
अब जाओ याद करो मुझे ---न गहने का मोह न कपड़ों का
ससुराल में माँ से भी प्यारी सासू माँ ---हर भूल छुपा लेती वो
पर जिसे समझना था वो तो समझ ही नहीं पाया ----
उसके लिये तो घर की तमाम कीमती चीजों की
तरह ही थी वो --बस एक कीमती समान
उसका बचपना मासूमियत सब गुम होती गई
वो चुप सी हो गई --आँखों में सूनापन भर गया
बाबा आते मिलने सीने से लगा कर प्यार करते
खूब रोती ---क्यूं भेजा इनके घर ले चलो वापस
कैसे बताती वो --क्या बताती ----
दो व्याघ्र जैसी आँखे हरपल उसके इर्दगिर्द घूमती रहती हैं
मौका मिलते ही दो पंजे उसे दबोचने को तैयार रहते हैं
कैसे बताती अपने जनक से ---उनकी वैदेही अपने ही घर में
असुरक्षित है अपनों से ही ---डरती है ---नींद में चौक जाती है -----
नींद खुल जाती है किसी लिजलिजे से स्पर्श से
और एक साया तेजी से बाहर जाता दिखता है
वो साया जिसे वो पहचानती है --- बोल नहीं सकती
कौन सुनेगा उसकी यहाँ --वो भी नहीं
जिसने रक्षा के वचन भरे थे ----किंकर्तव्यविमूढ हो गई
कैसे बताती वो --बाबा तुमने कैसा वर ढूंढा --
जो प्यार नहीं पैसा पहचानता है ---------
जो सब जान कर अनजान बना रहता है
----क्या बोले वैदेही ---यहाँ औरतों का बोलना मना है
क्या बताये ये विवाह एक समझौता है ---
बाबा तुम्हारे रुतबे से -----मौन रही वैदेही बरसों तक
लेकिन कब तक ---सब कहते सब पूछते
बोलो वैदेही कुछ तो बोलो मौन क्यूं कब तक ??
--बाबा की गीली आँखे पूछती चुप क्यूं हो वैदेही ? -----चुक गया धैर्य
चीख पड़ी ---फूट फूट कर रोई बाबा के सीने से लग
नहीं अब और नहीं ---इस बार नहीं दोहराई जायेगी प्रथा
और वैदेही नें ---रघुवीर का परित्याग कर दिया ---
शायेद यही नियति है ---हर युग में ---
बार बार यही गूंजता है मन में --
और कितने जनम लोगी वैदेही ----
-
दूर कहीं कोई रामायण की चौपाई उच्चार रहा था
अनुज बधू भगनी सुत नारी
ये सब कन्या सम है चारी
इन्हें कुदृष्टि बिलोके जोई
---आगे की पंक्तियाँ
घंटे घड़ियाल में गुम होती गई -----

Wednesday, April 23, 2014

दर्द जब बाँधा , उभर आया - रमेश 'रंजक'

दर्द जब बाँधा , उभर आया
गीत से पहले तुम्हारा नाम आया !

कुलमुलाये  छन्द के पंछी ,
छा गयी जब धूप हल्की-सी ,
ओढ़ युग जो सो रहीं बातें
लग रहीं अब , आजकल की-सी
याद टूटे स्वप्न भर लायी
जो किये थे वक़्त ने नीलाम !

खोल दी खिड़की हवाओं ने ,
उम्र-सी पायी व्यथाओं ने ,
व्योम-भर अपनत्व दरसाया
बाँह में भर-भर दिशाओं ने ,
चार मोती बो गयी दृग में
रात से पहले निगोड़ी शाम !

चल रही ज़िन्दगी पथ पर ,
पीठ पर लादे हुए पतझर ,
क्या पता कब दीप बुझ जाये
औ' निगल जाये अँधेरा: स्वर ,
कामना इतनी कि पा जाऊं
स्वर्ग से पहले तुम्हारा धाम !

अमराई अब गमक रही है , बौर नहीं बारूद से - डॉ. रेनू चंद्रा

अमराई अब गमक रही है , बौर नहीं बारूद से
तोड़ रहे हैं अमिया चोट्टे , सर कच्चे अमरुद से

कान पकड़  कर चपत लगाते , भले-बुरे की देते सीख
माली का यह फ़र्ज़ तो पूछे , कोई उस मरदूद से

पनपे बेर , करील , करौंदें , फूल रही है नागफनी
नरियल , आम , आँवला , महुआ हुए नेस्तोनाबुत से

सूख रहा है नेह नदी का निर्मल , कल-कल करता जल
दोनों ओर पाट रेतीले , बढ़ते जाते सूद से

पंछी कलरव  भूल जा छिपे , अपने-अपने नीड़ में
आतंकित होकर उस काले क्रूर कराल वजूद से

Monday, April 21, 2014

वो था पास बहुत अच्छा था दूर हुआ रोना क्या है ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

वो था पास बहुत अच्छा था
दूर हुआ रोना क्या है !
मैं उसका दीवाना हूँ , वो
भी मेरा दीवाना है !

ख़ुद अपने में खोये रहना
अब शुमार है आदत में ,
जो सब कुछ दे गया मुझे
मेरा सब-कुछ ले भागा है !


ठुकरा दे या गले लगा ले
ये तो उसकी मर्जी है ,
वक़्त मुझे सर माथे लेगा
इतना मुझे भरोसा है !

रोना मज़बूरी हो तो भी
आँखन गीली हो मेरी ,
इस पथरायी सूरत पर भी
वो अरसे से रीझा है !

मेरी पूनम-पूनम रातें
जिस ने स्याह अँधेरी की
उसको क्या मालूम कि वो-ही
इन आँखों का तारा है !

जिस का नाम शहर ऊपर था
अब कोई पहचान नहीं ,
घर में भी फ़रार कैदी-सा
ख़ुद में छिपता-फिरता है !

उस को क्या खोया है
मैंने अपना भी वजूद खोया
दुनियां के नक़्शे से मेरा
नामो-निशां मिट गया है !

