Saturday, August 30, 2014

मेरे न रहने पर आये मेरे सारे परिचित - राकेश मूथा

मेरे न रहने पर आये
मेरे सारे परिचित
वो भी आये
जो कभी नहीं आये थे
मुझे पूछने
मेरे घर
जब में ज़िंदा था
दुखी लग रहे थे


सब दोस्त ,दुश्मन
मेरे न रहने पर
उन सब का प्यार देख
भूल गया मैं अपनी मृत्यु
और खो गया
उस प्यार की धुंध में
कभी फिर इस कोहरे से
बाहिर न निकलने के लिए .................

Thursday, August 28, 2014

स्त्री हूँ मैं खुशनसीब की मैं रचूंगी - राकेश मूथा

स्त्री हूँ मैं
खुशनसीब
की मैं रचूंगी
अपने में
अपने से
प्रतिरूप
अपने प्यार का .......



.............................
स्त्री हूँ में
बदनसीब
नहीं रचना चाहती
मैं
अब कोई
प्रतिरूप ..........
........................................
स्त्री हूँ मैं
हर बात
हमारे बीच
प्रतिद्वंदियों सी है
हमारा प्रेम
कहाँ..कहाँ है ??.....



स्वंय लगा कर कन्धा , अपनी अर्थी लेकर चल दूँ - डॉ. सत्यकाम पहारिया

स्वंय लगा कर कन्धा , अपनी अर्थी लेकर चल दूँ ,
पहुँचू घाट किनारे जाकर , सत्ता से जा मिल लूँ !

जीवन की यह नियति कर्म से भोगा करती ,
यह अतीत की बात सुछवि को धारण करती !

अभी हमें तपना है पावक परम-तत्व से ,
फिर मिलना है दौड़ , तभी उस नील गगन से !

प्रलयंकर हुँकार उठेगी ज्वलित चिता से ,
जल का होगा नाश , अवस्थित देह दशा से !

पवन करेगा सांय-सांय फिर चिता जलेगी ,
क्षिति तो लेगा भाग , शेष बस भस्म रहेगी !

धर्म रहेगा साथ वहां की पावन यात्रा होगी ,
एकाकी होगा जाना बस प्रभु की आस रहेगी !

आत्म-तत्व का परम तत्व से मिलना होगा ऐसे ,
एक बूँद का जलनिधि में ज्यों मिलना होगा जैसे !

जहाँ लोक आनंदमय रहना होगा अब वहां ,
फिर उतर कर इस धरा पर अब नहीं रहना यहाँ !

Wednesday, August 27, 2014

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को - अदम गोंडवी

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

इक नये अंदाज़ से हम दिल को बहलाने लगे - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'



इक नये अंदाज़ से हम दिल को बहलाने लगे !
राज़ की बातें भी बच्चों की तरह गाने लगे !!

हद से ज़्यादा बढ़ गईं एहसास की खामोशियाँ,
और हम जंजीर से जंजीर टकराने लगे !

जलवागाहों में हुई गुम कौन-सी परछाईयां,
इस भरी दुनिया में हम तन्हां नज़र आने लगे !



उनसे मिलने के लिये बेताब रहते थे कभी,
अब ये आलम है कि हम ख़ुद से भी कतराने लगे !

किस की खातिर अर्श को छूने लगीं बेताबियाँ,
ख़ुद को दे आवाज़, हम घाटी को थर्राने लगे !

बेख़ुदी को रास आए रास्तों के सिलसिले,
मंजिलों पर मंजिलें 'सिन्दूर' ठुकराने लगे !

Tuesday, August 26, 2014

सूरज को फांसी - शरद कोकास

बैंजामिन मोलाइस , अफ्रीका के क्रन्तिकारी कवि थे जिन्हें फांसी दी गयी थी ! उनके सम्मान में यह कविता शरद कोकस ने वर्ष 1989 में दी थी !

