Sunday, July 27, 2014

आज का सूरज है - सुलक्षणा दत्ता

आज का सूरज है
तेरे चेहरे की मुस्कान सा
कुछ भीगा कुछ अलसाया
रात रिमझिम से झमाझम थी


जब जब इंद्र मेहरबान हुवे
सतरंगी हुआ है जीवन .......!!!
आज मानस फ़लक पे
इन्द्रधनुष खिलखिलाया .......!!!
सावन ने पहली बार असर दिखाया!!!

अच्छा लगता है बच्चों को खिलखिलाते देखना - रवि कुमार

अच्छा लगता है
बच्चों को खिलखिलाते देखना
समन्दर को किनारों पर चढ़ते
चांद को बादलों के साथ के साथ
अठखेलियां करते देखना अच्छा लगता है
जब कोई कौंपल फूटती है
खिलती है कोई कली
जब सूर्य आंखें खोलता है
इठलाती किरणों के साथ
अच्छा लगता है
ज़मीन के ज़र्रे ज़र्रे का
जीवन की आभा से दमक उठना
ज़िंदगी को
जूझते और मुस्कुराते देखना
अच्छा लगता है
अच्छा नहीं लगता
किसी सितारे का टूटना
टूटना किसी आशा का
किसी फूल की पंखुरियों का बिखरना
बिखरना किन्हीं सपनों का
अच्छा नहीं लगता
भाई मेरे !
सूरज को डूबते देखना
कोई सुंदर दृश्य नहीं हो सकता
आल्हादित नहीं कर सकता हमें
एक दरख़्त को गिरते देखना

सैकड़ों सोई हुई क़ब्रों के बीच - केदार नाथ सिंह

सैकड़ों सोई हुई क़ब्रों के बीच
वह अकेली क़ब्र थी
जो ज़िन्दा थी
कोई अभी-अभी गया था
एक ताज़ा फूलों का गुच्छा रखकर
कल के मुरझाए हुए फूलों के
बगल में

एक लाल फूल के नीचे
मैट्रो का एक पीला-सा टिकट भी पड़ा था
उतना ही ताज़ा
मेरी गाइड ने हँसते हुए कहा--
वापसी का टिकट है
कोई पुरानी मित्र रख गई होगी
कि नींद से उठो
तो आ जाना!
मुझे लगा
अस्तित्व का यह भी एक रंग है
न होने के बाद!
होते यदि सार्त्र
क्या कहते इस पर--
सोचता हुआ होटल लौट रहा था मै

जिन्दगी, तू क्यों चली आती है - अनिल सिन्दूर

जिन्दगी,
तू क्यों चली आती है
बार-बार
अपने वो दुःख लेकर , जो तेरे अज़ीज़ हैं
और जिन्हें नहीं छोड़ना चाहती तू भी
आसानी से

तू सहेजे क्यों नहीं रखती उन्हें
ये दुःख ही तो पहचान हैं तेरी
और संबल, इकतरफ़ा जूझने की
उनके जाने के बाद , नहीं रहेगा यदि
वजूद उनका, तो तेरा भी !

वो कहर बरपाती है कगार ढहते हैं प्रलय आ जाता है - दिव्या शुक्ला


नदी कितना कुछ समेटे बहती रहती है
कहीं उथली तो कहीं गहरी / मंथर गति से मुस्काती हुई
तो कभी प्रसन्नबदना किल्लोल करती हुई
परंतु यदि उसे कैद किया तो क्रोध से उफनाती भी है
वो कहर बरपाती है कगार ढहते हैं प्रलय आ जाता है
गाँव शहर बस्ती जंगल सब बह जाते है ---
स्त्री भी तो एक नदी ही है स्वयं में और तुम्हारे जीवन में भी
सब कुछ समेटे जीवन धारा में बहती रहती है जीवनभर
तुम्हारा दिया सब कुछ समेटे ऊपर से शांत परंतु भीतर कोलाहल भरा
ह्रदय के अतल में दर्द का ज्वालामुखी भी /और एक पल प्रेम का भी संजोये
याद करती है अनचाहे ही पुरातन काल से चले आये यह श्लोक
---
कार्येशु मंत्री, कर्मेशु दासी , भोज्येशु माता !
शयनेषु रम्भा, मनोंनुकूला, छमा धारित्री !!
षड् गुणा युक्ता त्वायिः धर्म पत्नी !!