दिल टूटा तो टूटा तू ने
आमद वाले शेर कहे ,
कर यकीन 'सिन्दूर' कि तू भी
शायर बड़ा हो गया है !


कटे पंख-वाले पंछी-सी तड़प उठी फिर याद पुरानी ! - प्रतीक मिश्र

कटे पंख-वाले पंछी-सी
तड़प उठी फिर याद  पुरानी !

घुमड़-घुमड़ आये अंतस में
आकुलता के घन कजरारे ,
सुधि के झितिज छोर पर दमके
क्षण-जीवी बेसुध उजियारे ,

फिर ज्यों का त्यों घुप अँधियारा
फिर अँधियारे की मनमानी !

चातक , मोर-पपीहे मचले
मचल-मचल के शान्त हो गये ,
कोलाहल-वाले बीते पल
जाने कब एकान्त हो गये ,

जाने कब से बने हुये हैं
एकाकी पल अवढर दानी !

यह क्या हुआ पीर को , उमड़ी
और नयन का नीर हो गई ,
सहमी ठिठकी और अचानक
जाने क्यों गंभीर हो गई ,

पीर कसक की बनी सहेली
और कसक हो गयी सयानी !

मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन............- राहत इन्दौरी

''अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है
ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है

लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है

मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है

हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है

जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है

सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है'

खुद से झूठ बोलती औरतें - मृदुला शुक्ला

खुद से झूठ बोलती औरतें
पिता द्वारा
अपने आस पास खींचे
गए वृत्त में बंधी
गाय की तरह
पगहे में लवराई लडकियां
जा सकती हैं दूर तक टूंगते हुए,
हरे भरे घास के मैदानों में

पगहे की सीमा समाप्त होते ही
लौट आती हैं रंभाती हुई
आँखों से छलकाती स्नेह का प्रतिदान



वृताकार मैदानों का चौरस हो जाना
हरा भरा होना,
पगहे का मैदानों के आखिरी छोरों तक
विस्तारित होते जाना
स्नेह में दया
प्रतुत्तरमें कृतज्ञता
ये तय होते है
सशर्त स्नेह के नए
अलिखित माप दंड

अपने मन पर महसूसती हुई
सीमा रेखाओं की खरोंचे
वे स्वांग करती हें
असीमित होने के सुख
से अपरिचय का

परिधियों की रेखाओं को
स्वीकारते हुए अपनी हथेली पर
वे उसे विलीन मान लेती हैं अपनी
भाग्यरेखा से,

वे जानती हैं बेहतर तरीके से
रेखाएं निर्धारित करती हैं सीमा
खुद सीमाओं में बंधे होने पर भी
वो हथेली पर हों या की
किसी वृत्त की परिधि पर

दरअसल वे सच नहीं बोलती
वो खुद से बोलती हैं एक बहुत बड़ा झूठ
वे भले से जानती हैं ,सच बोल कर भी क्या होगा...........

पेड़ से हम अलग टूटी डाल है ! - यश मालवीय

पेड़ से हम अलग
टूटी डाल है !
या-कि टूटी
पत्तियों का ताल  हैं  !

पात टूटे , टूटती बौछार हो मन-प्राण टूटे ,
कुछ भले हो नहीं मिटते याद के वो बेलबूटे ,
हम कि अपनी
मुक्ति का ही जाल हैं !

है सदा हक़ में हमारे मौसमों का यह बदलना ,
व्यवस्था का बदल जाना और गिर-गिर कर संभालना
बहुत अच्छा है
कि हम बेहाल है !

सुनो, पीली पत्तियों की बारिशों का शोर जागे ,
शाम जागे , दोपहर जागे कि कच्ची भोर जागे ,
हम चड़ाई हैं ,
कि हम ही ढाल हैं !

Sunday, April 20, 2014

इसीलिये शापित है मेरा अस्तित्व यहाँ - बालस्वरूप 'राही'

इसीलिये शापित है मेरा अस्तित्व यहाँ
मिले-जुले चेहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं !

उकतायी शामों के हाथों में
फूलों के दीपक है बुझे-बुझे ,
नहीं , नहीं , अपने ही कमरे की
 खुशबू में जाने दे लौट मुझे ,

दरपनी अकेलेपन ! मैं उझ में झाकूँगा
धुंधलाये शहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं !

जीवन-भर लीक-लीक चलने से
अच्छा है कहीं बंद हो जाना ,
छंदों के साँचे में ढलने से
बेहतर है , मुक्तछन्द हो जाना ,

हाँ , मैं अपने ही भीतर डूब गया हूँ गहरा
तटवर्ती लहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं !

सम्भव है कोई अनसही व्यथा
दे जाये फिर मुझ को जन्म नया ,
सूर्यमुखी अहम् बहुत काफ़ी है
रहने दो निशिगंधा आत्म-दया ,

कोई अनुभूति वायरल मुझ को फिर सिरजेगी
एकरूप प्रहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं !  

मेरे हुजरे में नहीं , और कहीं पर रख दो, आसमां लाये हो ले आओ , जमीं पर रख दो ! - राहत इन्दौरी

मेरे हुजरे में नहीं , और कहीं पर रख दो,
आसमां लाये हो ले आओ , जमीं पर रख दो !
अब कहाँ ढूड़ने जाओगे , हमारे कातिल ,
आप तो क़त्ल का इल्जाम , हमी पर रख दो !

उसने जिस ताक पर , कुछ टूटे दिये रखे हैं ,
चाँद तारों को ले जाकर , वहीँ पर रख दो !
दो गज ही सही मगर ये मेरी मिल्कियत तो है,
ऐ मौत तूने मुझको ज़मींदार कर दिया !

नयी हवाओं को  सौहबत बिगाड़ देती है,
कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है !
वो जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते,
सज़ा न देकर अदालत बिगाड़ देती है !

