Monday, June 30, 2014

वो एक दरिचा..... - 'सोनाली' बोस

वो एक दरिचा.....
हाँ एक दरिचा ही तो है
जिसमें झाँक कभी पा लेती हूँ
झलक उस बीते बचपन की..
और खनक उस बिछड़े यौवन की|
कभी खोल उस वातायन को
मिल लेती हूँ उन भूली गलियों से
जिनमें चलना अब मुनासिब नहीं
जिन राहों को नापना अब लिखा नहीं|
उस झूलते रेशमी परदे की ओट से
मिल आती हूँ उस अल्हड़ पगली से
जिसे खिलखिलाना भाता था
और बेवजह हंसना लुभाता था|
नाता है कुछ ख़ास मेरा और उसका
कभी मैं लड़ बैठती हूँ कभी वो रूठ जाती है
लेकिन पल भर बाद फिर पक्की सहेली जैसी
सब भूल, जुट जाती हैं हम दोनों...
निभाने साथ एक दूजे का..
थाह पाने एक दूजे की गहराई की
ठौर पाने एक दूजे की सांस की|

Sunday, June 29, 2014

जाओ तुम भी ना - दिव्या शुक्ला


दिव्या शुक्ला एक सशक्त हस्ताक्षर हैं इनकी रचनाएँ मर्म स्पर्शी होती हैं ....................


जाओ तुम भी ना
-----------------------
थाम कर मेरी हथेली
न जाने किस रौ में उस शाम
अनगिनत शब्द उकेरे थे तुमने
न जाने कितनी बार
लिखा तर्जनी के पोरों से
अपना ही नाम -
मानो मेरी भाग्यरेखाओं से
खुद को बांध रहे हो --


खिलखिला कर हंस रही थी मै
गोल गोल बड़ी बड़ी आँखों से घूरा
तुमने खीझ कर मुझे -और मै ?
मै तो उस पल मौन हो गई मुस्कान दबा कर
आज न क्यूँ फिर याद आये वो पल
देर तक देखती रही अपने दोनों हाथो को
वो अक्षर ढूंढ रही थी -वो यही थे अभी तक
पसीजी हुई हथेलियों से अपना ही मुख ढांप लिया
सुनो देखो तो सारे शब्द उभर आये - मेरे चेहरे पर
अरे तुम कहाँ हो - कहाँ खो गए हो --
क्या कहीं और उकेर रहे हो यही शब्द -
उफ़ तुमसे ये उम्मीद न थी


Saturday, June 28, 2014

जब से आपा किया समर्पित, चिंता मिटी , नींद भर सोया - कृष्ण मुरारी पहारिया

जब से आपा किया समर्पित
चिंता मिटी , नींद भर सोया
कोई देखे , भले न देखे
मैंने क्या पाया , क्या खोया

अब ऐसा कुछ नहीं रह गया
जिसके पीछे पड़े झगड़ना
जब अधिकार नहीं कुछ फल पर
क्यों इससे उससे फिर लड़ना
जीवन जो संघर्ष बना था
तिरता है अब सहज नाव-सा
रोम-रोम में पुलकन दौड़ी
याद नहीं , था कहाँ घाव-सा

वे क्षण बस इतिहास रह गये
जब मैं कभी फूट कर रोया

माया के बंधन कटने पर
धरती माँ , आकाश पिता है
कोई बोध कान में कहता
वही सेज है , वही चिता है
भीतर एक जोत फूटी है
अंतर्यात्रा सुगम हो गयी
कोई किरण दृष्टी के पथ पर
शुभ सपनों की बेल बो गयी

अब हलका  हलका लगता है
बोझा जो जीवन भर ढोया है

चढ़दे सूरज ढलदे देखे बुझदे दीवे बलदे देखे - बुल्लेशाह

"चढ़दे सूरज ढलदे देखे
बुझदे दीवे बलदे देखे

हीरे दा कोइ मुल ना जाणे
खोटे सिक्के चलदे देखे

जिना दा न जग ते कोई,
ओ वी पुतर पलदे देखे।

उसदी रहमत दे नाल बंदे
पाणी उत्ते चलदे देखे!

लोकी कैंदे दाल नइ गलदी,
मैं ते पथर गलदे देखे।

जिन्हा ने कदर ना कीती रब दी,
हथ खाली ओ मलदे देखे ...

कई पैरां तो नंगे फिरदे,
सिर ते लभदे छावां,

मैनु दाता सब कुछ दित्ता,
क्यों ना शुकर मनावां!"

गुजारिश है मेरी - अनुलता राज नय्यर

गुजारिश है मेरी
खुशी से,
कि मिला कर मुझे कभी
ऐसे ही,
बिना कोई सौदा किये
बिना किसी शर्त के...
जैसे
आ बैठती है
तितली
किसी फूल पर
बस
यूँ ही .............