कोशिश करती है खरा उतरने की पर जैसे नदी अपना धैर्य खो देती है
तो कगार ढह जाते है /वैसे ही स्त्री यदि अपना धैर्य खो देती है तो
नष्ट हो जाता है सम्पूर्ण समाज / मत काटो उसे साग भाजी की तरह
मिटटी का पात्र नहीं /प्रेम और पीड़ा की मिटटी से गुंधी हुई नारी का
अपमान मत करो /धरा और आकाश का पावन पुनीत नाता बनाये रखो

ख़ामोशी कभी तू भी बोल ज़रा , - "मंजु अग्नि "

ख़ामोशी कभी तू भी बोल ज़रा ,
तन्हाई का घूँघट खोल ज़रा ,
क्यों दिन में सपने बुनता है ,
क्यों दिल की हरदम सुनता है ,
यहाँ अपना पराया कोई नहीं ,
क्यों रिश्ते हरदम बुनता है ,
ख़ामोशी कभी तू भी बोल ज़रा !


याद आएँगी सब भूली बातें ,
चुक जाएँगी जब मुलाकातें ,
दिल की गलियों को खोल ज़रा ,
एहसासों की मिट्टी में फिर से ,
ज़ज़्बातों का रस तू घोल ज़रा ,
ख़ामोशी कभी तू भी बोल ज़रा !

Friday, July 25, 2014

किसी का नोचा मुंह.. किसी को लतियाया गया - अवज्ञा अमरजीत गुप्ता

दिल्ली - सी-सेट मामले में पुलसिया वर्ताव पर युवा साहित्यकार की प्रतिक्रिया

किसी का नोचा मुंह.. किसी को लतियाया गया...
किसी को ठूंस बसों में जुतियाया गया
और ये सब हो रहा है....
लोकतंत्र की रक्षा के लिए....
लोकतान्त्रिक तरीके से...

सुना नहीं तुमने
सरकार ने कहा है
 "तुम्हारे साथ अन्याय नहीं होगा"
और तुम हो कि मानते ही नहीं.!
आओ अपने हिस्से का न्याय ले लो
बोलो कब आ रहे हो...?
यहाँ न्याय बंट रहा... थोक में ठोक के....!

Monday, July 21, 2014

किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से - गुलज़ार

किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो कदरें वो सुनाती थी कि जिनके
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फ़ाज़
जिनपर अब कोई मानी नहीं उगते
जबां पर जो ज़ायका आता था जो सफ़ा पलटने का
अब ऊँगली क्लिक करने से बस झपकी गुजरती है
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, वो कट गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे!!

Saturday, July 19, 2014

मन तुम कहाँ चले यों जाते - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन तुम कहाँ चले यों जाते
एक ठौर पर नहीं बैठते
दर-दर ठोकर खाते

जहाँ-जहाँ आकर्षण पाया
वहीँ चिपक रहते हो
फिर इच्छाओं की ज्वाला में
बिना वजह दहते हो
क्यों कर तुमको नहीं सुहाती
अपनी राम-मडैया
बेडा पार इसी से लगना
कुछ तो सोचो भैया

अपनों से दूरी तुम रखते
गैरों के गुन गाते

जहाँ-जहाँ तुम गये भला क्या
लडुआ वहां धरे हैं
भला दिखाओ कहाँ तुम्हारे
दोनों हाथ भरे हैं
यह दुनिया बाज़ार सरीखी
मोल खरीदो , बेचो
फूँक-फूँक तुम पांव धरो जू
पल में ऊचों-नेचो

बड़े-बड़ों को भूलभूलैंयां
के रस्ते भटकाते

Friday, July 18, 2014

याद है तुम्हे जब तुम जाने के लिए कहती थी - पवन जैन

याद है तुम्हे
जब तुम जाने के लिए कहती थी
मैं अपने मोबाइल की हैलो ट्यून
चला दिया करता था
अभी न जाओ छोड़ कर
ये दिल अभी भरा नहीं
और फिर तुम कुछ पल और ठहर जाती थी
और मैं हाथ तुम्हारा ले हाथों में
बस तुम्हे देखता रहता था
अब खाली हाथो को तकता हूँ