मिलाना चाहा है जब भी इंसा को इंसा से
तो सारे काम सियासत बिगाड़ देती है !
सियासत में जरुरी है रवादारी समझता है ,
वो रोज़ा तो नहीं रखता मगर इफ्तारी समझता है !

अन्दर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गये ,
जितने शरीफ़ लोग थे सब खुलके आ गये !
सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवकूफ ,
सारे सिपाही मोम के थे सब घुल के आ गये !!


Saturday, April 19, 2014

चेहरा एक , मुखौटे अनगिन इतने सभ्य हुये , - श्याम निर्मम

चेहरा एक , मुखौटे अनगिन
इतने सभ्य हुये ,
भीतर-भीतर बड़े घिनौने
बाहर भव्य हुये !

सांप नहीं पर ये साँपों से भी
हैं ज़्यादा जहरीले ,
है किस में इतनी मजाल जो

इनके डसे हुये को कीले ,
यों तो , इनकी कई जातियां
यही अलभ्य हुये !

पानीदार कहेंगे ख़ुद को
पर आँखों का पानी सूखा ,
छोड़ शराफ़त सभी डकारें

फिर भी पेट दिखायें भूखा ,
रीती गगरी में , जो छलके
ऐसे द्रव्य हुये !

अक्खडपन , फक्कडपन इनका
मूक बने सब नखरे सहते
ये तो हैं देवता सरीखे

हम मनुष्य कैसे संग रहते ,
दर्द आधुनिक , कथा वही पर
ये ही दिव्य हुये !

बड़े दिखेगें सीधे-सादे
पर बिल में भी चलते टेढ़े ,
राग अलापेंगे भैरव में
वार बड़े पर मोहक छेड़े ,
इन का बड़ा , हुआ है धोखा
सभी असभ्य हुये !


ऐसी गाँठ बंधी अंतस में , चाहा भी तो खोल न पाया ! - अमर नाथ श्रीवास्तव

ऐसी गाँठ बंधी अंतस में  ,
चाहा भी तो खोल न पाया !
कभी समय पर सोच न पाया
कभी समय पर बोल न पाया !

भीतर-भीतर फाँस समेटे
बाहर-बाहर हँसी तुम्हारी ,
तुम से मिलना , उत्सव ऐसा
रातें रूठी पलकें भारी ,

मिला मुझे आकाश नमन का
मैं अपने पर तोल न पाया !

वे परम्परा के आभूषण
भार हो गए रिश्ते-नाते
धारण करते जी डरता था
खोने का भय , आते-जाते ,

फूलों के ज़ेवर जो सोचे
बाज़ारों में मोल न पाया !

बार-बार शब्दों का चुनना
बार-बार उनमें संशोधन ,
दो होठों के बीच रह गये

फागुन की आहट आयी भी
टेसू के रंग घोल न पाया !

बंद होंठों में छुपा लो ........... - डॉ. कुंअर बेचैन

बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।
हैं हवा के पास
अनगिन आरियाँ
कटखने तूफान की
तैयारियाँ
कर न देना आँधियों को
रोकने की भूल
वर्ना रो पड़ोगे।
हर नदी पर
अब प्रलय के खेल हैं
हर लहर के ढंग भी
बेमेल हैं
फेंक मत देना नदी पर
निज व्यथा की धूल
वर्ना रो पड़ोगे।
बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।

बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं - डॉ. कुंअर बेचैन

बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं
ओ वासंती पवन ! हमारे घर आना !

जड़े हुये थे ताले सारे कमरों में ,
धूल-भरे थे आले सारे कमरों में ,
उलझन और तनावों के रेशे वाले
पुरे हुये थे जाले सरे कमरों में

बहुत दिनों के बाद सांकलें डोली हैं ,
ओ वासंती पवन हमारे घर आना !


एक थकन-सी थी नाव भाव-तरंगों में ,
मौन उदासी थी वाचाल उमंगों में ,
लेकिन आज समर्पण की भाषा बोले
मोहक-मोहक प्यारे-प्यारे रंगों में

बहुत दिनों बाद खुशबुएँ घोली हैं ,
ओ वासंती पवन ! हमारे घर आना !

पतझर ही पतझर था मन के मधुवन में ,
गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में ,
लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर
चिंतन की छत पर , भावों के आँगन में

बहुत दिनों के बाद चिरिइयां बोली हैं
ओ वासंती पवन ! हमारे घर आना !


Friday, April 18, 2014

मैं परिंदों की हिम्मत पे हैरान हूँ, - अशोक रावत

डर मुझे भी लगा फ़ासला देखकर,
पर में बढ़ता गया रास्ता देखकर.

ख़ुद ब ख़ुद मेरे नज़दीक आती गई,
मेरी मंज़िल मेरा हौसला देखकर.

मैं परिंदों की हिम्मत पे हैरान हूँ,
एक पिंजरे को उड़ता हुआ देखकर.

खुश नहीं हैं अॅधेरे मेरे सोच में,
एक दीपक को जलता हुआ देखकर.

डर सा लगने लगा है मुझे आजकल,
अपनी बस्ती की आबो- हवा देखकर.

किसको फ़ुर्सत है मेरी कहानी सुने,
लौट जाते हैं सब आगरा देखकर.

कोई मुझ से ऊपर मन से मिलता है तो मिला करे - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

वो जो ख़ुद बच्चा जैसा है
मुझको बच्चा कहता है !
उसने मेरे पत्थर दिल को
झरना  होते  देखा  है !

मैं कुछ कहना चाहूँ तो वो
होंठों पर ऊँगली रख दे ,
उसने बहार-भीतर मुझको
अच्छे-से पढ़ रक्खा है !

ढाई-आखर पढ़ कर उसने
इन्द्रजीत को जीत लिया ,
वो मेरे मुँह पर ही मुझसे
चाहे जो कह लेता है !

उसको खो कर-के खोया है
अपना भी वुजूद मैंने ,
दुनिया के नक़्शे से मेरा
नामो-निशां मिट गया है !