सूरज को फांसी

रात्रि के अंतिम प्रहर में
कारपेट घास पर बैठ
सूरज को फांसी देने की
योजना बनाने वालों से
इतना कहना है
एक बार वे
योजना के गर्भ में झाँककर
सूरज और जल्लाद के
संबंधों की
ख़ुफ़िया जानकारी ले लें

जल्लाद दूर गाँव से बुलाया गया है
फांसी के बाद पैसों के अलावा
इंटरव्यू छापने का आश्वासन है

उन्होंने तय कर लिया है
किस तरह सूरज को बांधकर
तख़्त तक ले जाया जायेगा
चेहरा ढांकने के लिये
काले कपड़े की जरुरत होगी
ताकि उनकी नज़रों से निकलने वाली
क्रांति की चिंगारियां
किसी के दिमाग में जब्ज़ न हो

फंदे के आकार पर भी बात जारी है
ताकि सूरज की नाक
बराबर दूरी पर
दांये या बांये रह सके

सूरज से उसकी अंतिम इच्छा पूछना
योजना में शामिल नहीं है
फांसी से पूर्व की
सुरक्षा व्यवस्था के अंतर्गत
शामिल है
सूरज मुखी के पोधों को जड़ से नष्ट करना
ताकि विद्रोह अंकुरित न हो

सूरज की लाश
उसके परिजनों को सौपी जाये या नहीं
या कर दिया जाये उसका अंतिम संस्कार
सरकारी खर्चे पर
विचार इस पर भी जारी है

सूरज के आरोप पत्र में लिखा है अपराध
रोशनी और ऊष्मा के सन्दर्भ में
उसने महलों की नहीं झोपड़ों की तरफदारी की है !



Thursday, August 21, 2014

रे दुःख ,धैर्य रख - अनिल सिन्दूर

रे दुःख
धैर्य रख
तूने यदि दिया है साथ मेरा, जीवन भर
विश्वास रख, छोडूगा मैं भी नहीं
देखा है मैंने , तमाम कोशिशों के बाद भी
चाह कर भी तुझसे अलग न हो सका
और तूने भी कभी छोड़ा नहीं अकेला
ये गठजोड़ बना हैं निभाने को
एक दूसरे का साथ .................

Wednesday, August 20, 2014

मन रे , जेई रेनू बिटिया - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन रे , जेई रेनू बिटिया
घुसी रसोई में पानी से
काढ रही है चिटियाँ

दूध उबल कर खूब पक गया
लेकिन कहाँ मलाई
इससे पूंछो तो कहती है
एक बिलोरी आयी
इसकी कौन बिलारी लगती
फिर क्यों नहीं भगाया
उत्तर में इसने बस केवल
ला-रे-लप्पा गाया

अधिक कहो तो मुह पर मारे
उठा-उठाकर गिटिया

इतनी है शैतान कि इससे
कोई बात न करता
नीलम और सुशीला कोई
इस पार हाथ न धरता
खुद ही उनको कहती फिरती
अपनी भली सहेली
सच्ची बात छिपाये बैठी
करती है मुँहठेली

रत्नम , रिचा मांगते रोटी
यह बांचे है चिठिया

Sunday, August 17, 2014

आत्म-पुनर्वास भी जियें - प्रोफे. राम स्वरुप सिन्दूर


हम हिरण्यवास जी चुके , निर्जन निर्वास भी जियें !
तन का इतिहास ही नहीं , मन का इतिहास भी जियें !!

एक अंतहीन ज्वार में
सप्त-सिन्धु एक कर दिये ,
अश्रु के त्रिलोकी दृग में
लीलाधर रूप भर  दिये ,
खण्ड-खण्ड श्वास जी चुके , चक्रवात रास भी जियें !

सूर्यमुखी आग पी रहे
चंद्रमुखी तृप्ति के लिये ,
एक बिम्ब से जुड़े हुए
सृष्टि से विभक्ति के लिये ,
शून्य का प्रवास जी चुके , प्राकृत सन्यास भी जियें !

स्वप्नजात इंद्रजाल में
मन्वन्तर-कल्प खो गये ,
होना था कल कि जो हमें
इस पल ही आज हो गये ,
विस्थापन -त्रास जी चुके , आत्म पुनर्वास भी जियें !