और बन्द कर अपनी आँखों को
सपनो को याद मैं करता हूँ
उन ख्वाबों के भीतर ही तो
तेरे नयनों की चितवन है
तुम तो शायद खुश होंगी
रूठ कर मुझ से
और अपने नए प्रेमी की बाहों में
जिसने तुम्हारे जन्मदिन पर
तुम्हे ऑडी गिफ्ट की है
पर मैं तुम्हे नहीं भूल सकता
अब भी नहीं
हकीकत जानने के बाद भी नहीं
वैसे मैं तुम्हे याद नहीं करना चाहता
पर दिल तो मासूम सा बच्चा है
जो अब भी तुम्हे बहुत प्यार करता है

कितनी बार शर्मसार होगी मानवता थू है इस समाज पर - दिव्या शुक्ला

कितनी बार शर्मसार होगी मानवता थू है इस समाज पर
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कल ही हुई लखनऊ में बलात्कार की घटना सोचने पर मजबूर करती है
कौन कहता है हम सभ्य समाज में रह रहे हैं ----------
आदिमानव भी इतना क्रूर और संवेदनहीन न रहा होगा
माँसाहारी पशुओं में भी ऐसी क्रूरता अपनी मादाओं के प्रति नहीं होती
कल ही मोहनलालगंज में हुई सामूहिक बलात्कार की क्रूरतम घटना ने तो
हाड़ तक कंपा दिये घृणा की लहर दौड़ गई ...कितने कमीने कितने नृशंस है
जिन्होंने इसे अंजाम दिया ---

किसी न किसी औरत के गर्भ से ही तो जन्म लिया होगा ....
कोई न कोई उनकी कलाई पर भी रक्षा सूत्र बाँधती ही होगी --
कैसे घसीटा होगा उन्होंने कलाई पकड कर उसके गर्भ पर प्रहार करते समय क्या
उन्हें अपनी माँ न याद आई --- 

क्या देह की भूख इतना गिरा देती है --
अगर स्त्री से कोई दुश्मनी भी है तो क्या यह तरीका है उससे बदला लेने का
मोहनलाल गंज के बलसिंह खेडा के प्राथमिक विद्यालय में 

एक युवती की सामूहिक बलात्कार के बाद उसकी हत्या --
इतनी बर्बरता तो पशुओं में भी नहीं होती -- 
आज अख़बार रंगे है निर्भया काण्ड से भी क्रूर काण्ड --
 पता नहीं कब तक चलेगा ये सिलसिला कब तक आखिर कब तक ---
घिन आती ऐसे पुरुषों से धिक्कार है उन पर --
अब तो लगता औरतो को ही माँ भवानी का स्वरूप धर इन दैत्यों का बध करना होगा ---
अभी तक शिनाख्त भी नहीं हुई उस लड़की की
मन व्यतिथ और छोभ से भरा है --

 रोज़ रोज़ की यह घटनाएँ सोचने पर मजबूर करती है क्या औरतों का यही सम्मान है --
यह वही देश है जहाँ देवी पूजी जाती है
कन्याये पूज कर आशीर्वाद लेते है और उन्ही का ऐसा अपमान - धिक्कार है
-

Thursday, July 17, 2014

चलता रह तू साथ मुकद्दर - गौरव वाजपई 'स्वप्निल'

चलता रह तू
साथ मुकद्दर
तेरे चलता जाएगा
ठान लिया जो मन में तूने
निश्चित इक दिन पाएगा
जो अवरोध मिलेंगे तुझको
कड़ी परीक्षा यदि लेंगे
तो तेरे श्रम का प्रतिफल भी
निश्चित वो तुझको देंगे
तू तो अपना कर्म किए जा
फल तो खुद ही आएगा
चलता रह तू
साथ मुकद्दर
तेरे चलता जाएगा
दृढ संकल्प हृदय में लेकर
जो बस चलता जाता है
निश्चय ही अपनी मंज़िल वो
इक दिन तो पा जाता है
घबराए बिन यदि तू अपने
पथ पर चलता जायेगा
निश्चित है तू नित दिन अपना
भाग्य बदलता जाएगा
चलता रह तू
साथ मुकद्दर
तेरे चलता जाएगा
ठान लिया जो मन में तूने
निश्चित इक दिन पाएगा.........