कोई मुझ से ऊपर मन से
मिलता है तो मिला करे ,
मिलता है 'सिन्दूर' किसी से
पूरे मन से मिलता है !

घबरा न मेरे यार ! जो तूफ़ा से घिरा है - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं किस मक़ाम पर था , कहाँ आ के रुका हूँ !
जो याद रह गया  था , वो भी भूल गया हूँ !

मंज़िल उधर कहाँ है , मैं जिस सिम्त चला हूँ,
क़िस्मत हँसी है मुझ पे , मैं क़िस्मत पे हँसा हूँ !

घबरा न मेरे यार ! जो तूफ़ा से घिरा है,
तूफ़ा की बदौलत ही मैं साहिल पे खड़ा हूँ !

ये चूक मेरी थी , कि मुक़द्दर की चाल थी,
मैं वक़्त का मालिक था , सलाख़ों में पड़ा हूँ !

वो बुत समझ के मुझको , मेरे पास आ गया ,
उसको पता न था , मैं उसे सोच रहा हूँ !

ये आईना तो झूठ कभी बोलता न था ,
मैं जो न रह गया हूँ , वही देख रहा हूँ !

गहरे उतर गया था मैं 'सिन्दूर' भँवर में ,
ये किसने पुकारा जो बवंडर-सा उठा हूँ !

Thursday, April 17, 2014

अपने टुकड़े को धकेलता मै एक गुबरैला - कश्यप किशोर मिश्रा


जिन दिनों मै खाली रहता हूँ,
यहाँ खाली होने का मतलब, उन दिनों से है
जिस दौरान मेरा लिखना पढ़ना रुका होता है|
तो इन खाली दिनों में,
बिना किसी हील हुज्जत के,
मै बस खाली हो जाता हूँ|

इन खाली दिनों के दौरान,
अक्सर मै अपने पते पर नहीं मिलता|
घर के पेड़ पौधों को दुलराते भी नहीं दिखता
न ही सुनता हूँ “कुमार गंधर्व” या
जगजीत सिंह का संगीत|
ना ही किसी सुदूर पहाड़ की चोटी पर,
अपने नोट-पैड के साथ चला जाता हूँ|
इन खाली दिनों में,
अक्सर अपने साथ मै कुछ नहीं रखता|
पिट्ठू थैला, थैले में एक गमछा, एक कैमरा,
पानी की बोतल और कुछ रूपये, जो वाकई कुछ ही रहते है|
तो निकल पड़ता हूँ बस इतने से सामान के साथ किसी भी तरफ|
शहर में ही, या गाव में हुआ तो गावों की तरफ|
यह निकल पड़ना, अक्सर पैदल ही होता है,
जो कभी-कभी बैलगाड़ी इक्का या किसी साईकिल वाले से मदद तलब होकर आराम भी कर लेता है|
गावं के सीवान से सटा काली माँ का चौर मान लीजिये मेरा ठिकाना है,
तो करीब-करीब पूरा एक दिन बस वहीँ बिता देता हूँ |
या घर से निकलते बस एक मील के फ़ासले पर,
सड़क को काटती जो नहर है,
उसकी पुलिया से उतर जाता हूँ नीचे|
ठीक पुलिया के नीचे जगह तलाशता हूँ, बैठ जाता हूँ|
कभी-कभी मुहल्लेवाले पार्क की पानी की टंकी के नीचे बिता देता हूँ, एक पूरा दिन|
और कभी-कभी ऐसा भी करता हूँ,
कि चहल-पहल बाजार में,
तलाश लेता हूँ, एक छुपा-छुपा कोना,
बस वही बैठ जाता हूँ|
एक दम खाली मन से,
खाली ख्यालों के साथ,
बस वक़्त को गुजरते रहने देता हूँ,
एकदम खाली-खाली|
...और जब सोचता हूँ, अब चला जाये|
तो सामने की दुनिया गोबर सी लगती है,
और मै,
अपने हिस्से के दुनिया के टुकड़े को धकेलता एक गुबरैला |

Wednesday, April 16, 2014

सो न सकूँगा और न तुझ को सोने दूंगा, हे मन-बीने ! - हरिबंशराय बच्चन

सो न सकूँगा और न तुझ को सोने दूंगा, हे मन-बीने !

इसीलिये क्या मैंने तुझ से
सांसों के संबंध बनाये,
मैं रह-रह कर करवट लूँ तू
मुख पर डाल केश सो जाये,

रैन अँधेरी ,  जग जा गौरी
माफ़ आज की हो बरजोरी
सो न सकूँगा और न तुझ को सोने दूंगा, हे मन-बीने !

सेज सजा सब दुनिया सोयी
यह तो कोई तर्क नहीं हैं,
क्या मुझ में-तुझ में , दुनिया में
सच कह दे , कुछ फर्क नहीं है ,

स्वार्थ प्रपंचों के दू:स्वप्नों
में वह खोयी , लेकिन मैं तो
खो न सकूँगा और न तुझ को खोने दूंगा , हे मन-बीने !

जाग छेड़ दे एक तराना
दूर अभी है भोर, सहेली !
जगहर सुन कर के भी अक्सर
भग जाते है चोर, सहेली !

सधी-बदी-सी चुप्पी मारे
जग लेटा, लेकिन चुप मैं तो
हो न सकूँगा और न तुझ को होने दूंगा, हे मन-बीने !

गीत चेतना के, सिर कलगी ,
गीत ख़ुशी के , मुख पर सेहरा ,
गीत, विजय की कीर्ति पताका ,
गीत , नींद गफ़लत पर पहरा ,

पीड़ा का स्वर आंसू , लेकिन
पीड़ा की सीमा पर मैं तो
रो न सकूँगा और न तुझ को रोने दूंगा , हे मन-बीने !

जाने कब रुक जांय ज़िन्दगी के पहिये ! - रमानाथ अवस्थी

देख रहे हैं जो भी कृपाकर मत कहिये !
मौसम ठीक नहीं आजकल चुप रहिये !

