Saturday, May 31, 2014

मन तुम क्यों झाड़ो अंगरेजी - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन तुम क्यों झाड़ो अंगरेजी
अपनी हिंदी दुग्ध-धवल है
अंगरेजी रंगरेजी

दुग्ध-धवल किरणें सतरंगी
जाननहारा जाने
जिसको नहीं ज्ञान रंगों का
वह कैसे अनुमाने
जिस में वाणी सभी रंग हैं
सोई अपनी भाषा
ओंठ रंगाये बैठी है जो , वह
कोठे की परिभाषा

धीरज धरो रहो देसी ढंग
गहो न ऐसी तेजी

नेताओं की ओर न देखो
उनका ह्रदय विदेशी
जब देखो तब खोज रहे हैं
आब-हवा परदेशी
उनको तो सरकारी सुविधा
वहीँ खुले हैं खाते
हम जनता अपनी जमीन से
जीवन अपना पाते

प्राइमरी के पढ़े हुए हैं
हमें न भावे के.जी.

मन रे अब मीठा मत खाना - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन रे अब मीठा मत खाना
मीठी चीज सदा अवगुन है
पर तुमने कब माना

मीठी-मीठी बात किसी की
फ़ौरन ठग लेती है
मीठी छुरियो ने हरदम
गर्दन तेरी रेती है
मीठा विष भी होता है
कहतीं ऐसी कविताएँ
मीठेपन के इससे बढ़कर
गुन तुमसे क्या गायें

फिल्म-कथा जैसी-तैसी भी
मीठा होता गाना

वैद्य, डॉक्टर सदा विरोधी
है मीठी चीजों के
जिससे रोग पनपते देखे
ऐसे उन बीजों के
नेता, उपदेशक मीठे
वचनों की शिक्षा देते
मीठे सपने बेच जगत को
जो चाहे हर लेते

मधुमेही का रोग उसे
अक्सर रहता अनजाना

Friday, May 30, 2014

हमें इस पेड़ से उतर के चल देना है - वीरू सोनकर


बदायूं के एक गाँव में दो नावालिग़ बालिकाओं को अगवा कर गैंग रेप कर हत्या करने के बाद पेड़ पर टांग दिया गया ! यह घटना  बेहद शर्मनाक तो है ही शासक के ताज़ पर एक बदनुमा दाग भी है एक युवा रचनाकार द्वारा रचित एक रचना को दे रहे हैं !
हमें
इस पेड़ से उतर के चल देना है
अपनी लटकी हुई आँखों के साथ,
उलटे पंजो पर चल कर
चुप-चाप
अपनी अपनी रस्सी को
अपने हांथो में लेकर,

वहाँ.......
जहाँ हम पढ़ते थे
जहाँ हम खेलते थे
जहाँ हम एक दुसरे की चोटियां  पकड़ कर लड़ते थे,
हमको अपने आंगन के पेड़ के आमो में
अपना हिस्सा भी लेना है,
अपने गुड्डा गुड़िया का बटवारा भी करना है,
हमको
अभी चल देना हैं
अपनी फांसी को झुठलाकर,
हम बहुत अहिस्ता-अहिस्ता चलेंगें
जैसे हम छुपा-छुपायी पर
एक दुसरे की नजरो में आये बिना चलती थी,
हमको
चलते-चलते
अपने स्कूल भी जाना है
और होमवर्क न पूरा करने पर
बेंच पर खड़े होने की सजा भी पानी है
बहुत से काम हैं
हमको अभी
अपनी सभी सहेलियों से भी मिलना हैं
उनकी कानाफूसियों का जवाब भी देना हैं,
वो जवाब जो
उनकी माये गोल कर गई हैं,
हम इस पेड़ की फांसी से उतर कर
बस एक बार,
उन सभी जगहों पर जाना चाहते हैं
जहाँ हम रोज़ पता नहीं कितनी बार जाते थे,
हमको अपनी सहेलियों को बताना हैं
उनके कानो में
अपने मरने का राज,
बताना ये भी है की
कल जब तुम
किसी सुनसान जगह से गुजरना तो,
हमारा हश्र याद रखना,
एक बार तो
जाना है
 इस पेड़ से नीचे उतर कर,
हम
अपनी सहेलियों को
इस पेड़ पर मरते नहीं,
इसकी छाँव में खेलते देखना चाहती हैं  ............

मैं प्रसंग वश कह बैठा हूँ तुम से अपनी रामकहानी ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं प्रसंग वश कह बैठा हूँ तुम से अपनी रामकहानी !

मेरे मन-भावन मंदिर में बैठी हैं खण्डित प्रतिमाएं,
विधिवत् आराधन जारी है, हँसी उड़ाती दसों दिशाएं;
मूक वेदना के चरणों में, मुखर वेदना नत-मस्तक है,
जितनी हैं असमर्थ मूर्तियाँ, उतना ही समर्थ साधक है;
एक ओर ज़िन्दगी कामना, एक ओर निष्काम कहानी !

बिखर गयी ज़िन्दगी कि जैसे बिखर गयी रत्नों की माला,
कोहनूर कोई ले भागा, तन का उजला मन का काला;
हरा मेरा सत्य, कि जैसे सपना भी न किसी का हारे,
सांसों-वाले तार चढ़ गये, जो वीणा के तार उतारे;
ख़ास बात ही बन पाती है, दुनिया की आम-कहानी !

एक ज्वार ने मेरे सागर को शबनम में ढाल दिया है,
कहने को उपकार किया है, करने को अपकार किया है ;
प्रखर ज्योति ने आँज दिया है आँखों में भरपूर अँधेरा,
मैं इस तरह हुआ जन-जन का, कोई भी रह गया न मेरा;
कामयाब है जितनी, उतनी ही ज़्यादा नाकाम कहानी !

निर्वसना प्रेरणा कुन्तलों बीच छिपाये चन्द्रानन है,
आंसू ही पहचान सकेगा, लहरें गिन पाया सावन है;
मेरा यह सौभाग्य, कि मुझ को हर अभाव धनवान मिला है,
पीड़ा को बाहर-जैसा ही, घर में भी सम्मान मिला है;
नाम-कमाने की सीमा तक, हो-बैठी बदनाम कहानी !