Friday, June 27, 2014

एक दिन बात की बात में बात बढ़ गई हमारी घरवाली हमसे ही अड़ गई - शैल चतुर्वेदी

एक दिन बात की बात में
बात बढ़ गई
हमारी घरवाली
हमसे ही अड़ गई
हमने कुछ नहीं कहा
चुपचाप सहा
कहने लगी-"आदमी हो
तो आदमी की तरह रहो
आँखे दिखाते हो
कोइ अहसान नहीं करते
जो कमाकर खिलाते हो
सभी खिलाते हैं
तुमने आदमी नहीं देखे
झूले में झूलाते हैं

देखते कहीं हो
और चलते कहीं हो
कई बार कहा
इधर-उधर मत ताको
बुढ़ापे की खिड़की से
जवानी को मत झाँको
कोई मुझ जैसी मिल गई
तो सब भूल जाओगे
वैसे ही फूले हो
और फूल जाओगे
चन्दन लगाने की उम्र में
पाउडर लगाते हो
भगवान जाने
ये कद्दू सा चेहरा किसको दिखाते हो
कोई पूछता है तो कहते हो-
"तीस का हूँ।"
उस दिन एक लड़की से कह रहे थे-
"तुम सोलह की हो
तो मैं बीस का हूँ।"
वो तो लड़की अन्धी थी
आँख वाली रहती
तो छाती का बाल नोच कर कहती
ऊपर ख़िज़ाब और नीचे सफेदी
वाह रे, बीस के शैल चतुर्वेदी
हमारे डैडी भी शादी-शुदा थे
मगर क्या मज़ाल
कभी हमारी मम्मी से भी
आँख मिलाई हो
मम्मी हज़ार कह लेती थीं
कभी ज़ुबान हिलाई हो
कमाकर पांच सौ लाते हो
और अकड़
दो हज़ार की दिखाते हो
हमारे डैडी दो-दो हज़ार
एक बैठक में हाल जाते थे
मगर दूसरे ही दिन चार हज़ार
न जाने, कहाँ से मार लाते थे
माना कि मैं माँ हूँ
तुम भी तो बाप हो
बच्चो के ज़िम्मेदार
तुम भी हाफ़ हो
अरे, आठ-आठ हो गए
तो मेरी क्या ग़लती
गृहस्थी की गाड़ी
एक पहिये से नहीं चलती
बच्चा रोए तो मैं मनाऊँ
भूख लगे तो मैं खिलाऊँ
और तो और
दूध भी मैं पिलाऊँ
माना कि तुम नहीं पिला सकते
मगर खिला तो सकते हो
अरे बोतल से ही सही
दूध तो पिला सकते हो
मगर यहाँ तो खुद ही
मुँह से बोतल लगाए फिरते हैं
अंग्रेज़ी शराब का बूता नहीं
देशी चढ़ाए फिरते हैं
हमारे डैडी की बात और थी
बड़े-बड़े क्लबो में जाते थे
पीते थे, तो माल भी खाते थे
तुम भी चने फांकते हो
न जाने कौन-सी पीते हो
रात भर खांसते हो
मेरे पैर का घाव
धोने क्या बैठे
नाखून तोड़ दिया
अभी तक दर्द होता है
तुम सा भी कोई मर्द होता है?
जब भी बाहर जाते हो
कोई ना कोई चीज़ भूल आते हो
न जाने कितने पैन, टॉर्च
और चश्मे गुमा चुके हो
अब वो ज़माना नहीं रहा
जो चार आने के साग में
कुनबा खा ले
दो रुपये का साग तो
अकेले तुम खा जाते हो
उस वक्त क्या टोकूं
जब थके मान्दे दफ़्तर से आते हो
कोई तीर नहीं मारते
जो दफ़्तर जाते हो
रोज़ एक न एक बटन तोड़ लाते हो
मैं बटन टाँकते-टाँकते
काज़ हुई जा रही हूँ
मैं ही जानती हूँ
कि कैसे निभा रही हूँ
कहती हूँ, पैंट ढीले बनवाओ
तंग पतलून सूट नहीं करतीं
किसी से भी पूछ लो
झूठ नहीं कहती
इलैस्टिक डलवाते हो
अरे, बेल्ट क्यूँ नहीं लगाते हो
फिर पैंट का झंझट ही क्यों पालो
धोती पहनो ना,
जब चाहो खोल लो
और जब चाहो लगा लो
मैं कहती हूँ तो बुरा लगता है
बूढ़े हो चले
मगर संसार हरा लगता है
अब तो अक्ल से काम लो
राम का नाम लो
शर्म नहीं आती
रात-रात भर
बाहर झक मारते हो
औरत पालने को कलेजा चाहिये
गृहस्थी चलाना खेल नहीं
भेजा चहिये।"
पसंद

Thursday, June 26, 2014

हम चाहते हैं कि युद्ध न हों - राजेन्द्र राजन

युद्ध : एक
हम चाहते हैं कि युद्ध न हों
मगर फौजें रहें
ताकि वे एक दूसरे से ज्यादा बर्बर
और सक्षम होती जायें कहर बरपाने में

हम चाहते हैं कि युद्ध न हों
मगर दुनिया हुकूमतों में बँटी रहे
जुटी रहे घृणा को महिमामण्डित करने में

हम चाहते हैं कि युद्ध न हों
मगर इस दुनिया को बदलना भी नहीं चाहते

हमारे जैसे लोग
भले चाहें कि युद्ध न हों
मगर युद्ध होंगे ।
- राजेन्द्र राजन

युद्ध : दो
जो युद्ध के पक्ष में नहीं होंगे
उनका पक्ष नहीं सुना जायेगा
बमों और मिसाइलों के धमाकों में
आत्मा की पुकार नहीं सुनी जायेगी
धरती की धड़कन दबा दी जायेगी टैंकों के नीचे

सैनिक खर्च बढ़ाते जाने के विरोधी जो होंगे
देश को कमजोर करने के अपराधी वे होंगे
राष्ट्र की चिन्ता सबसे ज्यादा उन्हें होगी
धृतराष्ट्र की तरह जो अन्धे होंगे
सारी दुनिया के झंडे उनके हाथों में होंगे
जिनका अपराध बोध मर चुका होगा
वे वैज्ञानिक होंगे जो कम से कम मेहनत में
ज्यादा से ज्यादा अकाल मौतों की तरकीबें खोजेंगे
जो शान्तिप्रिय होंगे मूकदर्शक रहेंगे भला अगर चाहेंगे