चारों ओर हमारे जितनी दूर तलक जीवन फैला है,
बाहर से जितना उजला वह, भीतर उतना ही मैला है;
मिलने-वालों से मिल कर तो, बढ़ जाती  है और उदासी,
हार गए ज़िन्दगी जहाँ हम पता चला वह बात जरा-सी;

मन कहता है दर्द कभी स्वाविकार न कर
मज़बूरी हर रोज़ कहे इस को सहिये !

कल कुछ देर किसी सूने में मैंने की ख़ुद से कुछ बातें,
लगा कि जैसे मुझे बुलायें बिन बाजों-वाली बारातें;
कोई नहीं मिला जो सुनता मुझ से मेरी हैरानी को,
देखा सब ने मुझे, न देखा मेरी आँखों के पानी को;

रोने लगी मुझी पर जब मेरी आँखें
हँस कर बोले लोग, मांग मत जो चहिये !

फुलवारी में फूलों से भी ज़्यादा साँपों के पहरे हैं,
रंगों के शौक़ीन आज भी जलते जंगल में ठहरे हैं;
जिन के लिए समंदर छोड़ा वे बादल भी काम न आये,
नयी सुबह का वादा कर के, लोग अंधेरों तक ले आये;

भूला यह भी दर्द, चलो कुछ और जियें
जाने कब रुक जांय ज़िन्दगी के पहिये !



Monday, April 14, 2014

जो कुछ होता है, होने दो - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

जन्म-दिवस पर घर के बच्चे
एस. एम. एस. कर देते हैं
ये पल भरी-भरी आँखों को
और अधिक भर देते हैं !


मित्रों की बधाइयाँ मन को
क्या से क्या कर जाती हैं,
कैसी-कैसी विडम्बनाएँ
इस जीवन में आती हैं,
'फोनकाल' पर हम सतर्क हो
संयम उत्तर देते हैं !

'बुके' साथ लाने-वालों से
हँस-हँस बातें होती हैं,
नयी सुबह की रात बड़ी है
मारक बरसातें होती हैं,
हम देते मधुमास जिन्हें
वे हमको पतझर देते हैं !

पत्नी कहती, 'मेरे रहने तक
तुमको भी रहना है,
जो कुछ होता है, होने दो
साँस चले तक बहना है,
हम उस के निर्बल काँधे पर
बोझिल सर रख देते हैं




Sunday, April 13, 2014

कृष्ण मुरारी पहरिया , बाँदा (उत्तर प्रदेश ) के दो गीत

१.
दाह नहीं है, शीतलता है
मन छाया-छाया चलता है

सभी हौसले पस्त हो गए
लड़ने के, बदला लेने के
मौलिकता के, चमक दमक
अपनी नाव अलग खेने के

क्रांति और उकसाने वाली
भाषा का नाटक खलता है

अब तो शांत झील जैसा सुख
अभ्यंतर में रचा-बसा है
विस्मृति में इतिहास पुराना
कब सर्पों ने उसे डंसा है

उसके भीतर झिलमिल-झिलमिल
राग भरा सपना पलता है

2.
एक दिया चलता है आगे-
आगे अपने ज्योति बिछाता
पीछे से मैं चला आ रहा
कंपित दुर्बल पाँव बढाता

दिया जरा-सा, बाती ऊँची
डूबी हुई नेह में पूरी
इसके ही बल पर करनी है
पार समय की लम्बी दूरी

दिया चल रहा पूरे निर्जन
पर मंगल किरणें बिखराता

तम में डूबे वृक्ष-लताएँ
नर भक्षी पशु उनके पीछे
यों तो प्राण सहेजे साहस
किन्तु छिपा भय उसके नीचे

ज्योति कह रही, चले चलो अब
देखो वह प्रभात है आता

ब्रह्मदेव बन्धु की एक ग़ज़ल

अजीब शहर है खुद को संभाल कर रखिये
हो जाये वार न ढालें निकाल कर रखिये


वो कोलतार गरम दूर तक जो फैला है
ये पाँव अपने ज़रा देख भाल कर रखिये


ये ज़िन्दगी तो फटी-सी क़मीज़ है यारो
इसे जनाब कहाँ तक संभाल कर रखिये


तमाम दर्द ज़माने में फिर भी हँसना है
नकाब आप तो चेहरे पे डाल कर रखिये


संवार लेते हो चेहरे की सिलवटों को तुम
पड़ी जो झुर्रियां दिल में न टाल कर रखिये

Saturday, April 12, 2014

जाने क्यों तुमसे मिलने की, आशा कम विश्वास बहुत है ! - बलवीर सिंह 'रंग'

जाने क्यों तुमसे मिलने की
आशा कम विश्वास बहुत है !

सहसा भूली याद  तुम्हारी उर में आग लगा जाती है,
विरहातप भी मधुर मिलन के सोये मेघ जगा जाती है,
मुझ को आग और पानी में
रहने का अभ्यास बहुत है !

धन्य-धन्य मेरी लघुता को जिसने तुम्हें महान बनाया,
धन्य तुम्हारी स्नेह कृपणता जिसने मुझे उदार बनाया,
मेरी अंध-भक्ति को केवल
इतना मंद प्रकाश बहुत है !

अगणित शलभों के दल के दल एक ज्योति पर जल कर मरते,
एक बूंद की अभिलाषा में कोटि-कोटि चातक तप करते,
शशि के पास सुधा थोड़ी है
पर चकोर की प्यास बहुत है !

मैंने आँखे खोल देख ली है नादानी उन्मादों की,
मैंने सुनी और समझी है कठिन कहानी अवसादों की,
फिर भी जीवन के पृष्ठों में
पढ़ने को इतिहास बहुत है !

ओ जीवन के थके पखेरू ! बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बंदी है , मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिंता धरती यदि छूटी,
उड़ने को आकाश बहुत है !