इस मन का क्या है रोता भी हँसता भी - कृष्ण मुरारी पहारिया

इस मन का क्या है रोता भी हँसता भी
फिर जानबूझ कर काँटों में फंसता भी

यह रंग देख कर सदा दौड़ पड़ता है
है जिधर बाड़ बस उसी ओर बढ़ता है

अच्छी - खासी पगडंडी नहीं पकड़ता
फिर दोष चुभन का औरों पर मढ़ता है

जिद करके खाई-खंदक में धँसता भी

यह खुली हवा में साँस भले लेता हो
छोटा-मोटा सपना भीतर सेता हो
मृगतृष्णा से पर बचा नहीं रह पाता
जल वहां खोजता बिछी जहाँ रेता हो

इस तरह भ्रमों में खुद को यह कसता भी
 

मन भी बज्जुर मूरख ठहरा - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन भी बज्जुर मूरख ठहरा
मेरी कोई बात न सुनता
बनता इतना बहरा

कविता लिख-पढ़ हुआ घमंडी
इसको भी यह छोड़े
जीवन तो इतना व्यापक है
नयी जमीनें तोड़े
या फिर अपनी उमर देख कर
गहे मौन का आँचल
साफ करे अपने भीतर का
जनम-जनम का काज़ल

जिस नदिया को देख हंस रहा
उसका जल है गहरा

सड़क-सड़क चलता तो पुल थे
पार उतर ही जाता
चाट अमरता की पड़ने पर
टूटा सबसे नाता
चाहे जितना भी समझाओ
उलटे ही चलता है
मुझको इसका चाल-चलन यह
सचमुच अब खलता है

इसकी गतिविधियाँ लगती ज्यों
मरे सांप का लहरा

Tuesday, May 27, 2014

जो हममें तुममें हुई मुहब्बत.. - आलोक श्रीवास्तव

जो हममें तुममें हुई मुहब्बत..
तो देखो कैसा हुआ उजाला

वो खुशबूओं ने चमन संभाला
वो मस्जिदों में खिला तबस्सुम
वो मुस्कराया है फिर शिवाला

जो हममें तुममें हुई मुहब्बत..

तो लब गुलाबों के फिर से महके
नगर शबाबों के फिर से महके
किसी ने रक्खा है फूल फिर से
वरक़ किताबों के फिर से महके
जो हममें तुममें हुई मुहब्बत..

मुहब्बतों की दुकां नहीं है
वतन नहीं है, मकां नहीं है
क़दम का मीलों निशां नहीं है
मगर बता ये कहां नहीं हैं
कहीं पे गीता क़ुरान है ये

कहीं पे पूजा अज़ान है ये
सदाक़तों की ज़ुबान है ये
खुला-खुला आसमान है ये
तरक़्क़ियों का समाज जागा

के' बालियों में अनाज जागा
क़बूल होने लगी हैं मन्नत
धरा को तकने लगी हैं जन्नत
जो हममें तुममें हुई मुहब्बत..
जो हममें तुममें हुई मुहब्बत..

Monday, May 26, 2014

फिर रात ने रस्ता बदला है - आलोक श्रीवास्तव

फिर रात ने रस्ता बदला है
फिर सुब्ह की चादर फैली है


फिर फूल खिले अरमानों के
फिर आस की खुश़बू महकी है



फिर अमन फ़िजा में गूंजा है
फिर गीत छिड़े उम्मीदों के

फिर सांस मिली कुछ ख़्वाबों को
फिर साज़ बजे तदबीरों के

ये किसने दुआएं बांधीं और
बंधन खोले ज़ंजीरों के

अधर पर क्यों सरल सुस्मित नहीं है - डॉ. रेनू चंद्रा

अधर पर क्यों सरल सुस्मित नहीं है
कोई इस बात पर चिंतित नहीं है

धरा ये रक्तरंजित हो चली , पर
कोई ठिठका , कोई विस्मित नहीं है

बढ़ी जाती अँधेरे की सघनता
उजाले का कहीं इंगित नहीं है

दुखद परिवर्तनों की सूचना भी
किसी अभिलेख में अंकित नहीं है

ये कैसा राज्य है , सहमी है जनता
अराजक तत्व आतंकित नहीं है

Sunday, May 25, 2014

मन तुम क्यों छिपकर रोते हो - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन तुम क्यों छिपकर रोते हो
क्यों अपने ये ओंठ सी लिये
क्यों जीवन खोते हो

जो कुछ चला गया जाने दो
करो न उसकी चिंता
कुछ तो है अस्तित्व तुम्हारा
बित्ता या दो बित्ता
उतना ही लेकर जी डालो
शेष उमर कुछ करते
इसी तरह तुम खालीपन को
रहो गीत से भरते

क्यों तुम अपनी ही राहों पर
खुद कांटे बोते हो

जिनसे तुमने नाता जोड़ा
उनके भी थे नाते
इसीलिए अपनी गलती का
तुम यह फल थे पाते
अब अपनी तुम दिशा बदल लो
अपने अन्दर जाओ
और वहीँ से तुम रागों की
फिर बांसुरी बजाओ

उस अमराई में भी रह लो
जिसके तुम तोते हो

मन तुम यों न सभी से झगड़ो - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन तुम यों न सभी से झगड़ो
जिनमे हो घमंड , तेहा , छल
उन्हें ठीक से रगड़ो

जिनके स्वर में भरी दीनता
उनसे झुककर बोलो
जिनके स्वर में तीखापन हो
उन्हें वहीँ पर तोलो
आगा-पीछा बहुत न सोचो
यह संसार पराया
हानि-लाभ की करो न चिंता
अमर नहीं है काया

फूँक-फूँक कर पाँव धरो क्यों
क्यों स्वाभाव को जकड़ो

जितना ही भय खाया तुमने
उतना ही मरना है
हँसना या रोना समान है
उमर पार करना है
भला यहाँ से क्या ले जाना
छोड़ यहाँ क्या जाना
खाली हाथ यहाँ आये थे
खाली हाथ पराना

जितना जीना जिओ बेधडक
नहीं दबो या आकड़ो

Saturday, May 24, 2014

नहीं !! अभी उठना नहीं हैं, क्युकी ख्वाब में - वीरू सोनकर

नहीं !!
अभी उठना नहीं हैं, क्यु कि ख्वाब में
एक काल्पनिक कहानी चल रही है,
वो कहानी /जो नहीं बन पाई /बीच में ही / मेरे आ जाने से,
देखना है.....अभी कहानी के किरदारों को बदल के,

मैं सोचता हूँ हम फिर से मिले,

वहीँ कॉलेज केंटीन के उसी काउंटर पर,
और
इस बार मैं तुम्हे छुट्टे पैसे नहीं दूंगा
ये काम किसी और को करने दूंगा
और देखूंगा !!
की वो
तुम्हारे मिलने से अपनी कहानी कैसे आगे बढाता हैं,
देखूंगा की मैं जहाँ जहाँ टुटा था
वो भी टूटता हैं क्या
नहीं नहीं....
मैंने उसे बिलकुल नहीं बताऊंगा की तुम्हे क्या क्या पसंद हैं,
देखना हैं....
तुम्हारे नाराज होने पर क्या वो मेरे जैसा ही मनायेगा
या फिर
मुझसे अलग कोई रास्ता अपनाएगा ?
या फिर
वो तुमको छोड़ जायेगा
तुम्हारे छोड़ने की पहल करने से पहले......!!