Wednesday, July 16, 2014

एक बेटे को पिता का समर्पण ........... अनिल सिन्दूर

एक बेटे को पिता का समर्पण ...........
बेटा,
नहीं कर पाया फ़ैसले, तुम्हारे प्रति कठोर 
जिससे बना पाता तुम्हें मजबूत
दुनिया से लड़ने को
मेरे पिता ने जैसा बनाया है मुझे 
कठोर और निष्ठुर, अपनी बेरुखी से
मैं कमजोर रहा पुत्र-मोह में
और बार-बार सीने से लगा
करता रहा अपनी स्वार्थ सिद्दी
जानते हो
जिनके पिता इस स्वार्थ से होते हैं परे
उनके पुत्र, जीवन-भर लड़ने को रहते हैं तैयार संघर्षों से
मैंने भी आत्मसात किया है,  पिता की उस क़ुरबानी को 
जिसमें नहीं लगाया उन्होंने मुझे , जीवन भर अपने सीने से
ताकि बना रहे मेरा बज्र सा सीना,  संघर्षों से लड़ने को
लेकिन
जिस स्नेह को तुम्हें देकर मैंने की है, स्वार्थ पूर्ति
कर्ज चुकाने को, उसी वज्र से सीने का करूँगा
 उपयोग
 और नहीं छूने दूंगा किसी बला को जीते-जी !
 


Monday, July 14, 2014

सोचें और विचारें हम ! - शशि कान्त पाठक


सोचें और विचारें हम !
खुद में जरा निहारें हम !!

क्षमता जो है छिपी हुई !
उसको जरा उबारें हम !!


कमियों की पहचान करें !
झट से उन्हें सुधारे हम !!


अहम चढ़े यदि सर पे तो !
फट से उन्हें उतारे हम !!


अमन चैन भर कर दिल में !
सुन्दर वक़्त गुजारे हम !!

Saturday, July 12, 2014

अब भी अतीत में धंसे हुए हैं पांव - कृष्ण मुरारी पहरिया

अब भी अतीत में धंसे हुए हैं पांव
आगे बढ़ने का कोई योग नहीं
आँखों के सम्मुख सपनों की घाटी
उस तक पहुंचूं कोई संयोग नहीं

सुधियाँ भी हैं , संबंध पुराने हैं
ताजे होते रहते हैं बीते घाव
इनमें ही फंसकर रह जाता है मन
मर जाता अगला पग धरने का चाव

कुछ ऐसे भी हैं काया के दायित्व
जिनके बोझ से झुके हुए कंधे
कुछ ऐसे पर्दे भी रीतों के
जिनके रहते ये नयन हुए अन्धे

उर में है चलते रहने का संकल्प
यह बात असल है , कोई ढोंग नहीं

काया की अपनी जो मज़बूरी हो
अंतस की अपनी ही गति होती है
कैसा ही गर्जन-तर्जन हो नभ में
कोयल केवल मीठे स्वर बोती है

अन्तर्द्वन्दों में जो फस जाते हैं
उनका भी अपना जीवन होता है
भावी की सुखद कल्पनाओं के बीच
सुख से सारा विष पीना होता है

दुःख, तडपन और निराशा हो प्रारब्ध
यह भी जीना है कोई रोग नहीं

Friday, July 11, 2014

उसकी यादों से हमें कौन रिहाई देगा - " मंजु अग्नि "

उसकी यादों से हमें कौन रिहाई देगा ,
सामने ना हो मेरे फिर भी दिखाई देगा !

क्या कहें, किससे कहें और कहें क्यों आखिर ,
झूठ बोलेगा वही और सफ़ाई देगा !

ग़म ये दुनिया को बताएं तो बताएं कैसे
दर्द ये जिसने दिया वो ही दवाई देगा !

हमको मालूम है गमगीन यहाँ सारे हैं
देखना कौन भला गम को विदाई देगा !

शोर भी गम के समन्दर में अभी इतना है
मुस्कुरायें या हंसें दर्द सुनाई देगा !

मैंने जिस शख्स़ को अब तक है छुपाया सबसे
मेरे हर शेर में अब वो ही दिखाई देगा !