हम पत्ते तूफ़ान के ! - गोपालदास 'नीरज'

हम पत्ते तूफ़ान के !
हम किस को क्या दे-लें, हम तो बंजारे वीरान के !

ऊपर उठते, नीचे गिरते,
आँधी-संग भटकते-फिरते,
जिस पर लंगर नहीं, मुसाफ़िर हम ऐसे जलयान के !

रमता जोगी, बहता पानी,
अपनी इतनी सिर्फ़ कहानी,
पल-भर के मेहमान, कि जैसे बुझते दिये विहान के !

कुछ पीड़ा, कुछ आंसू खारे,
बस यह पूंजी पास हमारे,
ताजमहल में देखे हमने पत्थर कब्रिस्तान के !

सपने हम न किसी काजल के,
अपने हम न किसी आँचल के,
नीलामी पर चढ़े खिलौने, काग़ज की दूकान के !

जात अजानी, नाम अजाना,
कहीं न अपना ठौर-ठिकाना,
बिना कुटी के सन्यासी हम, मकी बगैर मकान के !

जुड़े नुमायश, लगे कि मेले,
रहे यहाँ हम सदा अकेले,
कौन हार में जड़े हमें, हम मानिक दुःख की खान के !

दिल शोला, आँखें शबनम हैं,
हम से मत पूछो, क्या हम हैं ?
मज़हब अपना प्यार, जन्म से आशिक़ हम इन्शान के !

Friday, April 11, 2014

देर हुई घर आने में , दिल बैठा तैखाने में ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

देर हुई घर आने में !
दिल बैठा तैखाने में !!

क्या बतलाऊँ क्या-क्या था !
मेरे लुटे खजाने में !!

गुलशन रास न आया तो,
लौट पड़ा वीराने में !

इश्क ख़ुदकुशी कर लेता,
मान गया समझाने में !



मुझे चैन सा मिलता है,
दिल-ही-दिल पछताने में !

वो शर्माता है, सिर पर,
अपना बोझ उठाने में !

मसला सुलझा, एक नहीं,
उम्र गयी सुलझाने में !

जिसको मैंने मन्त्र दिया,
मुझे लगा बहकाने में !

उम्र कैद की सज़ा मिली,
इश्क किया बचकाने में !

जिस ने जो चाहा जोड़ा,
पाक-साफ़ अफ़साने में !

सांसें जल-कर खाक हुईं,
दिल की आग बुझाने !

घर- बैठा 'सिन्दूर' मगर,
दिल है कहाँ ठिकाने में !

बातों में हम आयें क्यों , मन अपना भरमायें क्यों - डॉ. रेनू चंद्रा

बातों में हम आयें  क्यों
मन अपना भरमायें  क्यों

आखिर बात बनेगी ही
हम इतना घबराएँ क्यों

रात गयी तो बात गयी
सर धुनकर पछताएँ क्यों

मिलकर शिकवे दूर करें
मित्रों से कतराएँ क्यों

व्यंग हमें खलते हैं तो
औरों पर बरसाएँ क्यों

केवल उनकी खातिर ही
सारी सुख-सुविधाएं क्यों

दो ही सच्चे दोस्त भले
ज्यादा भीड़ जुटाएं क्यों

Thursday, April 10, 2014

अनिल सिन्दूर की दो रचनायें

जिसने थामीं थी लड़कपन में उँगलियाँ मेरी - शशांक सुरेन्द्र बुदकल

जिसने थामीं थी लड़कपन में उँगलियाँ मेरी
वो ही अब ढूँढ़ता रहता है ग़लतियाँ मेरी

ले चुके नाम हम उनके, जो ज़हन में थे
बंद होती ही नहीं फिर भी हिचकियाँ मेरी

मुफ़लिसी में जो मिला करते थे नश्तर बनके
मिली दौलत तो गिनाते हैं खूबियाँ मेरी

हैं बहुत तेज़ हवाएँ आज दरिया की
कहाँ जाएँगी भला अब ये कश्तियाँ मेरी

आख़री वक़्त में आए हैं तसल्ली देने
जो हँसा करते थे, सुन-सुन के सिसकियाँ मेरी....

Wednesday, April 9, 2014

जिस तरफ़ कोई न जाता हो, उधर जाने दे ! प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

जिस तरफ़ कोई न जाता हो, उधर जाने दे !
जीत का बोझ मेरे सर से, उतर जाने दे !!

ऐ ! मेरे इश्क़ तुझ से इल्तिजा, है ये मेरी,
एक मुद्द्त से छिपे राज़ को, मर जाने दे !

मैंने हर सम्त अपने गहरे निशां छोड़ दिये,
मेरी परवाज़ मुझे ख़ुद में ठहर जाने दे !

मैंने सोचा न कभी, मुझ को संवारे कोई,
आख़िरी वक़्त वो चाहे, तो संवर जाने दे !

हो के आया मैं इधर जिन तवील राहों से,
लौट कर फिर उन्हीं, राहों से गुज़र जाने दे !

आज 'सिन्दूर' अपना दर्द छिपाते न बने,
कुछ तो बिखरा हूँ, अभी और बिखर जाने दे !

कौन आया है तेरे गाँव, बिना आहट के - डॉ. रेनू चंद्रा

बाढ़ आई थी इसी ठाँव बिना आहट के
बह गया मेरा बसा गाँव बिना आहट के

कैसा मेहमान है ये दर्द कि बस आ पहुँचा
भोर होते ही बिना कांव, बिना आहट के

जल गया रेशमी ख़्वाबों से बुना चंदोबा
हट गई सर से मेरे छांव, बिना आहट के

कैसा बंधन मेरे दिल ने ये लगाया मुझ पर
थम गए बढ़ते हुए पाँव, बिना आहट के

उम्र के दश्त में भटकाव से लड़ते-लड़ते
ज़िन्दगी हार गई दाँव, बिना आहट के

'रेनू' सांकल तो निराशा की ज़रा खोलके देख
कौन आया है तेरे गाँव, बिना आहट के

Monday, April 7, 2014

अवज्ञा अमरजीत गुप्ता की एक रचना व्यवस्था पर


किराड़ी विधान सभा क्षेत्र के नाम--

एक नेता जिसने की गुंदागर्दी खुलेआम/
पीटा जन को सरेआम/
चटाया थूक.. पिलाया मूत भी./
और दे दिया सड़कोँ को अपने बाप का नाम../