देखना ये भी हैं
जब मूवी हॉल में
तुम्हारे कंधो के पीछे से
मैंने
अपना हाथ सरकाया था
तब तुमने मुझे नहीं रोका था,
उसको भी नहीं रोकोगी क्या ?
तुममे छिपा / तुमसे अलग कुछ तलाशना / बहुत जरुरी हैं मेरे लिए,

सुनो
मेरी प्रेम कहानी के किरदार बदलने से
क्या उसकी तरन्नुम बदलेगी !!
अलग होने के बाद
मेरे भीतर उगा रेगिस्तानी कैक्टस जैसा कुछ उसमे भी उगता हैं क्या ?
अगर उगता हैं तो कितनी देर तक जीता हैं
शायद मुझे खुद में उगे
उस बेशर्म कटीले कैक्टस के मरने की उम्र पता चल जाये
अभी देखना हैं..............................

एक काल्पनिक कहानी चल रही हैं,
वो कहानी /जो नहीं बन पाई /बीच में ही / मेरे आ जाने से,
देखना हैं.....अभी कहानी के किरदारों को बदल के,

मैं सोचता हूँ हम फिर से मिले,

वहीँ कॉलेज कंटीन के उसी काउंटर पर,
और
इस बार मैं तुम्हे छुट्टे पैसे नहीं दूंगा
ये काम किसी और को करने दूंगा
और देखूंगा !!
की वो
तुम्हारे मिलने से अपनी कहानी कैसे आगे बढाता हैं,
देखूंगा की मैं जहाँ जहाँ टुटा था
वो भी टूटता हैं क्या
नहीं नहीं....
मैंने उसे बिलकुल नहीं बताऊंगा की तुम्हे क्या क्या पसंद हैं,
देखना हैं....
तुम्हारे नाराज होने पर क्या वो मेरे जैसा ही मनायेगा
या फिर
मुझसे अलग कोई रास्ता अपनाएगा ?
या फिर
वो तुमको छोड़ जायेगा
तुम्हारे छोड़ने की पहल करने से पहले......!!

देखना ये भी हैं
जब मूवी हॉल में
तुम्हारे कंधो के पीछे से
मैंने
अपना हाथ सरकाया था
तब तुमने मुझे नहीं रोका था,
उसको भी नहीं रोकोगी क्या ?
तुममे छिपा / तुमसे अलग कुछ तलाशना / बहुत जरुरी हैं मेरे लिए,

सुनो
मेरी प्रेम कहानी के किरदार बदलने से
क्या उसकी तरन्नुम बदलेगी !!
अलग होने के बाद
मेरे भीतर उगा रेगिस्तानी कैक्टस जैसा कुछ उसमे भी उगता हैं क्या ?
अगर उगता हैं तो कितनी देर तक जीता हैं
शायद मुझे खुद में उगे
उस बेशर्म कटीले कैक्टस के मरने की उम्र पता चल जाये
अभी देखना हैं..............................

Thursday, May 22, 2014

मुझको तेरी तलाश है , आवाज़ दे मुझे ! तू मेरे बहुत पास है , आवाज़ दे मुझे !! - प्रोफे. राम स्वरुप सिन्दूर

मुझको तेरी तलाश है , आवाज़ दे मुझे !
तू मेरे बहुत पास है , आवाज़ दे मुझे !!

मैं आइने में ख़ुद को जो देखूँ तो तू दिखे ,
क्या ख़ूब इल्तिबास है , आवाज़ दे मुझे !

ऐसा लगे कि तू भी है मेरी तलाश में ,
एहसास तो एहसास है , आवाज़ दे मुझे !

हर सम्त बेपनाह शोरोशर है क्या हुआ ,
आवाज़ मेरी खाश है , आवाज़ दे मुझे !

कहते हैं लोग है ही नहीं तू वजूद में ,
तू है तो नाशनास है , आवाज़ दे मुझे !

मैं गुम हुआ हूँ संगतराशों की भीड़ में ,
कोई जो बुततराश है , आवाज़ दे मुझे !

मुझको तो रास आ गई मेरी उदासियाँ ,
गर तू बहुत उदास है , आवाज़ दे मुझे !

उस वक़्त अंधेरों में खो गई थी हर सदा ,
ये लम्हा ज़ियापाश है , आवाज़ दे मुझे !

हर हाल में 'सिन्दूर' को इंसाफ दे सके ,
वो कौन-सा इज्लास है , आवाज़ दे मुझे !

Tuesday, May 20, 2014

भीतर क्यों तूफ़ान उठा है ! बाहर कुछ तो नहीं हुआ है !! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

भीतर क्यों तूफ़ान उठा है !
बाहर कुछ तो नहीं हुआ है !!

कमरे का दरपन क्या देखूं ,
मेरा क़द ही बहुत बड़ा है !

दरपन सच देखते-दिखाते ,
अंधा होने-को आया है !

मार वक़्त की पड़ती है तो ,
तिनका भी न साथ देता है !

मैं भी धोखा , तू भी धोखा ,
आख़िर सच दुनिया में क्या है !

शेष रह गयीं कितनी साँसे ,
सर्वज्ञों को भी न पता है !

तुझे ढूढ़ कर हार गया मैं ,
तू मुझ में सिर-तक डूबा है !

आत्म-कथा 'सिन्दूर' लिखे क्यों ,
ग़ज़लों में क्या नहीं कहा है !

Monday, May 19, 2014

मैं प्यासा भृंग जनम-भर का ! - गोपाल सिंह 'नेपाली'

मैं प्यासा भृंग जनम-भर का !
फिर मेरी प्यास बुझाये क्या
दुनिया का प्यार रसम भर का !

चंदा का प्यार चकोरों तक ,
तारों का लोचन-कोरों तक ,
पावस की प्रीत क्षणिक-सीमित
बादल से ले-कर भँवरों तक ,
मधु-ऋतू पर ह्रदय लुटाऊं तो
कलियों का प्यार कसम भर का !

महफ़िल में नज़रों की चोरी ,
पनघट का ढंग सीनाज़ोरो ,
गलियों में शीश झुकाऊँ तो ,
यह , दो घूटों की कमज़ोरी,
ठुमरी ठुमके या ग़ज़ल छिडे
कोठे का प्यार रक़म भर का !