शब्द-सिद्ध अन्तरिक्ष में
अंतर्ध्वनि लीन हो गयी ,
रस -विमुग्ध लय-समाधि में
चेतना प्रवीण हो गयी ,
मुक्ति का प्रयास जी चुके , मुक्ति अनायास भी जियें !





 

 



Tuesday, August 12, 2014

होता है जब वो उदास - अनिल सिन्दूर

मित्र ,
होता है जब वो उदास
अपने मोबाइल की तरह
दिमाग में अपनों की
'कोंटेक्ट लिस्ट' को खंगाल
निकालना चाहता है एक नाम
और पूछना चाहता है
निवारण, अपनी उदासी का

जब खोजने पर भी नहीं मिलता
उसे वो 'नाम'
तब खो जाना चाहता है वो
 गुमनामी की भीड़ में,
 तलाशने को 'राहत'
और ठहर जाता है
वहीँ ................

Monday, August 11, 2014

अक्सर,, खाली जेब अपनी शामो में भटकते हुए - वीरू सोनकर

अक्सर,,
खाली जेब
अपनी शामो में भटकते हुए
या अभिजात्य भाषा में टहलते हुए
मैं चकरा सा जाता हूँ
कभी कभी
जब मैं
अपने घर का रास्ता भटक जाता हूँ
तब एक परिचित आवाज मेरे कानो में आती हैं
जब मेरी परछाई बड़ बडाती हैं

और बताती हैं
की तुम आज भी पहले जैसे ही भुलक्कड़ हो
बार बार
उन्ही गलियों में भटक जाते हो
जहाँ से पता नहीं कितनी-कितनी बार तुम्हे रास्ता बताया गया हैं
पर शायद तुम्हे बार बार खोने में मजा आता हैं

मेरी परछाई
बड़ बडा कर भी
खिसिया कर भी ,,
आख़िरकार मुझे फिर से रास्ता बताती हैं

काश
मेरी परछाई कभी समझ पाती,
मेरा अकेला होना क्या हैं
और क्या हैं
मेरा जानबूझ कर उन्ही जाने बुझे रास्तो पर भटकना,
और फिर चिड चिड़ा कर मेरी परछाई का मुझे फिर से रास्ता बताना,

ये सब मुझमे कितना भरोसा जगाता हैं
हां कोई हैं
जो मेरे लिए मेरे साथ हैं...

मेरी परछाई को क्या पता,,
अब मुझसे कोई बात ही नहीं करता....................

कुछ भी नहीं था मेरे पास - दुष्यंत कुमार (योग संयोग - कविता से )

कुछ भी नहीं था मेरे पास
मेरे हाथ में न कोई हथियार था
न देह पर कवच
बचने की कोई सूरत नहीं थी !

एक मामूली आदमी की तरह
चक्रव्यूह में फँसकर
मैंने प्रहार नहीं किया
सिर्फ चोटें सही
लेकिन हँसकर !

अब मेरे कोमल व्यक्तित्व को
प्रहारों ने कड़ा कर दिया है !




ओ गाज़ा के शैतान बच्चो - खालिद रज़ा ( फिलिस्तीनी कवि )

ओ गाज़ा के शैतान बच्चो
तुम जो मेरे घर के बाहर
गली में शोर-शराबा करते हुए
नाक में दम किये रखते थे

तुम ,  जो हर सुबह को  हुडदंग
और धमक से भर दिया करते थे

तुम , जिन्होंने मेरा प्यारा गुलदान तोड़ डाला
और मेरी खिड़की के बाहर खिला
एक मात्र फूल चुरा लिया

लौट आओ और खूब मचाओ शोर
और तोड़ दो सारे गुलदान , चुरा लो सारे फूल
लौट आओ ..................बस लौट आओ

Sunday, August 10, 2014

तुम्हें याद आती तो होगी मेरी , मुझे भी - अनिल सिन्दूर

बहिन ,
तुम्हें याद आती तो होगी
मेरी , मुझे भी
लेकिन आपने
पिता से मिली हठधर्मिता का निर्वाह
किया होगा सिद्दत से !

करना भी चाहिये था
बड़ी थी आप
पर मैं न कर सका
आप सत्य हैं
पर अनुसरण कर भी पाऊंगा मैं ?