जो रक्षा मंत्रालयों को युद्ध मंत्रालय कहेंगे
जो चीजों को सही-सही नाम देंगे
वे केवल अपनी मुसीबत बढ़ायेंगे
जो युद्ध की तैयारियों के लिए टैक्स नहीं देंगे
जेलों में ठूँस दिये जायेंगे
देशद्रोही कहे जायेंगे जो शासकों के पक्ष में नहीं आयेंगे
उनके गुनाह माफ नहीं किये जायेंगे

सभ्यता उनके पास होगी
युद्ध का व्यापार जिनके हाथों में होगा
जिनके माथों पर विजय-तिलक होगा
वे भी कहीं सहमें हुए होंगे
जो वर्तमान के खुले मोर्चे पर होंगे उनसे ज्यादा
बदनसीब वे होंगे जो गर्भ में छुपे होंगे

उनका कोई इलाज नहीं
जो पागल नहीं होंगे युद्ध में न घायल होंगे
केवल जिनका हृदय क्षत-विक्षत होगा ।
- राजेन्द्र राजन

दूर से दूर तलक एक भी दरख़्त न था - गोपाल दास 'नीरज'

दूर से दूर तलक एक भी दरख़्त न था
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर तो सख़्त न था

इतने मसरूफ़ थे हम जाने की तैयारी में
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक़्त न  था

मैं जिसकी खोज में ख़ुद खो गया था मेले में
कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख़्त न था

जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया न ख़ौल उठा
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था

उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ
जिनपे इतिहास को लिखने के लिये वक़्त न था

शराब कर के पिया उस ने ज़हर जीवन भर
हमारे शहर में 'नीरज' सा कोई मस्त न था

सुनो, तुम्हेँ याद है बस स्टैंड का वो सुनसान कोना - 'सोनाली' बोस

सुनो,
तुम्हेँ याद है
बस स्टैंड का वो सुनसान कोना
और वहाँ पड़ी लकड़ी की वो पुरानी सी बेंच,
जहाँ कई घंटे हम यूँही काट देते थे?
तुम सिगरेट के धुँए के साथ
मैँ एक अदद कॉफी की प्याली मेँ खोई
ना जाने दुनिया जहान को
किस अन्दाज़ से तुम
अपने आसपास जमा कर लेते थे।


और मै तुम्हारे लफ्ज़ोँ के कारवाँ मेँ खोई,
थाम तुम्हारा हाथ कहीँ दूर
बहुत दूर निकल जाती थी।
आज फिर तुम्हारी कमी
महसूस हो रही है।
और जानते हो?
मैँ उसी बेंच पर बैठी
एक कॉफी के प्याले के साथ
तुम्हारे शब्दोँ के काफ़ीले को
तलाश रही हूँ।
यादेँ धुआँ धुआँ बन
मुझे अपने आगोश मेँ ले रही हैँ।
डरती हूँ कहीँ गुम ना हो जाउँ.....
और जानते हो,
थामने को अब तुम्हारी हथेली भी तो नहीँ...... ।

पुष्प को बगिया में खिलने की आस है - रेखा जोशी

पुष्प को बगिया में खिलने की आस है
बसंत भी तो पतझड़ के आस पास है

बगिया वीरान है बिन तेरेअब सजन
धैर्य रख मधुमास भी तो आस पास है

अँगना तेरे मुस्कुराये गी धूप भी
खिलखिलाते फूल भी तो आस पास है

पोंछ ले आँसू आँखों से तुम अपने
बहार फूलो की भी तो आस पास है

न उदास हो अब तो ज़िंदगी तू मुझसे
गुनगुनाती खुशियाँ यहॉँ आस पास है

इन कमबख्त ख़्वाबों ने - सुलक्षणा दत्ता

1.
इन कमबख्त़ ख़्वाबों ने
सूली पे चढ़ा रखा है
रात /लम्हा लम्हा
बीतती जाती है
दिन की दस्तक
जाने सुन पाऊं कि नहीं
कल किसने देखा
मिल पाऊं कि नही 

2.
ना कल का भरोसा
ना काल का...
जो मिलना है
यही है बस क्षण
इस क्षणभंगुर में .......
'टपक गये'तो सीधे
तेरे मुंह समायेंगे.........
आ जा / खा जा ......
या .......मिल जा .......!

Monday, June 23, 2014

मन तुम काज़ी हो या मुल्ला - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन तुम काज़ी हो या मुल्ला
ठूंसो थूथन वहीँ , जहाँ पर
मचता हल्ला-गुल्ला

अपना काम नहीं करते हो
अपना दीन न साधो
राजनीति में पिले पड़े हो
सत्ता पथ के माधो
खोज रहे हो जहाँ समर्थन
वे ही देंगे ठोकर
सोचो भला फसल क्या मिलना
अहंकार को बोकर

पर दुःख कातर बने खोजते
पद वाला रसगुल्ला

या फिर प्रगतिशील कहलाकर
पुरस्कार की आशा
गूँथ रहे शब्दों की माला
ज्यों कविता की भाषा
अथवा नेता या अभिनेता
बनकर पुजना चाहो
कुछ भी हो पहले सच की
अपनी गहराई थाहो