ज़ाहिर में प्रीति भटकती है ,
परदे की खटकती है ,
नयनों में रूप बसाओ तो
नियमों की बात अटकती है ,
नियमों का आँचल पकडूँ तो
घूँघट का प्यार शरम भर का !

जीवन से आदर्श बड़ा ,
पर दुनिया में अपकर्ष बड़ा ,
दो दिन जीने के लिये यहाँ
करना पड़ता संघर्ष बड़ा ,
सन्यासी बन कर विचरूं तो
संतों का प्यार चिलम भर का !

Sunday, May 18, 2014

हद से गुज़री बेकरारी को क़रार आने लगा ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

हद से गुज़री बेकरारी को क़रार आने लगा !
एक अरसे बाद , मैं ताज़ा ग़ज़ल गाने लगा !

जिसके दिल में मेरे दिल की धड़कनों का वास है ,
मेरी आहट सुन-के वो कोपल-सा थर्राने लगा !

वक़्त ने यों-तो उतारे तार मेरी साँस के ,
बेसुरा गा-कर भी मैं , ख़ुद को बहलाने लगा !

प्यार का सैलाब मुझको घाटियों में ले गया ,
एक झरने की तरह दिल मेरा लहराने लगा !

मैं तो उस बहके हुये को राह पर ला कर रहा ,
छल-कपट से वो ही मुझको यार ! बहकाने लगा !

इन दिनों मेरा अज़ब-सा हाल हो कर रह गया ,
दुश्मनों का हाल सुन कर अश्क भर लाने लगा !

तू जहाँ पर है वहां मैं आ ही जाऊंगा कभी ,
मैं अभी से ही तेरा 'सिन्दूर' कहलाने लगा !

उनसे मिले तो उनई सी कहन लगे - कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

उनसे मिले तो उनई सी कहन लगे,
हमसे मिले सो हमई सी कहन लगे,
जो तो उनको चरित्तर बन गओ,
जिनसे मिले सो उनई सी कहन लगे.

लकदक सफ़ेद कुरता टांग के,
पनहियाँ पैरन में बाँध के,
निकर परे गाँव-शहर की गेल में,
चुनाव के आसार से लगन लगे.

अमीर, गरीब को भेद नईं कर रये,
अपएं मुंह पे मुस्कान लहे फिर रये,
होयें बूढ़े, जुआन चाहें लोग, लुगाई
सबईं के चरण छुअन लगे.

जीते फिर उनकी शकल न दिखानी,
भूल गए बे सबईं बातें पुरानी,
नोंच-नोंच मांस खान लगे पिरजा को,
हाय दईया बिना मौत सब मरन लगे.

ऊंचे ऊंचे दरबारों से क्या लेना - "राहत इंदौरी "

ऊंचे ऊंचे दरबारों से क्या लेना
बेचारे हैं बेचारों से क्या लेना

जो मांगेंगे तूफानों से मांगेंगे
काग़ज़ की इन पतवारों से क्या लेना

ख्वाबों वाली कोई चीज़ नहीं मिलती
सोच रहा हूँ बाज़ारों से क्या लेना 


चारागरी(चिकित्सक) का दावा करते फिरते हैं
बस्ती के इन बीमारों से क्या लेना 


साथ हमारे कई सुनहरी सदियाँ हैं
हमें सनीचर इतवारों से क्या लेना

Friday, May 16, 2014

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती - हरिबंश राय बच्चन

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।


मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।


आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।


डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।

मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।

जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।

कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

समय की शिला पर मधुर चित्र कितने - शम्भु नाथ सिंह

समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसी ने बनाये , किसी ने मिटाये !

किसी ने लिखी आंसुओं से कहानी ,
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूंद पानी ,
इसी में गये बीत दिन ज़िन्दगी के
गयी घुल जवानी , गयी मिट निशानी
विकल सिन्धु से साथ के मेघ कितने
धरा ने उठाये , गगन ने गिराये !

शलभ ने शलभ को सदा ध्येय माना
किसी को लगा यह मरण का बहाना ,
शलभ जल न पाया , शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना ?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाये , विरह ने बुझाये !

भटकती हुई राह में वंचना की ,
रुकी शांत हो जब लहर चेतना की ,
तिमिर-आवरण ज्योति का वर बना जब
कि टूटी तभी श्रंखला साधना की ,
नयन-प्राण में रूप के स्वप्न कितने
निशा ने सुलाये , उषा ने जगाये !

सुरभि की अनिल-पंख पर मौन भाषा ,
उड़ी वंदना की जगी सुप्त आशा ,
तुहिन-बिंदु बन कर , बिखर पर गये  स्वर
नहीं बुझ सकी , अर्चना की पिपासा ,
किसी के चरण पर वरन फूल कितने
लता ने चढ़ाये , लहर ने बहाये !


Thursday, May 15, 2014

आओ लौट चलें अब ख़त्म हो गया दिल का मेला ! - रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

आओ लौट चलें
अब ख़त्म हो गया दिल का मेला !

शेष बचा है केवल जाने-वालों का कोलाहल ,
उगती पीताभा की किरणों का सूनापन अविरल ,
उखड़ चुकी शिवरों की पाँतें , बढ़ी सभी दुकानें
घिरे-घिरे-से स्तब्ध रुलायीके मटियारे बादल ,
चला जा रहा भीत प्रभासी
पश्चिम पवन अकेला !

विगत हुई कल-कंठों के मधुरिम गीतों की सिहरन ,
यूथ-नृत्य क्रीड़ा का चंचल उल्लासी पागलपन ,
ढूढ़ रहे तुम जिज्ञासातुर क्या अब अंत समय में
ध्वनित हो रहा दिगदिगंत में जब केवल उजड़ापन ,
दो धारों में बंधी रेत-सी
यह अवसादी वेला !

अरे ! कहाँ तुम चले गये हो उखड़े ख़ेमे-वालो ,
हम चलते हैं साथ तुम्हारे , ठहरो ! हमें मिला लो ,
सिमटी-ठिठुरी हाट-बाट का होना है जो होगा
रोके रहना नाव , रुको ओ सभी लौटने-वालो !
सदानीर कर्मों की सरिता में
किस की-अवहेलना ?

यह मधुर मधुवंत वेला मन नहीं अब है अकेला , - वीरेन्द्र मिश्र

यह मधुर मधुवंत वेला
मन नहीं अब है अकेला ,
स्वप्न का संगीत ,
कंगन की तरह खनका !

साँझ रंगारंग है यें ,
मुस्कराता अंग है ये ,
बिन बुलाये आ गया
मेहमान यौवन का !