Wednesday, July 9, 2014

बुझ गये सांझे चूल्हे खो गई मिट्टी की महक - दिव्या शुक्ला


बुझ गये सांझे चूल्हे खो गई मिट्टी की महक
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कहाँ खो गया वो मिटटी का घर
तालाब की पिडोरी मिटटी और गोबर से
लीपा हुआ अंगना / दलान और दुआर ओसार
रातों में गमकती महुआ की मादक सुगंध
नीम की ठंडी छाँव निम्बौली की महक
आम की बगिया जामुन का लदा पेड़
चूल्हे में सेंकी आजी के हाथ की खरी मोटी रोटी
पतीली में बनी आम की खटाई वाली दाल


हरे चने मटर का निमोना जिसमे अम्मा के हाथ की बडियां पड़ी रहती
भोर में मथनी से मट्ठा बनाती अम्मा कितनी सुंदर लगती
हाथ से मक्खन निकालते जब उनके चूड़ी भरे हाथ सन जाते
पीपल बरगद की छाँव तले वाला इनारा (कूआं)
आंचल से मुंह ढंके गाँव की नई नवेली भौजाइंया
तर्जनी और मध्यमा ऊँगली से पल्ला थाम
आँखों से इशारे करती अपने उन को और
झुक जाती शर्म से पलकें देवरों से नजर मिलते ही
ननद भाभी की चुहलबाजी देवरों की ठिठोली से
गूंजता अंगना बीच बीच में अम्मा बाबू की मीठी झिडकी से
कुछ पल को ठहर जाता सन्नाटा -कहाँ गया यह सब
शायेद ईंट के मकान निगल गये मिटटी का सोंधापन
गोबर मिटटी से लीपा आंगन कही खो गया ढह गया दालान
फिनायल और फ्लोर क्लीनर से पोछा लगी लाबी में बदल गया ओसारा
भाँय भाँय करने लगा अब बड़ा आंगन अब तो पिछवारे वाली
गाय बैल भैंस की सरिया भी ढह गई अब कोई नहीं यहाँ
भाइयों के चूल्हे बंट गए और देवर भाभी के रिश्ते की सहज मिठास में
गुड़ चीनी की जगह ले ली शुगर फ्री ने / ननद का मायका औपचारिक हुआ
चुहलबाजी और अधिकार नहीं एक मुस्कान भर बची रहे यही काफी है
अम्मा बाबू जी अब नहीं डांटते कमाता बेटा है बहू मालकिन
अब पद परिवर्तन जो हो गया वो बस पीछे वाले कमरे तक सिमट कर रह गए
उनका भी बंटवारा साल में महीनो के हिसाब से हो गया
छह बच्चों को आंचल में समेटने वाली माँ भारु हो गई
जिंदगी भर खट कर हर मांग पूरी करने वाले बाबू जी आउटडेटेड
अम्मा का कड़क कंठ अब मिमियाने लगा और बाबू जी का दहाड़ता स्वर मौन -
आखिर बुढापा अब इनके भरोसे है अशक्त शरीर कब तक खुद से ढो पायेंगे
दोनों में से एक तो कभी पहले जाएगा /अम्मा देर तक हाथ थामे रहती है बाबू का
और भारी मन से कहती है तुम्ही चले जाओ पहले नहीं तो तुम्हे कौन देखेगा
हम तो चार बोल सुन लेंगे फिर भी तुम्हारे बिना कहाँ जी पायेंगे
आ ही जायेंगे जल्दी ही तुम्हारे पीछे पीछे -भर्रा गया गला भीग गई आँखें
फिर मुंह घुमा कर आंचल से पोंछ लिया हर बरगदाही अमावस पूजते समय
भर मांग सिंदूर और एडी भर महावर चाव से लगाती चूड़ियों को सहेज कर पहनती
सुहागन मरने का असीस मांगती अम्मा आज अपना वैधव्य खुद चुन रहीं हैं -
कैसे छाती पर जांत का पत्थर रख कर बोली होंगी सोच कर कलेजा दरक जाता है -
उधर दूर खड़ी बड़ी बहू देख रही थी अम्मा बाबू का हाथ पकड़ सहला रही थी
शाम की चाय पर बड़े बेटे से बहू कह रही थी व्यंग्यात्मक स्वर में
तुम्हारे माँ बाप को बुढौती में रोमांस सूझता है अभी भी और बेटा मुस्करा दिया
पानी लेने जाती अम्मा के कान में यह बतकही पड़ गई वह तो पानी पानी हो गई
पर उनकी औलाद की आँख का पानी तो मर गया था ----
क्या ये नहीं जानते माँ बाप बीमारी से नहीं संतान की उपेक्षा से आहत हो
धीमे धीमे घुट कर मर जाते हैं फिर भी उन्हें बुरा भला नहीं कहते
सत्य तो यही है मिटटी जब दरकती है जड़ें हिल जाती है तब भूचाल आता है -
एक कसक सी उठती है मन में क्या अब भी बदलेगा यह सब
हमारी नई पीढ़ी सहेज पाएगी अपने संस्कार वापस आ पायेंगे क्या साँझा चूल्हे ?