पानी पी संतोष करो
मत करो दूध का कुल्ला

कुछ हँसती हैं आँचल से मुँह ढंककर - मदन कश्यप


कुछ हँसती हैं आँचल से मुँह ढंककर
तो कुछ मुँह खोलकर ठहाके लगाती हैं
गोलबंद होकर स्त्रियाँ
जाने क्या-क्या बतियाती हैं
बात कुएँ से निकलकर
दरिया तक पहुँचती है
और मौजों पर सवारी गाँठ
समंदर तक चली जाती है
समंदर इतना गहरा
कि हिमालय एक कंकड़ की तरह डूब जाए
उसकी ऊँची-ऊँची लहरें
बादलों के आँचल पर जलधार गिराती हैं
वेदना की व्हेल
दुष्टता की सार्क
छुपकर दबोचने वाले रक्तपायी आक्टोपस
और भी जाने क्या-क्या गप्प के उस समुद्र में
गमी हो या खुशी
चुपचाप नहीं पचा पाती हैं स्त्रियाँ
मिलकर बतियाती हैं मिलकर गाती हैं
इसीलिए तो इतना दुःख उठा पाती हैं
स्त्रियों ने रची हैं दुनियां की सभी लोककथाएँ
उन्हीं के कण्ठ से फूटे हैं सारे लोकगीत
गुमनाम स्त्रियों ने ही दिए हैं
सितारों को उनके नाम!

Sunday, June 22, 2014

कुछ झुका/होंठों पे प्यास देख गया था - सुलक्षणा दत्ता

1.
कुछ झुका/होंठों पे प्यास देख गया था
आँखों से धरती की
एक बूँद ओस कल
आसमान ले गया था
रात बादल बन
झमाझम बरसा......
शहर भिगो डाला!!
क्यूँ रे आवारा
इतना प्यार क्यूँ.........???



2.

छोटे से कोने में
दिल के
ख़ामोशी से
सांस लेता
धड़कता
जीता है
साथ मेरे......
एक आईना.....
वो टूटने के बाद/हुआ है आबाद.....!

Saturday, June 21, 2014

दोपहरी में छाँव लिखूं , - अभिनव अरुण

दोपहरी में छाँव लिखूं ,
जब भी अपना गाँव लिखूं |

जन्नत की जब बात चले ,
अपनी माँ के पांव लिखूं |


पांचाली की पीर बढ़ी ,
दुर्योधन के दांव लिखूं |

दिल दिल्ली से टूटा है,
खुल के अब डुमरांव लिखूं |

सड़कों पर विश्राम नहीं ,
पगडण्डी की ठांव लिखूं !

मैं ने तो मन की धरती पर गीतों के सपने बोये हैं - कृष्ण मुरारी पहारिया

मैंने तो मन की धरती पर
गीतों के सपने बोये हैं
ऊपर से उन्मन लगता हूँ
भीतर प्राण नहीं सोये हैं

प्राणों में सर्जन चलता है
और सदा चलता रहता है
जो भी देखा-सुना जगत में
बिम्बों में ढलता रहता है
जो अपने भीतर-ही-भीतर
कुंठा की गांठे ढोता है
उसको कवी की कारगुजारी
पर विश्वास नहीं होता है

सारा वातावरण गुंजाने
के संकल्प नहीं खोये हैं

सर्जन सदा अकेले होता
यों काया पर दया सभी की
देखो कितने और चले थे
उनकी क्षमता चुकी की
सर्जन में साहस लगता है
यह कायर का खेल नहीं है
अपना लोहू इसे दिया है

किसी तरह से अपने तन पर
दुनिया के बोझे ढोये हैं

Friday, June 20, 2014

बाबूजी , आपने लिखा - अनिल सिन्दूर

बाबूजी ,
आपने लिखा
'जो असंभव था, उसे  संभव  किया मैनें
तब कहीं सिन्दूर का जीवन जिया मैंने '
तुमने जो लिखा उसे ही जीवन में जिया
ये दावा तुमने किया हो या नहीं
मैं महसूस करता हूँ
इस दावेदारी में तुम खरे उतरे !
पूरी दुनिया के पिता चाहते हैं
हारना अपने बेटे से
लेकिन तुमने असंभव को संभव कर
बेटे को ही हरा दिया
तुमने एक मिशाल कायम की है
अपने लिखे को सत्य किया है
लेकिन
न करे कोई पिता ऐसा असंभव
कामना है उस खुदा से ...............

लोग कहते हैं तुम आज नहीं हो - अनिल सिन्दूर

बाबू जी,
लोग कहते हैं
तुम आज नहीं हो
तुम होते हुये भी
मेरे लिये कब थे
तुम एकाकी नहीं थे
मैं जानता था , फिर भी मेरे लिए
नहीं थे सहज उपलब्ध



मैंने जब से तुम्हें जाना था
तब से, जब भी मैंने करीब आना चाहा था
तुम भागते रहे थे दूर-दूर

सच तो ये है कि तुम मुझसे नहीं 
भाग रहे थे अपने आपसे
खून के रिश्ते भी तुमने बना रखे थे असहज
वावजूद इसके मैंने बना रखे थे इकतरफा सम्बन्ध तुमसे
क्यों कि मेरे न होकर भी मेरे थे तुम ..................