प्यार कहता है डगर में ,
बह नहीं जाना लहर में ,
रूप कहता झूम जा ,
त्यौहार है तन का !

घट छलक कर डोलता है ,
प्यास के पट खोलता है ,
टूट कर बन जय निर्झर ,
प्राण पहन का !

टूटे आस्तीन के बटन , या कुर्ते की खुले सियन , - उमाकांत मालवीय

टूटे आस्तीन के बटन ,
या कुर्ते की खुले सियन ,
कदम-कदम पर मौके याद तुम्हें करने के
आठ पहर
एक यही काम रहा ले-दे-के !

फूल नहीं बदले गुलदस्तों के
धूल मेज़पोश पर जमी हुई ,
जहाँ-तहां पड़ी दस किताबों पर
घनी-सी उदासियों थमी हुई ;

पोर-पोर टूटता बदन ,
कुछ कहने-सुनने का मन ,
कदम-कदम पर मौके याद  तुम्हें करने के
आठ पहर
एक यही काम रहा ले-दे-के !

अरसे से बदला रुमाल नहीं
चाभी क्या जाने रख दी  कहाँ ,
दरपन पर सिन्दूरी छींट नहीं
चीज नहीं मिलती रख दी जहाँ ;

चौके की धुआंती घुटन ,
सुग्गे की सुमिरिनी रटन ,
कदम-कदम पर मौके याद तुम्हें करने के
आठ पहर
एक यही काम रहा ले-दे-के !




Tuesday, May 13, 2014

मन तुम घर से बाहर निकलो - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन तुम घर से बाहर निकलो
अरे कभी तो किसी नज़र के
कोमल भावों बिक लो

ऐसे बने घमंडी बैठे
जैसे महापुरुष हो
या फिर स्रष्टा चित्रकार के
कर में गहे बुरुश हो
तुम ही इसे चलाते
सारे भगत जगत के , केवल
कीर्ति तुम्हारी गाते

अरे कभी तो रूप-धूप की
किरणों में भी सिक लो

लच्छन ठीक तुम्हारे ऐसे
जैसे मिली महंती
या फिर हुये छोड़ कर सब कुछ
पूरे कबिरापंथी
सूरत-शक्ल बनाये जैसे चढ़ी हुई मनहूसी
दाना-पानी छूट गया हो
सिर्फ खा रहे भूसी


अरे कभी दुनियादारी की
लहरों पर भी फिक लो

वह नहीं , कि मैं जो बाहर हूँ , वह नहीं , कि मैं जो भीतर हूँ , - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

वह नहीं , कि मैं जो बाहर हूँ ,
वह नहीं , कि मैं जो भीतर हूँ ,
फिर क्या हूँ मैं , इस का कोई संज्ञान नहीं !
कल्पना नहीं , अनुमान नहीं !

शून्य में एक अनुगुन्जन-सा रहता हूँ मैं ,
सूरज में मानसरोवर-सा बहता हूँ मैं ;
अक्षत यौवन , मन्वन्तर हूँ ;
संसृति में मुझ-जैसा कोई गतिमान नहीं !
मेरा , कोई प्रतिमान नहीं !

सरसिज में बंदी , एक स्वप्न जीता हूँ मैं ,
अश्रु से उतारी-गयी सुरा पीता हूँ मैं ;
मैं एक लहर का , सागर हूँ ,
शिखरों पर घाटी का स्वर हूँ ;
मुझ पर चल पाता विधि का एक विधान नहीं !
मैं , मात्र एक म्रियमाण नहीं !

भोग से , योग में गए मिलन का क्षण हूँ मैं,
मधु से , माधव हो गए सृजन का क्षण हूँ मैं ;
मैं क्षर से जन्मा , अक्षर हूँ ,
कल्पान्त-मुक्त कालान्तर हूँ ;
मेरे पथ में , इति का कोई व्यवधान नहीं !
मैं , जीवन हूँ , निर्वाण नहीं !

Monday, May 12, 2014

मीठी है बूँदेंली माटी मिसरी जैसी घाटी ! - विनोद मिश्र 'सुरमणि'

1.
मीठी है बूँदेंली माटी
 मिसरी जैसी घाटी !
 चंदन घिस कवि बन गये तूलसी
 अबधी संग में बाटी !
 मीठो सीठो स्वाद बो जानो
 जीने जाये चाटी !
 कात 'विनोद' बचालो जाये
 पुरखन की परिपाटी !
2.
जल रऔ दिया पौर में जब तक बनो उजेरौ तब तक.
जा की जा लौ सें उजियारये अटा अटारी अब तक. 
तपौ दिया घर की माटी सें पक नइं गऔ है तब तक. कुल कौ दिया उजेलौ जासें 'विनोद' बनो रै कब तक..

सोचता हूँ कवि हो कर क्या फर्क हैं मुझमे और तुममे - वीरू सोनकर

सोचता हूँ
कवि हो कर
क्या फर्क हैं मुझमे और तुममे
तुम चौराहे पर
पान वाले के चबूतरे पर
हर आती जाती
छोटी स्कर्ट की लड़की में
नव विवाहिता की खिली हंसी में
खुद की अतृप्त पिपसाओ की तुष्टि पाते हो,
सुनो
उनको देख कर
यही तृप्ति मैं भी पाता हूँ
पर मैं कवि हूँ
एक बौद्धिकता भरी हँसी का चोला ओढ़े हुए,
मैं भी उन सुंदरियों की आँखों में
अपनी आँख
जबरन मिला कर
पिछली रात का मजा पाना चाहता हूँ
ये कोमल होंठ
सित्कारों पर कैसे लगे होंगे
सोचता हूँ
पर कवि हूँ
तो मैं तुम सा
फूहड़ इशारा नहीं करता
मैं ये काम अपनी आँखों से करता हूँ,
अपनी कविताओ को
खूब पढाना चाहता हूँ
उन शर्माई सकुचाई लडकियों औरतो को,
ताकि वो जान ले
मैं भी मर्द हूँ
एक कवि होकर भी,
मुझमे भी उनकी उतनी ही चाह हैं
जितनी उस पान वाले के चबूतरे की भीड़ में खड़े छिपे उस मजनूँ में हैं,
पर वो कवि नहीं हैं, मैं हूँ
वो बाहर से फूहड़ हैं
मैं अन्दर से हूँ
बिलकुल उसके जैसा
अतृप्त, प्यासा
अवसर मिलते ही खा जाने को तत्पर,
मैं एक शांत
उच्च कोटि का मशहूर कवि हूँ
तुम नहीं हो....फूहड़ कहीं के