और उसके बाद भी बना रहा.. वो आपका अपना नेता/
देकर अपनी मूँछ पर ताव/
किया खारिज़ तुमने हर बदलाव/

सुनो

नजदीक के सरकारी स्कूल मेँ पहुँचो../
जहाँ एक कमरे मेँ ठूँस दिये जाते है 150 बच्चे/
और नहीँ है पिछले पाँच सालोँ से पीने का पानी /
जबकि मुख्य अतिथि होता है तुम्हारा यही नेता/हर साल..हर बार/
वहीँ.. हाँ वहीँ
खुले मेँ शौच को मजबूर है तुम्हारी अपनी ही बेटियाँ/



अब.. जब कोई छोटा बच्चा..
थामे तुम्हारी ऊंगली/
इसी सहजता से.. झांकना उसकी आँखोँ मेँ/
और कह देना
नेता तुम्हारी जाति का है.
इसलिये तुमने/
उनका भविष्य बेच डाला!

तुम्हारी इस बाभनवादी मानसिकता पर थू..
तुम्हारे इस जातीय अहंकार पर थू
तुम्हारी रूढिवादी जड़ता
तुम्हारी सोच तुम्हारे संकीर्ण विचार पर थू..

सोनाली बोस की एक रचना

सुनो,
तुम्हेँ खोकर ही
मैँने पूरा पाया है.
अब ना तुम्हेँ पाने की कोशिश
ना ही है खोने का ख़ौफ़...
भूल चुकी हूँ माज़ी
नज़र मेँ संजोया है
सुनहरा कल....


अकेली हूँ,
लेकिन नहीँ तन्हा
हमसफर बनाया है
स्वाभिमान को,
निज सम्मान को...
पाना है संसार,
थामना है इस मुट्ठी मेँ
अपने हिस्से का पूरा आसमान�।

शशांक सुरेन्द्र बदकुल की एक ग़ज़ल

ख्वाब आता है तो पलकों पे ठहर जाता है
आँख खुलते ही हवाओं में बिखर जाता है

आदमी सीख ले फूलों से ही जीने का हुनर
खार के बीच में रह के जो संवर जाता है

खुदको औरो की नज़र में तू तमाशा न बना
वक्त कितना भी बुरा हो तो गुजर जाता है

तेरी जुल्फों की घनी छाओ में मिलता है सुकू
जो भी आता है तो पल भर को ठहर जाता है

ऐ खुदा तू ही बता किस पे भरोसा कर लूँ
वादा करके यहाँ हर शख्स मुकर जाता है

करतल चूमे संन्यास -प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

झंकृत धरती आकाश,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !

अनुगुंजित अन्तर की घाटी,
नर्तित चलती-फिरती माटी;
बाँसुरी बनी नि:श्वास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !

जैसे हो वंदन की वेला,
अर्चन-अभिनन्दन की वेला;
मुखरित निर्जन-अधिवास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !

सुधियों ने अवगुण्ठन खोले,
किसलय-दल-सा संयम डोले;
करुणा-विगलित उल्लास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !

युग से सूखे दृग, तरल हुए,
पहले-जैसे ही सरल हुए;
करतल चूमे संन्यास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !

अक्षर-अक्षर मेघ उभरते - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'


तू न सही, तेरे पत्रों से ही बातें होती हैं !
चंदा-वाले दिन, सूरज-वाली रातें होती हैं !

चित्रांकित सम्बोधन अनपढ़-सपने पढ़ लेते हैं,
प्राकृत आलेखों को आँसू अर्थ नए देते हैं,
सुधियाँ कैसी भी हों, मादक सौगातें होती हैं !



अक्षर-अक्षर मेघ उभरते, नीर बरस जाता है,
इन्द्रधनुष का शब्द-भेद शर कल्प-छन्द गाता है,
यौवन अक्षत कर दें, ऐसी भी घांतें होती हैं !

मैं तेरी करुणा को, अपनी धुन में लेता हूँ,
अपने विगत रूप का अब मैं, केवल अभिनेता हूँ,
जमुना-जल पर, गंगा-जल की बरसातें होती हैं


मुनव्वर राणा की दो गज़लें

1.
इसी गली में वो भूखा किसान रहता है
ये वो जमीं है जहाँ आसमां रहता है
 
मै  डर  रहा हूँ हवा से ये पेड़ गिर न पड़े
कि इसपे चिड़ियों का एक खानदान रहता है

सड़क पर घूमते पागल की तरह दिल है मेरा
हमेशा चोट का ताजा निशान रहता है

तुम्हारे ख्वाबों से आँखे महकती रहती है
तुम्हारी याद से दिल जाफरान रहता है

2.
माँ
लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती !
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती !!

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है !
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है !!

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू !
 मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना !!

अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कुछ  भी नहीं होगा !
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है  !!

जब भी कश्ती मेरी सैलाब मैं आ जाती  है !
माँ दुआ करती हुई ख्वाब मैं आ जाती है !!