Thursday, June 19, 2014

अब केवल लपटों से अपना, मिलना और बिछड़ना है - कृष्ण मुरारी पहारिया

अब केवल लपटों से अपना
मिलना और बिछड़ना है
पीड़ा हो या मधुर प्रेम की
नोक ह्रदय में गड़ना है

जैसी बोयी बेल अभी तक
वैसी फलियाँ काटूँगा
अपने अनुभव का गंगाजल
हर परिचित को बाटूंगा
अब तक अपनी उमर खपायी
जीने के संघर्षों में
होना है जाने क्या आगे
आने वाले वर्षों में

अब औरों से नहीं जगत में ,
अपने मन से लड़ना है

अब किसका हिसाब चुकता
करना है जाने से पहले
क्या करना है धन या जन का
कैसे नहले पर दहले
छूट गयी वे दाँव-पेच की
हार जीत वाली घातें
बस थोड़ी सी शेष रह गयी
कहने सुनने की बातें

अब क्या सही गलत के झगड़े
किसके पीछे अड़ना है

Wednesday, June 18, 2014

जीवन में चलता रहता है युद्ध - अनिल सिन्दूर

मित्र,
जीवन में
चलता रहता है युद्ध
भीतर भी, बाहर भी
बाहर चल रहे युद्ध को
परास्त करना कहीं सरल है
भीतर के युद्ध से


फिर भी
हमें भीतर चल रहे
युद्ध को परास्त करना होगा, पहले
क्यों कि, भीतर का युद्ध करता है
लड़ने की क्षमता को कम
बाहर के युद्ध से

चांदी के कलकारी दिन - के.बी. एल . पाण्डेय





चांदी के कलकारी दिन

रातों के घर बंधुआ बैठे 
बच्चों से बेगारी दिन
खूनी तारीखें बन कर अब
आते हैं त्यौहारी दिन 

पेट काट कर बाबा ने जो 
जमा किये थे बरसों में
उड़ा दिये दो दिन में
हमने चाँदी के कलदारी दिन।

नौन तेल के बदले हमने
दिया पसीना जीवन भर
फिर भी खाता खोले बैठे
बेईमान पंसारी दिन।

कोर्ट कचहरी उमर कट गयी
मिसिल  आगे बढ़ पायी
जाने कब आते जाते ये
घूसखोर सरकारी दिन।

पैदा हुए उसूलों के घर
उस पर कलम पकड़ बैठे
वरना क्या मुष्किल थे हमको
सत्ता के दरबारी दिन।

Monday, June 16, 2014

मन रे तुम घमंड में भूले - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन रे तुम घमंड में भूले
पायी संपति , ख्याति बटोरी
सो कुप्पा से फूले

कैसे तने-तने चलते हो
देख रही है बस्ती
लेकिन तुमको होश नहीं है
छायी ऐसी मस्ती

सबकी आँखों में गड़ती है
मद में फूली छाती
चाल वही चलिए दुनिया
जो है आती-जाती

लेकिन जो सावन के अंधे
भर-भर पेंगें झूले

अपना तुम आदर्श बघारो
अपनी कथा सुनाओ
सबकी नैतिकता को नापो
ओछी सदा बताओ

प्रवचन सदा तुम्हारा चलता
ऐसी ठेकेदारी
नहीं सोचते कब किसके जी
पर पड़ती है भारी

कहीं चमेटा लगा अगर तो
हो जाओगे लूले

Sunday, June 15, 2014

बेटी का अपने पापा को खत - दिव्या शुक्ला

बेटी का अपने पापा को ख़त
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कैसे याद करूँ जब कभी भूले ही नहीं आप
याद तो उसे किया जाता है जिसे भूले हो
बेटियां पिता का मान होती है पिता बेटी का अभिमान
औरों की तो नहीं जानते पर मैने हमेशा पापा जैसा पति चाहा था
आप का जाना सर से छत का उड़ जाना था

लगता था जैसे हर कोई
जान गया मेरे पापा नहीं रहे

जीवन की कड़ी धूप में घनी बरगद की छाँव थे आप

आप के लाड प्यार ने शायद कुछ-कुछ जिद्दी भी बना दिया मुझे
हालांकि कभी यह बात मानी नहीं मैने
मुझे बिगाड़ने का इलज़ाम भी आप पर ही लगे

पर यह सब जानते हैं
आप जैसी ही हूँ मै

आप में वह सब कुछ था जो एक सम्पूर्ण पुरुष में होना चाहिए
जिस पर मुझे हंमेशा गर्व रहा

पता है आपको, आपके बिना वो घर बहुत खाली है
बाईस सालों में सिर्फ दो बार गई आपकी बेटी मायके 

वहां आप जो न मिलते
पर आप हो न मेरे साथ 

हमेशा रहना आपके बिना कमजोर पड़ जाती है 
आपकी यह बिटिया, आपको पता है आपसे बहुत नाराज़ हूँ मै
आप बिना बताये अचानक न जाने कहाँ चले गए 

वहां जहाँ से आपको खोज कर
ला भी नहीं सकते -- बहुत खराब है आप पापा

तुम्हारी कब्र पर मैं फ़ातेहा पढने नहीं आया - निदा फ़ाज़ली

'फादर्स डे' पर अपने बाबू जी को याद करने का मौका मैं नहीं छोड़ पाया ! उनकी मौत के समय मैं उनके पास नहीं था ! उनकी मौत की खबर जानबूझ कर उस समय दी गयी जब अंतेष्टि हो चुकी थी ! मैं उनको मुखाग्नि न दे सका यही वजह है कि मुझे आज भी यही महसूस होता है कि वो आज भी जिन्दा है ! निदा फ़ाज़ली साहब की ये नज़्म उनको समर्पित !!  

तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढने नहीं आया

मुझे मालूम था , तुम मर नहीं सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी , वो झूठा था ,
वो तुम कब थे ?
कोई सूखा हुआ पत्ता , हवा में गिर के टूटा था !

मेरी आँखे
तुम्हारी मंजरों में कैद हैं अब तक
मैं जो भी देखता हूँ , सोचता हूँ
वो , वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी !

कहीं कुछ भी नहीं बदला ,
तुम्हारे हाथ मेरी उँगलियों साँस लेते हैं
मैं लिखने के लिए जब भी कागज कलम उठाता हूँ
तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूँ !

बदन में मेरे जितना भी लहू है ,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है ,
मेरी आवाज़ में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है ,
मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम !

तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है ,
वो झूठा है , वो झूठा है , वो झूठा है ,
तुम्हारी कब्र में मैं दफ़न तुम मुझमें जिन्दा हो ,
कभी फुरसत मिले तो फातेहा पढने चले आना !

Saturday, June 14, 2014

आओ हम सब मिलकर - अनिल सिन्दूर


आओ
हम सब मिलकर
समाज के
उन कटीले शूलों को
तोड़ने की कोशिश करें
जिन्हें आता है सिर्फ
और सिर्फ दर्द देना


जब भी हमने
बढ़ा दी अपनी सहनशक्ति
इज़ाफा हुआ है इनकी ताकत में
अब तोड़ना ही होगा
इनके बढ़ते होंसलों को
हमेशा-हमेशा के लिए

Friday, June 13, 2014

मै फिर भी कविता लिखती हूँ - बीनू भटनागर

मै फिर भी कविता लिखती हूँ
मैने नहीं लिखे इश्क के अफ़साने,
मैने नहीं बुने प्यार के ताने-बाने,
मै फिर भी कविता लिखती हूँ।

मैने नहीं किया किसी का इंतज़ार,
मैन नहीं काटी कोई आँखों मे रात,
मै फिर भी कविता लिखती हूँ।


मेरे अतीत मे कुछ ऐसा है ही नहीं,
मुडकर जो देखूँ लिखूं बार बार,
मै फिर भी कविता लिखती हूँ।


मेरी सोच, तर्क, विवेक बुद्धि,
सबका है वैज्ञानिक आधार,
मै फिर भी कविता लिखती हूँ।


मेरी कविता मे प्रकृति है,
मेरी कविता मे संसकृति है,
मै वो ही लिखती पढ़ती हूँ।


मेरी कविता मे ईश्वर है,
मंदिर मे नहीं वह मन मे है ,
प्रभु दर्शन प्रकृति मे करती हूँ।
मै फिर भी कविता लिखती हूँ।

मोढ़े पर बैठ कंठ-तक गोरस पी आया, - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

आज जरा फुर्सत थी, उस टोले चला गया
उसके घर जाना क्या रोज-रोज होता है !
सहज दिन बिताना क्या रोज-रोज होता है !

मोढ़े पर बैठ कंठ-तक गोरस पी आया,
गन्ने से मीठे पल, कलयुग में जी आया,
थोड़ी सी राहत थी, उस टोले चला गया
रीझना-रिझाना, क्या रोज़-रोज़ होता है !
रूठना-मनाना, क्या रोज़-रोज़ होता है !

झिलमिल बहुरूप नैन-कोरों में ठहर गये,
रूढ़ हुए शब्दों को अर्थ मिले नये-नये,
कैसी कुछ चाहत थी, उस टोले चला गया
मन को गा पाना, क्या रोज़-रोज़ होता है !
छेड़ना तराना, क्या रोज़-रोज़ होता है !

मौज से फटेंगी अब कितनी ही संधायें,
लोकगीत गायेंगी, मूक- बधिर यात्राएं,
वक़्त की इनायत थी, उस टोले चला गया !
खुद पर इतराना क्या रोज़-रोज़ होता है !
साथ दे ज़माना, क्या रोज़-रोज़ होता है

Thursday, June 12, 2014

मैं खण्ड-खण्ड हो गया, एक सम्मूर्तन के लिये ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं खण्ड-खण्ड हो गया, एक सम्मूर्तन के लिये !
स्वीकार लिया भुजबंध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये !

तन तो प्रसून था, बिखर गया, पर मन मकरंद हुआ,
अंतर्ध्वनि को इतना गाया, संभाषण छन्द हुआ,
मैं कंठ-कंठ हो गया, एक सम्बोधन के लिये !
स्वीकार लिया भुजबंध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये !

मैं किरण-किरण डूबा जल में, बादल-बादल उभरा,
सूरज, सागर हो गया और सागर कुहरा-कुहरा,
मैं रूप-रूप हो गया, एक सम्मोहन के लिये !
स्वीकार लिया भुजबंध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये !

मैंने अनन्त पथ को गति की सीमा में बाँध लिया,
अपनी गूंगी-बहरी धुन को अक्षय संगीत दिया,
मैं गीत-गीत हो गया, एक अनुगुंजन के लिये !
स्वीकार लिया भुजबंध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये !

मैंने असंख्य बिम्बों में मनचाहे आकार जिये,
आक्षितिज वेणु-सी बजे, कि ऐसे स्वर-सन्धान किये,
मैं नाद-नाद हो गया, एक रस-चेतन के लिये !
स्वीकार लिया भुजबंध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये !


Wednesday, June 11, 2014

मन तुम फिर ऐसे जी डालो - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन तुम फिर ऐसे जी डालो
जैसे बचपन में जीते थे
भय-संकोच न पालो

वह जीवन सचमुच जीवन था
सिर्फ खेलना खाना
संगी-साथी लिए घूमना
गांव-गली मनमाना
बस्ती में वन या उपवन में
कोई भेद नहीं था
ऐसी चोखी लगन, जहाँ
रत्ती भर छेद नहीं था

दिन भर चलता ही रहता था
अपना आलो-बालो

पढना-लिखना शुरू कि सिर पर
पहली आफ़त आयी
ब्याह हुआ, बच्चे कर बैठे
बने बैल के भाई
फिर समाज ने घेरा डाला
ढेर भरी दी सीखें
इतना बोझ लदा कन्धों पर
निकली मुख से चीखें

अब जितनी सांसे बाकी हैं
वहां राग फिर गा लो

मेरे प्रेम मैं हार गया तुमसे - वीरू सोनकर

मेरे प्रेम
मैं हार गया तुमसे
तुम किसी रक्त बीज से पनपे हो मुझमे
बिलकुल बेशर्मो से,
हर बार
मेरी कुरूपता का उपहास उड़वा कर
तुम कुछ दिनों के लिए सो जाते हो
और मुझे छोड़ देते हो
अपने इस कुरूप चेहरे पर रोने के लिए
मेरे प्रेम
जब तुम सो जाते हो
तब मुझे लगता हैं की तुम मर गए
पर तुम कभी नहीं मरते,
हर बार
कभी किसी बाजार में घूमते हुए
या किसी कॉलेज के बाहर से गुजरते हुए
सुन्दर चेहरों की मुस्कुराहटो में
तुम
अपने छिछोरेपन के साथ उठ खड़े होते हो
और
बहुत ही नाजायज तरीके से
तुम अपने
इस बार के प्रेम को भी
सच्चा और रूहानी बताते हो.........
मेरे प्रेम
मैं तुम्हे बताता हूँ
तुम प्रेम नहीं हो
तुम वासना हो !!
मेरे प्रेम
तुम्हे तो याद भी नहीं होगा
मेरा असली और
पहला प्रेम / जब तुमको ये जानने में ही
सालो लग गए थे की ये ही प्रेम हैं.....
अब उस पहले प्रेम के बाद
मेरे भीतर सिसक सिसक कर दम तोड़ने के बाद
तुम बार बार
मुझमे
जो जी जाते हो
जान लो,
मुझे अब तुम्हारी साजिशे पता हैं
अब मुझसे पहले सा प्रेम नहीं होगा.....सुन लो
मैं वासना को
प्रेम का नाम नहीं दूंगा
मेरे प्रेम
तुम मुझमे मर चुके हो........
अब किसी अतृप्त आत्मा जैसा व्यवहार न करो

मैं जानता हूँ मैं कोई अवतार नहीं हूँ ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं जानता हूँ मैं कोई अवतार नहीं हूँ !
इस सृष्टि का सर्जक हूँ, कर्णधार नहीं हूँ !

मैं काल-सिद्ध शब्द का स्वर हूँ अनादि से ,
जड़ काल-पात्र में पड़ी झंकार नहीं हूँ !

सारा जहाँ है मुझ में , मैं सारे जहान में ,
जो ध्वंस से डरता है वो संसार नहीं हूँ !

विश्वास है मुझे , मैं पढ़ा जाउँगा सदियों ,
मैं आर्षग्रन्थ हूँ कोई अखबार नहीं हूँ !

मैं अन्तरिक्ष में भी क्षीर-सिन्धु जी सकूँ ,
मैं छोटी-सी 'डल झील' का अभिसार नहीं हूँ !

'सिन्दूर' कल था , आज है और कल भी रहेगा ,
दिखता है आँख को जो , वो आकार नहीं हूँ !

Sunday, June 8, 2014

अए गमे-दिल ! साथ मेरे तू कहाँ तक जाएगा ! - प्रोफे.राम स्वरुप 'सिन्दूर'

अए गमे-दिल ! साथ मेरे तू कहाँ तक जाएगा !
मैकदे तक जाएगा , या आस्ताँ तक जाएगा !

खोज कर हारा न पाया आज तक उसका पता ,
पर मेरा बेलौस नाला जाने-जां तक जाएगा !

रह गया तनहा मुसाफ़िर-जैसा मीरे-कारवाँ ,
वो उफ़ुक के पार , यानी बेकराँ तक जाएगा !

कारबां का हर मुसाफ़िर अपनी मंजिल पा गया ,
राहबर से कौन पूछे , तू कहाँ तक जाएगा !

हमसफ़र को भी यकीं , 'सिन्दूर' है भटका हुआ ,
रास्ता कोई भी हो मेरे मकां तक जाएगा !


समुद्री चक्रवात की मार सबसे ख़ौफ़नाक नहीं होती - सुशान्त सुप्रिय

(पाश को समर्पित)
"समुद्री चक्रवात की मार
सबसे ख़ौफ़नाक नहीं होती
भूकम्प की तबाही
सबसे ख़ौफ़नाक नहीं होती
छूट गई दिल की धड़कन
सबसे ख़ौफ़नाक नहीं होती

सबसे पीछे छूट जाना- बुरा तो है
एड़ी में काँटे का चुभ जाना- बुरा तो है
पर सबसे ख़ौफ़नाक नहीं होता
दुःस्वप्न में छटपटाना- बुरा तो है
किताबों में दीमक लग जाना- बुरा तो है
अजंता-एलोरा का खंडहर होता जाना-
बुरा तो है
पर सबसे ख़ौफ़नाक नहीं होता
सबसे ख़ौफ़नाक होता है
अपनी ही नज़रों में गिर जाना
देह में दिल का धड़कते रहना
पर भीतर कहीं कुछ मर जाना
सबसे ख़ौफ़नाक होता है
आत्मा का कालिख़ से भर जाना
सबसे ख़ौफ़नाक होता है
अन्याय के विरुद्ध भी
न उबलना लहू का
चेहरे पर पैरों के निशान पड़ जाना
सबसे ख़ौफ़नाक होता है
खुली आँखों में क़ब्र का
अँधेरा भर जाना..."

"यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में आग लगी हो - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

"यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।

देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।
याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।
ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है
अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।
आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार..."

Saturday, June 7, 2014

नए नए बूढ़े वे उन सबसे खफा हो जाते हैं - वीरू सोनकर

नए नए बूढ़े
वे उन सबसे खफा हो जाते हैं
जो उनके सफ़ेद बालो की याद दिलाते हैं
गालो पर पड़ी झुर्रिया दिखाते हैं
नए नए बूढ़े
अब अपनी मोर्निंग वाक का एक चक्कर और बढ़ा देते हैं
वो डरते हैं खुद के खारिज होने से
वो दिखाना चाहते हैं
अभी भी उनमे कितना दम बचा हैं..
वो जान बुझ कर रोमांटिक बाते करते हैं
आती जाती लडकियों ने कितनी बार उन्हें देखा
अपनी बीवियों को गिन गिन कर बताते हैं
नए बूढ़े
दूर रहना चाहते हैं पुराने बूढों से
वो पुराने बूढों से घबराते हैं
क्युकी वो जानते हैं
यही उनका भी कल हैं
एक उम्र में खुद को खपा कर
ये नए नए बूढ़े
अपना किस्सा खत्म मानने को तैयार नहीं हैं
उन्होंने खुद को
पूरी उम्र एक ताज़ा तरीन जवान बने देखा हैं
ज़माने को बनते और मिटते देखा हैं
अब वो जान रहे हैं
उनका भी मिटना बस कुछ सालो की बात हैं
नए बूढ़े
अपनी उखड़ती सांसो को दम साध कर रोक लेते हैं
वो जल्दी जल्दी सब कुछ सही कर लेना चाहते हैं
नकचड़ी बहु
खिसियाया हुआ बेटा और उबियाई हुई बीवी
नए नए बूढों को
पुराना बूढ़ा साबित करने की
बहुत जल्दी में हैं
नया बूढ़ा सबके सामने बहुत बढ़ा शेखीखोर हैं
पर
अकेले में
बहुत डरा हुआ हैं..........................

युवा रचनाकार का जीवन परिचय दे रहा हूँ
नाम -  वीरू सोनकर, पिता-  स्वर्गीय किशन सोनकर शिक्षा = बी. ए. क्राइस्ट चर्च कॉलेज, बीएड डी. ए. वी. कॉलेज कानपूर, 2003 में क्राइस्ट चर्च कॉलेज के छात्र संघ महामंत्री भी रहे, लेखन - संयुक्त काव्य संकलन निर्झारिका और पुष्पगंधा शीघ्र प्रकाशित, कविता कथ्य-- कविता मेरे लिए एक बेहद गहरी अनुभूति हैं जहाँ भावो को शब्द ढूंढने नहीं पड़ते, बल्कि शब्द खुद ब खुद अपनी भूमिका में आ जाते हैं.......कविता कह दी जाये कभी भी बनाई न जाये, इसी सूत्र वाक्य को कविता का प्रेरणा श्रोत मानता हूँ ! पता--- 78/296, लाटूश रोड, अनवर गंज कालोनी, कानपूर उत्तर प्रदेश, पिन कोड -- 208001, E-mail -- veeru_sonker@yahoo.com,

तुम जरा सा अगर जो कभी हौसला देते - मंजु अग्निहोत्री

तुम जरा सा अगर जो कभी हौसला देते ,
तो सनम हम तेरे इश्क़ में जाँ लुटा देते !

तुम बिना किस कदर हूँ अधूरी कभी देखो
दिल-नशीं शबनमीं को खता तो बता देते !

आसमाँ से सभी चाँद तारे उतर के अब ,
रात दिन बस तेरी याद का वास्ता देते !

अश्क़ को तुम मेरे गर ज़रा आसरा देते ,
ज़िन्दग़ी के सभी ग़म हम कब के भुला देते !

बेवफ़ाई के आग़ोश में तुम न जो होते ,
हम तेरे ख़्वाब को भी हक़ीक़त बना देते !
 

Friday, June 6, 2014

आँख पर पट्टी रहे और अक्ल पर ताला रहे - अदम गोंडवी

आँख पर पट्टी रहे और अक्ल पर ताला रहे
अपने शाहे वक्त का यूँ मर्तबा आला रहे.

देखने को दे उन्हें अल्लाह कंप्यूटर की आँख
सोचने को कोई बाबा बाल्टी वाला रहे.

तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आये दिन अखबार में प्रतिभूति घोटाला रहे.

एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छै चमचे रहें माइक रहे माला रहे..."

मन रे तुम पर क्या वश अपना - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन रे तुम पर क्या वश अपना
यहाँ-वहां बिन मोल बिके हो
मुझे हो गए सपना

कली-कली पर मर मिटते हो
फूल-फूल मंडराते
पीछे-पीछे भाग रहा हूँ
हाथ न मेरे आते
एक नशा तुम पर छाया है
होश गवां बैठे हो
मैं जैसे हो गया पराया
मुझ से यों ऐंठे हो 

मेरे कर में शेष रह गया
नाम तुम्हारा जपना

रंग-बिरंगी छायाओं ने
तुमको मोह लिया है
कहाँ-कहाँ हैं ठौर-ठिकाना
इतना टोह लिया है
धरम-करम की बिक्री वाले
पीछे पड़े तुम्हारे
भाव तुम्हारे बहुत बढ़ गये
तुम जीते हम हारे

अब तो नाम तुम्हारा लेते
मुझे पड़े है कंपना