फक़ीर सामने बैठा गुरूर टूट गया, - प्रमोद तिवारी

फक़ीर सामने बैठा गुरूर टूट गया,
जो चूर-चूर था वो भी हुज़ूर टूट गया।

अदब से हमने ज़रा उनसे बात क्या कर ली,
अदब नवाज़ का सारा शऊर टूट गया।

बड़ा गुरूर था अपने हुनर पर दोनों को,
गिरा फिर टूटकर बादल तो तूर टूट गया।

तमाम रास्ता तन्हाँ ही तय हुआ आखिर,
चला जो साथ मेरे थोड़ी दूर टूट गया।

सुबूत के लिए मौके पे रहा सन्नाटा,
हुई गवाहियाँ तो बेकसूर टूट गया।

तरस के रह गये फिर एक झलक भी न मिली,
गिरा जो आइना तो सारा नूर टूट गया।

निकल के मैकदे से उसकी ओर क्या देखा,
नश्शा उतर गया सारा सरूर टूट गया।

Sunday, May 11, 2014

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है - मुनव्वर राना


जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है ।


ये ऐसा कर्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सजदे में रहती है


मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ


मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना


कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे
माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी ।

धूप हुई तो आंचल बन कर कोने-कोने छाई अम्मा, - आलोक श्रीवास्तव

धूप हुई तो आंचल बन कर कोने-कोने छाई अम्मा,
सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन तनहाई अम्मा.

सारे रिश्ते- जेठ दोपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे,
झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा.

उसने ख़ुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है,
धरती, अंबर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा.

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे,
चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा.

बाबूजी गुज़रे आपस मैं सब चीज़ें तक़्सीम हुईं, तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा.

Saturday, May 10, 2014

मैं ढूंढता हूं जिसे वह जहां नहीं मिलता - कैफ़ी आज़मी

पुण्यतिथि / कैफ़ी आज़मी (10 मई)
जो दिल की राह से गुज़री है वो बहार हो तुम !
बीसवी सदी के महानतम शायरों में एक कैफ़ी आज़मी को आधुनिक उर्दू शायरी का बादशाह कहा गया है। वे अपने आप में एक  व्यक्ति न होकर एक पूरा युग थे जिनकी रचनाओं में उनका समय अपनी तमाम खूबसूरती और कुरूपताओं के साथ बोलता नज़र आता है। । एक तरफ उन्होंने आम आदमी के दुख-दर्द और संघर्षों को शब्दों में जीवंत किया तो दूसरी तरफ सौंदर्य और प्रेम की नाज़ुक संवेदनाओं को ऐसी बारीक अभिव्यक्ति दी कि पढ़ने-सुनने वालों के मुंह से बरबस आह निकल जाती है। उनकी ग़ज़लों और नज़्मों के कुछ चर्चित संकलन हैं - झंकार, आख़िरे शब, सरमाया, आवारा सज़दे, कैफ़ियत, और नई गुलिस्तां। कैफ़ी साहब साहिर लुधियानवी और शकील बदायूनी की तरह उन गिनेचुने शायरों में थे जिन्हें अदब के साथ फिल्मों में भी अपार सफलता और शोहरत मिली। उनके लिखे सैकड़ों गीत हमारी फिल्म धरोहर का अनमोल हिस्सा हैं। जिन फिल्मों में उन्होंने गीत लिखे उनमें प्रमुख हैं - शमा, गरम हवा, शोला और शबनम, कागज़ के फूल, आख़िरी ख़त, हकीकत, रज़िया सुल्तान, नौनिहाल, सात हिंदुस्तानी, अनुपमा, कोहरा, हिंदुस्तान की क़सम, पाक़ीज़ा, उसकी कहानी, सत्यकाम, हीर रांझा, हंसते ज़ख्म, अनोखी रात, फ़रार, बावर्ची, अर्थ, फिर तेरी कहानी याद आई आदि। उन्होंने फिल्म हीर रांझा, गरम हवा और मंथन के लिए संवाद भी लिखे थे। इस विलक्षण शायर और गीतकार की पुण्यतिथि पर हमारी हार्दिक श्रधांजलि, उनकी लिखी एक ग़ज़ल के साथ !


मैं ढूंढता हूं जिसे वह जहां नहीं मिलता
नयी ज़मीन नया आसमां नहीं मिलता

वो तेग मिल गई जिससे हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशां नहीं मिलता

वह मेरा गांव है, वो मेरे गांव के चूल्हे
कि जिनमें शोले तो शोले धुआं नहीं मिलता

जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों
यहां तो कोई मेरा हमज़बां नहीं मिलता

खड़ा हूं कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहां नहीं मिलता

सुकुमार चाँदनी रही झूल उन्मत्त चाँद की बाँहों में ! - जगदीश गुप्त

सुकुमार चाँदनी रही झूल उन्मत्त चाँद की बाँहों में !

उर पर लहरे काले कुंतल ,
ज्यों उमड़ चली यमुना की लहरें
लो डूब गये दो ताजमहल ,
पुलकित सपनों की चहल-पहल ,

किरणें भोलापन गयीं भूल , ताम-सघन कुञ्ज की छांहों में !

अधरों पर जूही उठी विहँस ,
आकाश-कुमुदनी की पाँखुरियाँ
अंग-अंग पर गयीं बरस ,
मन हरसिंगार-सा उठा विकस ,

खिल उठे स्पर्श के विपुल फूल , रस-स्निग्ध प्रणय की राहों में !

नत पलकों में अधमुंदे भँवर ,
ज्यों खोल रहे धीरे-धीरे -
घन वरुनिजाल में उलझे पर ,
सांसें सुनती सांसों के स्वर ,

खिंच गया लाज का श्लथ दुकूल , अनगिन अनबोली चाहों में !

गीत जिस में आ रही दुर्गन्ध कुछ-कुछ याचना की - रामावतार त्यागी

गीत जिस में आ रही दुर्गन्ध कुछ-कुछ याचना की
लिख गया होगा कभी यह स्वर मगर मेरा नहीं है !