Tuesday, July 8, 2014

याद बस छोड़ गया, याद दिलाने वाला - अलोक श्रीवास्तव


बड़े भैया के लिए, जो बस अब स्मृतियों में ज़िंदा हैं...

याद बस छोड़ गया, याद दिलाने वाला,
ऐसे जाता है कोई रूठ के जाने वाला ?


भाई तो था ही मेरा, राहनुमा पहले था,
राह में छोड़ गया, राह दिखाने वाला.

फ़ैसले होते थे सब मेरे उसी के दम से,
अब कहां मैं हूं ग़लत ! कौन बताने वाला.

तल्ख़ियां ख़ूब हुईं, सोच के बेफ़िक्री से,
वो न था बात मेरी दिल से लगाने वाला.

किसको मालूम था इक झोंके से बुझ जाएगा,
अपने जज़्बों से बुझी शमाँएं जलाने वाला.

कई बार लिख कर भी ,खुद से नाराज हो मिटा देता हूँ - अजय शुक्ला

 खुद से ....पिता से ......पत्नी से ......और बच्चों से

 कई बार लिख कर भी ,खुद से नाराज हो मिटा देता हूँ  
 मोहब्बत के खत ,तेरे हर्फ़ ओ अल्फ़ाज़ मे वो प्यार नहीं

1: जब भी अपनी रूह से बात करने का ख्याल भी आया
   उसे जन्नत मे ,तेरे जिस्म मे बहुत ही दूर बैठा पाया
   किसी ने कहा था ,सफेद कागज मे अश्क या लहू से लिखना
   स्याहियों के रंग अक्सर दिल को रुलाने का काम करते हैं
.......................................
2: उम्रदराज हूँ ,पर वालिद तुमसे तो छोटा ही हूँ हमेशा
   चिपक कर कह देता तुमसे ना कहने वाली भी सारी बात
   समझदार हो गये उम्र के पन्ने ,आंसू लिखने भी नहीं देते
   क्या तुमसे भी मोहब्बत मे कहीं शब्दों की जरूरत होती है
............................................

3: और तुम ,आईं और चुपके से शामिल हो गयीं मेरे वजूद पर
   तुमने कब लिखा कि तुम्हे प्यार है मेरी अकड़ या नखरों से
   पर हर पल दिल को हौले से बता देती मुझे तेरी या तुझे मेरी
   फिक्र भी है और आदत भी, और बस ये ही तो मोहब्बत है
...............................................
4: तू गोद मे रह कर अपने होंठों से मेरे माथे या गालों पर
   जाने किस जुबां मे जो अनकही मीठी सी कहानी लिख देता है
   वो लफ्ज़ खत मे लिखें कैसे जो बस अहसास है तेरे मेरे बीच
   प्यार तुझे भी मालूम है बस बेवजह शब्दों का सहारा नहीं लेता है
............................................................

   जो खुद से नाराज हूँ लिख कर मिटा देने से ,बुरा क्या है
   प्यार को कह कर के प्यार किया, हाँ उसमे वो प्यार नहीं
  

कई बार लिख कर भी ,खुद से नाराज हो मिटा देता हूँ - अजय शुक्ला

 खुद से ....पिता से ......पत्नी से ......और बच्चों से

 कई बार लिख कर भी ,खुद से नाराज हो मिटा देता हूँ  
 मोहब्बत के खत ,तेरे हर्फ़ ओ अल्फ़ाज़ मे वो प्यार नहीं

1: जब भी अपनी रूह से बात करने का ख्याल भी आया
   उसे जन्नत मे ,तेरे जिस्म मे बहुत ही दूर बैठा पाया
   किसी ने कहा था ,सफेद कागज मे अश्क या लहू से लिखना
   स्याहियों के रंग अक्सर दिल को रुलाने का काम करते हैं
.......................................
2: उम्रदराज हूँ ,पर वालिद तुमसे तो छोटा ही हूँ हमेशा
   चिपक कर कह देता तुमसे ना कहने वाली भी सारी बात
   समझदार हो गये उम्र के पन्ने ,आंसू लिखने भी नहीं देते
   क्या तुमसे भी मोहब्बत मे कहीं शब्दों की जरूरत होती है
............................................