Sunday, April 6, 2014

लाल सुर्ख आंधी - दिव्या शुक्ला




एक अरसे बाद आज फिर आई
न जाने क्यूँ सुर्ख लाल आंधी
एकबारगी तो आत्मा काँप उठी
जब जब ये लाल आंधी आती है
कुछ न कुछ छीन ले जाती हैं
पहली बार जब मेरे होशोहवास में आई थी
याद है उस रात को सुर्ख आंधी ने कैसे
इन हाथों को हल्दी से पीला रंग
एक झोंके में ही अपने ही घर में पराया कर दिया था
रोप दिया नन्हे बिरवे को दूसरी माटी में
जब भी जड़े अपनी पकड़ बनाने लगती
हवा हल्का झोका उसे हिला जाता
प्रयत्न किये पर पराई की पराई ही रह गई
कभी जम ही नहीं पाई नई माटी में
आज भी सोचती हूँ अपना घर कौन सा है

बौखल बदहवास सी सब को खुश करती फिरती रही
याद ही न रहा मै कौन हूँ मेरी भी कहीं कोई खुशी है
गोल रोटियां गोलमटोल बच्चे और उन्ही के संग
गोल गोल घूमती मेरी पूरी दुनिया यहीं तक सीमाएं खींची रही
कभी कभी मन में रिसाव होता पीडाएं बह उठती सूखी आँखों से
पर सीमाओं को पार करने का साहस कभी न हुआ --न जाने क्यूँ
फिसलन ही फिसलन थी अपनी आत्मा के टपकते रक्त की फिसलन
जब जब बढे पाँव तब तब उसी फिसलन से सरक कर
मेरी जिंदा लाश को पटक आते लक्ष्मणरेखा के भीतर ही --
बड़ी लाचारी से पलट कर देखती तो पाती
दो कुटिल आँखों में कौंधती व्यंग्यात्मक बिजली
चीर देती कलेजा वह तिर्यक विजई मुस्कान -
लाल आंधी की प्रतीक्षा सी तैरने लगी थी अब मन में -
और इस बार सीमाएं तो उसने तहसनहस कर डाली परन्तु
कैद का दायरा बड़ा दिया बड़े दायरे में खींची लक्ष्मणरेखा
टुकड़ों में मिली स्वंत्रतता उफ़ साथ में हाडमांस से जुड़े कर्तव्य
अब इस बार क्यूँ आई आज क्या ले जायेगी क्या दे जायेगी
न जाने क्या क्या उमड़ता घुमड़ता रहा रीते मन में -
कोई भय नहीं आज खोने का /ना ही कोई लालसा कुछ पाने की
यही सोचते हुए न जाने कब मै द्वार खोल कर बाहर आ गई
शरीर के इर्दगिर्द ओढ़नी को लपेट कर निर्भीक खड़ी रही
आकाश की ओर शून्य में घूरती हुई -- मुस्कान तैर रही थी मुख पर
और मै धीरे धीरे बढ़ रही थी दूर चमकती हुई एक लौ की ओर
बिना यह सोचे क्या होगा दिए की लौ झुलसा भी सकती है
परंतु बढती जा रही थी बरसों से बंधी वर्जनाओं की डोर झटकती
सारी सीमाओं तोड़ती हुई लक्ष्मणरेखाओं को पैर से मिटाते हुए --
न जाने कितने अरसे बाद पूरी साँस समां रही थी सीने में वरना अब तक तो
बस घुटन ही घुटन थी --और फिर आहिस्ता आहिस्ता मंद स्मित
एक अट्टहास में बदलता गया गूंजने लगी दिशाएँ
बरसों से देह में लिपटी मृत रिश्तों की चिराइंध
बदलने लगी मलय की शीतल सुगंध में -
लक्ष्मणरेखा अब भी है परंतु स्वयं की बनाई हुई
अब इसे मेरी अनुमति के बिना नहीं पार सकता कोई

प्यार ने स्वीकार कर ली कांच की दीवार ! -प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

तय न हो पाया की चुम्बन, वासना या प्यार !
प्यार ने स्वीकार कर ली कांच की दीवार !

आह से धूमिल न होगा पारदर्शी रूप,
मेघमाला से ढलेगी इन्द्रधनुषी धूप,
तृप्ति के सर पर लटकती दूधिया तलवार !
प्यार ने स्वीकार कर ली कांच की दीवार !

होंठ पर हैं होंठ, करतल : करतालों के पास,
भित्ति-चित्रों में मुखर है प्रीति का संत्रास,
यों-लगे, जैसे किनारे पर खड़ी मझधार !
प्यार ने स्वीकार कर ली कांच की दीवार !

जानता है कौन हम किस कन्दरा में लीन ,
गंध है बेहोश, ऐसी बज रही है बीन,
हम उतर आये अतल में, क्षीर-सागर पार !
प्यार ने स्वीकार कर ली कांच की दीवार !

Friday, April 4, 2014

अपने इन छोटे गीतों को , हवन कुंड में डाल रहा हूँ - कृष्ण मुरारी पहारिया

अपने इन छोटे गीतों को
हवन कुंड में डाल रहा हूँ
जैसे भी हो सर्जन की
अपनी पीड़ा पाल रहा हूँ

मेरा यज्ञ अनवरत चलता
भले न कोई साथ दे रहा
अग्नि नहीं यह बुझी अभी तक
कहीं न कोई हाथ दे रहा

अपने ही कर जला हवन में
मैं अब तक बेहाल रहा हूँ

भाव बने मेरे वसुधारा
छंदों की समिधा कर डाली
प्राणों की हविष्य लेकर मैं
सज़ा चुका हूँ अपनी थाली

मैं ख़ुद ही अपना जीवन हूँ
ख़ुद ही अपना काल रहा हूँ

जिसे जो चाहिए उसको वही नसीब नहीं - ओम प्रकाश नदीम

जिसे जो चाहिए उसको वही नसीब नहीं
मगर ये बात यहाँ के लिए अजीब नहीं

हवाएँ आग बुझाने की बात करने लगीं
कहीं चुनाव का माहौल तो क़रीब नहीं


ज़मीन-ए-ज़र से ही इफ़लास जन्म लेता है
जहाँ अमीर नहीं हैं वहाँ ग़रीब नहीं

कोई बताये कि आख़िर मरीज़ जाएँ कहाँ
कहीं दवाएँ नहीं हैं कहीं तबीब नहीं

हमें भी अपने लिए मार्केट बनाना है
दुकानदार हैं हम सब कोई अदीब नहीं


तबीब --डॉक्टर , अदीब ---साहित्यकार