प्यार , आंसू, मन, सृजन को छोड़ कर मैं
जो झुका तो देवता के ही चरण में ,
मैं कलंकित क्यों कि मैं यह कह न पाया
जी रहा हूँ मैं तुम्हारी ही शरण में

चटखनी ख़ुद ही खरीदी और ताले भी नये हैं
रह रहा हूँ कुछ समय से घर मगर मेरा नहीं है -

आप शायर या सुकवि जितने बड़े हों
गा रहें हैं आप लेकिन दर्द मेरा ,
एक सपना , लाश मैं जिसकी उठाये घूमता हूँ
काश मिल जाता किसी मन में बसेरा ,

जो तुम्हारे पाँव पर लेटा हुआ-सा दिख रहा हूँ
गो-कि मिलता तो बहुत है सर मगर मेरा नहीं है -

गीत मेरा शौक या पेशा नहीं है
गीत से मैं आदमी को खोजता हूँ ,
हर किसी की आँख की लेता तलाशी
जो विरल है उस नमी को खोजता हूँ ,

उस तुम्हारे पत्र को पढ़ कर कहीं बस रख दिया था
भूख ने जो भी दिया उत्तर मगर मेरा नहीं है !

 

Friday, May 9, 2014

सब प्रश्नों के उत्तर दूंगा , लेकिन आज नहीं ! - मुकुट बिहारी 'सरोज'

सब प्रश्नों के उत्तर दूंगा , लेकिन आज नहीं !

आज इसलिये नहीं कि तुम मन की कर लो ,
बाकी बचे न एक ख़ूब तबियत भर लो ,
आज बहुत अनुकूल ग्रहों की बेला है
चूको मत अपने अरमानों को वर लो ,
कल की सायत जो आएगी
सारी कालिख धो जायेगी
इसलिए कि अंधियारे की होती उम्रदराज़ नहीं ,

आज सत्य की गतिविधियों पर पहरे हैं ,
क्यों कि स्वार्थ के कान जन्म से बहरे हैं ,
ले-देकर अपनी बिगड़ी बनवा लो तुम
निर्णायक इन दिनों बाग़ में ठहरे हैं ,
कल ऐसी बात नहीं होगी
ऐसी बरसात नहीं होगी
इसलिए कि दुनिया में रोने का आम रिवाज़ नहीं !

प्रश्न बहुत लगते हैं लेकिन थोड़े हैं
मैंने ख़ूब हिसाब लगा कर जोड़े हैं ,
उत्तर तो कब का दे-देता शब्द मगर
अधरों के घर आना-जाना छोड़े हैं ,
कल जब ये मौन भंग होगा
तब कोई दुःख न तंग होगा
इसलिए कि तन मरता है , मरती आवाज़ नहीं !


Thursday, May 8, 2014

आधी-आधी रात प्रणय का ज्वार उठे ! - रवीन्द्र 'भ्रमर'

आधी-आधी रात
प्रणय का ज्वार उठे !
एक चंद्रमा
लहरों में सौ-बार उठे !

मौसम देता हांक अटपटी चाल की ,
अब डोरियाँ खिंची सपनों के पाल की ,
गहरे उद्वेलन में नैया डोलती
दोनों हाथों
पूजा की पतवार उठे !

वरुण देश की हवा गूंजती कान में ,
मोहन-मन्त्र फूंक जाति है प्राण में ,
रूप तरंगें राग-वलय रच जाती  है
जल-दर्पण में
प्रिय की छवि साकार हो उठे !

चुनमुन चिड़िया दूर विजन में बोलती ,
सगुनबांचती , भेद हिया का खोलती ,
क्या इस सिकता-तट पर पाहून आयेंगे
आँख फडकती ,
दिल में दूना प्यार उठे !

कहीं रतजगा मछुआरों के गाँव में
वंशी गूंज रही तारों की छांव में ,
नाच रहीं हैं छायाएं अभिसार की
लहर-लहर पर
नूपुर की झनकार उठे !

कह डाला , सब-कुछ संबोधन में ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

कह डाला , सब-कुछ संबोधन में !
जो कुछ था मन में अंतर्मन में !

बिखर गये हैं शब्द अक्षरों में ,
स्वर वापस हो गये तलघरों में ,
गिरि, तिनकों से उड़े प्रभंजन में !
कह डाला , सब-कुछ संबोधन में !

पलक-मारते जिया अतीतों को
गाया शून्य-तिरोहित गीतों को ,
यौवन , कालातीत रहा तन में !
कह डाला , सब-कुछ संबोधन में !

कुहरे ने अक्षय सामर्थ्य दिया ,
जो अरूप था उसको भी देख लिया ,
अंकित हुआ अनागत दर्पण में !
कह डाला , सब-कुछ संबोधन में !

Tuesday, May 6, 2014

हंसो कि सारा जग भर जाए , पथ को वृन्दावन कर जाए - कृष्ण मुरारी पहारिया

हंसो कि सारा जग भर जाए
पथ को वृन्दावन कर जाए

यूँ तो उमर बोझ होती है
पीड़ा की गढ़री ढोती है
किन्तु कहीं इसके भीतर भी
सपनों की नगरी सोती है

भले कभी आंसू ढर जाए
पथ को वृन्दावन कर जाए

आंसू तो सुख में भी बहते
दुःख के संग सदा जो रहते
ये हैं गहराई के संगी
दुहरी कथा सदा से कहते

भारीपन अपने घर जाए
पथ को वृन्दावन कर जाए

दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर के हो गए - कैफ़ी आज़मी

दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर के हो गए
जो सर उठा के निकले थे बे-सर के हो गए


ये शहर तो है आप का, आवाज़ किस की थी
देखा जो मुड़ के हमने तो पत्थर के हो गए

जब सर ढका तो पाँव खुले फिर ये सर खुला
टुकड़े इसी में पुरखों की चादर के हो गए

दिल में कोई सनम ही बचा, न ख़ुदा रहा
इस शहर पे ज़ुल्म भी लश्कर के हो गए

हम पे बहुत हँसे थे फ़रिश्ते सो देख लें
हम भी क़रीब गुम्बदे-बेदर के हो गए
-------
शहरे-सितमगर=प्रिय का शहर; गुम्बदे-बेदर=आसमान

Monday, May 5, 2014

कौन बसा है दिल में मेरे , ये भी भूल गया हूँ मैं ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

कौन बसा है दिल में मेरे , ये भी भूल गया हूँ मैं !
आँखों में सूरत न किसी की , किस को ढूढ़ रहा हूँ मैं !!

चार बड़ी सी दीवारों में , रहने को , रहता हूँ मैं !
ठौर-ठिकाना कोई पूछे , चुप कर रह जाता हूँ मैं !!

मंजिल मिल पाना मुश्किल था , वो ही पा ही ली मैंने ,
अब क्या है जो साँझ-सकारे , बच्चों सा रोता हूँ मैं !

सब कुछ भूल चूका था फिर भी , बाक़ी क्या-कुछ यादों में !
सोचा था , मर गया कभी का , लगता है ज़िन्दा हूँ मैं !