3: और तुम ,आईं और चुपके से शामिल हो गयीं मेरे वजूद पर
   तुमने कब लिखा कि तुम्हे प्यार है मेरी अकड़ या नखरों से
   पर हर पल दिल को हौले से बता देती मुझे तेरी या तुझे मेरी
   फिक्र भी है और आदत भी, और बस ये ही तो मोहब्बत है
...............................................
4: तू गोद मे रह कर अपने होंठों से मेरे माथे या गालों पर
   जाने किस जुबां मे जो अनकही मीठी सी कहानी लिख देता है
   वो लफ्ज़ खत मे लिखें कैसे जो बस अहसास है तेरे मेरे बीच
   प्यार तुझे भी मालूम है बस बेवजह शब्दों का सहारा नहीं लेता है
............................................................

   जो खुद से नाराज हूँ लिख कर मिटा देने से ,बुरा क्या है
   प्यार को कह कर के प्यार किया, हाँ उसमे वो प्यार नहीं
  

Saturday, July 5, 2014

आंसू अनुपात हरे - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं घर-द्वार छोड़ कर भटकूँ,
वन-वन विजन-विजन में !
बड़ी विसंगतियां होती हैं ,
छोटे-से जीवन में !

पीड़ा जितनी बढ़े, बढ़े उतनी ही नादानी,
अपनी बानी भूल, सीख-ली निर्जन की बानी,
कोई भी अंतर न रह गया,
गुंजन औ' क्रंदन में !

घाटी उतरे देह, प्राण पर्वत-पर्वत डोले,
अधर-धरी बाँसुरी, स्वगत की भाषा में बोले,
संवेदन करुणा में बदले
करुणा संवेदन में !

झील आँख नम कर जाये, आंसू अनुपात हरे,
अस्तंगत सूरज कुहरे में सौ-सौ रंग भरे,
रूप, दिखे पहले-जैसा
जल के अन्धे दरपन में !

Friday, July 4, 2014

मैं सूर्यकिरण का प्यासा सूर्यमुखी ! - नरेंद्र शर्मा

मैं सूर्यकिरण का प्यासा सूर्यमुखी !
मैं मनोनयन की भाषा सूर्यमुखी !

थर्राया था भू-गर्भ , चितेरे ने देखी धड़कन ,
थी 'वानगांग' की तूलि, कर सकी जो मेरा अंकन ,
मैं अवनी की अभिलाषा सूर्यमुखी !

बैठी थी मेरे पास एक छोटी-सी छुईमुई,
छू दिया किसी ने उसे, स्वप्नमग्ना संकुचित हुई ,
मैं खुल-खिलने की आशा सूर्यमुखी !

मैं यों बोला: सुन सखी ! न संज्ञा त्वक् तक ही सीमित ,
संकोच नहीं, उत्क्रांत क्रांतिद्रष्टा जन ही जीवित,
मैं दिवा-स्वप्न-जिज्ञासा सूर्यमुखी !


Wednesday, July 2, 2014

निर्मला पुतुल की बेहतरीन कविता ( आदिवासी लड़कियों के बारे में)

ऊपर से काली
भीतर से अपने चमकते दाँतों
की तरह शान्त धवल होती हैं वे
वे जब हँसती हैं फेनिल दूध-सी
निश्छल हँसी
तब झर-झराकर झरते हैं....
पहाड़ की कोख में मीठे पानी के सोते
जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ
जब नाचती हैं कतारबद्ध
माँदल की थाप पर
आ जाता तब असमय वसन्त
वे जब खेतों में
फसलों को रोपती-काटती हुई
गाती हैं गीत
भूल जाती हैं जिन्दगी के दर्द
ऐसा कहा गया है
किसने कहे हैं उनके परिचय में
इतने बड़े-बड़े झूठ ?
किसने ?
निश्चय ही वह हमारी जमात का
खाया-पीया आदमी होगा...
सच्चाई को धुन्ध में लपेटता
एक निर्लज्ज सौदागर
जरूर वह शब्दों से धोखा करता हुआ
कोई कवि होगा
मस्तिष्क से अपाहिज !
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