सोते में चलने की आदत , मुझको राहत देती है !
जाने किस को गाते-गाते , ख़ुद को गा उठता हूँ मैं !

मैं तन-मन के साथ रहा हूँ , तन-मन साथ रहे मेरे ,
अब ये छोड़ चले हैं मुझको , इन को छोड़ चला हूँ मैं !

इश्क़ कहे तू राजपुरुष है , अश्क कहे 'सिन्दूर' है तू !
दो छोरों पर फँसे तार का , बजता इकतारा हूँ मैं !



औरों के सुख-दुःख को अपना माने इस बस्ती में कब कोई व्यक्ति मिला ! - देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र'

औरों के सुख-दुःख को
अपना माने इस बस्ती में
कब कोई व्यक्ति मिला !

सब अपनी-अपनी कारा में बंदी
सब अपने-अपने गम में हैं डूबे ,
सब अपनी-अपनी सीमा के स्वामी
सब के अपने हैं अलग-अलग सूबे ,

तैनात सभी अपनी छावनियों में
सब का अपना-अपना है एक किला !

जब भी पुरवाई का झोंका आता
वन में सब तरुवर साथ झूमते हैं ,
सूर्य के चतुर्दिक अन्तरिक्ष में सब
ग्रह-उपग्रह मिल कर साथ घूमते हैं ,

व्यक्ति की प्रकृति क्यों भिन्न प्रकृति से है
क्यों उस का ही संवेदन हुआ शिला !

हीनतर प्रकृति से व्यक्ति सदा होता
फिर भी वह ख़ुद को श्रेष्ठ समझता है ,
वह मुक्तकाम हो कर भी , बंधन में
जन्म से मरण तक नित्य उलझता

व्यक्ति की अस्मिता टहनी से नाज़ुक ,
सुख-दुःख ने आ कर जिस को दिया हिला !

Sunday, May 4, 2014

गा-कर मन बहलाने दे , जो खोया , खो जाने दे ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

गा-कर मन बहलाने दे !
जो खोया , खो जाने दे !

मीठे-मीठे ताने दे !
आँखें भर-भर आने दे !

हर आंसू गंगा जल है ,
तन पवित्र हो जाने दे !

छल भी सच हो जाता है ,
समझ लिया समझाने दे !

कर तो लिया होम तूने,
हाथ जले जल जाने दे !

धोखा देने-वाले को ,
जीवन-भर पछताने दे !

जो चाहे 'सिन्दूर' बने ,
उसको ठोकर खाने दे !

अच्छे दिन आने वाले हैं - कृष्ण मुरारी पहारिया


यह रचना 24 जनवरी 97 को  लिखी गयी थी !


घर से जब मैं निकल पड़ा हूँ
मुझे कहीं तो जाना होगा
अपने थके हुए  प्राणों को
दिशा-दिशा भटकाना होगा

इतना तो विश्वास लिए हूँ
ऐसी धरती कहीं मिलेगी
सपनों की यह बेल नयन में
अवसर पाकर जहाँ खिलेगी
इसीलिए पगडंडी पकड़े
जिधर मुड़ रही , चला जा रहा
टुकड़ा एक धूप का पाने
बरस-बरस से छला जा रहा

चाहे जितना अंधकार हो
मुझे प्रभाती गाना होगा

भीतर कोई बोल रहा है
चले चलो रुकना मरना है
अच्छे दिन आने वाले हैं
और तुम्हें ही कुछ करना है
सन्नाटे में शक्ति दे रही
कहीं उठी कोई स्वर लहरी
भीतर की आवाज़ न सुनती
क्या कीजे , दुनिया है बहरी

यह सन्नाटा तोड़ मुझे ही
अब सांकल खटकाना होगा

Saturday, May 3, 2014

पेड़ से हम अलग टूटी डाल हैं ! - यश मालवीय

पेड़ से हम अलग
टूटी डाल हैं !
या-कि टूटी
पत्तियों का ताल हैं !

पात टूटे, टूटती बौछार हो मन-प्राण टूटे ,
कुछ भले हो नहीं मिटते याद के वो बेलबूटे ,
हम कि अपनी
मुक्ति का ही जाल हैं !

है सदा हक़ में हमारे मौसमों का यह बदलना ,
व्यवस्था का बादल जाना और गिर-गिर कर सँभलना
बहुत अच्छा है
कि हम बेहाल हैं !

सुनो , पीली पत्तियों की बारिशों का शोर जागे ,
शाम जागे , दोपहर जागे कि कच्ची भोर जागे ,
हम चढ़ाईहैं ,
कि हम ही ढाल हैं !


Friday, May 2, 2014

मन, तुम सबसे भले अकेले - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन, तुम सबसे भले अकेले
भीड़-भड़क्का में जाओगे
बारम्बार धकेले

सारी दुनिया  भाग रही है
रंग मंच के पीछे
दौड़ रहे रथ और सारथी
दोनों आँखें मींचे
अपना और पराया कोई
नहीं देख कर चलता
राव सभी महफ़िल तक पहुंचे
रंक रहे कर मलता

गिरे अगर तो तुम्हें कुचलते
चले जायेंगे रेले

टिटरी-टू काया ले बैठे
उखड़ी-उखड़ी साँसें
जिनको तुम समझे हो अपना
उनके मन में गाँसे
साथ तुम्हारे सिर्फ तुम्हीं हो
जी लो चाहे मर लो
अपनी ही आहों का गायन
अपने जी में भर लो

लगने दो यदि कहीं लगे हों
सुर-संगम के मेले

ए आस्माँ जब भी तेरी आँख से - वंदना गुप्ता

ए आस्माँ
जब भी तेरी आँख से
झरा अश्क
धरा ने सोख लिया
कभी तूने भी
धरा के माथे पर
धधकते लावे का
चुम्बन लिया होता
और प्रेम को मुकम्मल किया होता
इश्क के इम्तिहान देने और लेने में बडा फ़र्क हुआ करता है ………

मुझे याद है मेरी बस्ती के सब पेड़ पर्वत, हवाएं , परिंदे मेरे साथ रोते थे - निदा फ़ाज़ली

मुझे याद है
मेरी बस्ती के सब पेड़
पर्वत, हवाएं , परिंदे मेरे साथ रोते थे
मेरे ही दुःख में
दरिया किनारों पे  सर को पटकते थे
वही जुगनुओं की
चरागों की
बिल्ली की आँखों की ताबन्दगी थी
नदी मेरे अन्दर से गुजरती थी
आकाश ........................
आँखों का धोखा नहीं था
ये बात उन दिनों की है
जब इस जमीं पर
इबादत घरों की ज़रूरत  नहीं थी
मुझी में
खुदा था !