मैंने सीखा है अपनी माँ से सहना - अनिल सिन्दूर

मित्र,
मैंने सीखा है अपनी माँ से
सहना
ये सहना अब असहनीय क्यों
शायद
नहीं बदल पाया मैं समयानुसार !
और बदल भी नहीं सकता
क्यों कि,
आदतें बदला नहीं करती
सहन शक्ति को ही बनाना होगा
हथियार
जुर्म का ! 

Saturday, August 9, 2014

एक कोना है तू मेरी बातों का - विशाल कृष्ण सिंह

दीदी
.......................
एक कोना है तू
मेरी बातों का
मेरी जिद्द का 
लड़ाई का
गुस्से का
हक का

पर तेरे जाने के बाद
अब कोई नहीं होता
जो झट से दे दे
अपने हिस्से के जमा पैसे
मेरी छोटी छोटी चाहतों पर
घर में
मैं और माँ
कम बतियाते है
माँ जल्दी सो जाती है
और मैं देर तक दरवाजा तकता रहता हूँ
मैं जब भी तेरे घर जाता हूँ
हैरान सा देखता हूँ
कैसे पापा की नाजुक सी लड़की
बरगद बन गई है
कैसे तू सबके लिए
गहरी नदी बन जाना चाहती है
ताकि जीती रहे हर रंग की मछलियां |
मैं जानता हूँ
कि तू आज भी मुझे सुनना चाहती है
पूरा का पूरा
पर मैं ही अब शब्द खाने लगा हूँ
मैं बदला नहीं दी
बस मुझे तेरी मुस्कुराहट की फिक्र है
आज तुम सब से दूर
यहाँ कोई नहीं
तो मैंने खुद ही राखी बांध ली
और देर तक
तेरा चेहरा महसूसता रहा राखी में |

नर हो न निराश करो मन को - मैथली शरण गुप्त

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो , जग में रहकर कुछ काम करो ,
यह जन्म हुआ कुछ अर्थ अहो , समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को , नर हो न निराश करो मन को !

संभलो कि सुयोग न जाय चला , कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना , पथ आप प्रशस्त करो अपना !
अखिलेश्वर हैं अवलम्बन को , नर हो न निराश करो मन को !

निज गौरव का नित ज्ञान रहे हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे ,
सब जाप अभी , पर मान रहे , मरणोत्तर गुंजित गान रहे !
कुछ हो न तजो निज साधन को , नर हो न निराश करो मन को !

प्रभु ने तुमको कर दान किये , सब वांछित वस्तु विधान किये ,
तुम प्राप्त करो उनको न अहो फिर है यह किसका दोष कहो ,
समझो न अलभ्य किसी धन को , नर हो न निराश करो मन को !

किस गौरव के तुम योग्य नहीं , कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं ,
जन हो तुम भी जगदीश्वर के , सब हैं जिसके अपने घर के ,
फिर दुर्लभ क्या उनके जन को , नर हो न निराश करो मन को !

करके विधिवाद न खेद करो , निज लक्ष्य निरंतर भेद करो ,
बनता बस उद्यम ही विधि है , मिलती जिससे सुख की निधि है ,
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को , नर हो न निराश करो मन को !



हम सड़क के हैं मुसाफ़िर मील के पत्थर नहीं ! - देवेन्द्र 'सफल'

हम सड़क के हैं मुसाफ़िर
मील के पत्थर नहीं !

चारणों-बन्दीजनों की भी न हम को चाह है ,
अब अकल्पित लक्ष्य अपने औ' असीमित राह  है ,
विश्व सारा घर हमारा
देखते मुड़ कर नहीं !

ऊर्ध्व-श्वासी वेदनायें ह्रदय पर कसती रहीं ,
मुक्त हो पायी न फिर भी फूल को डसती रहीं ,
बांसुरी के रस-वलय हम
बाँस वन के स्वर नहीं !

रौद्र रस की भंगिमा को और कुछ विस्तार दें ,
प्रलय-पल की सूक्तियों को और कुछ नव सार दें ,
चेतना के सूर्य उज्जवल
ठहरते क्षण भर नहीं !

सृष्टि की पीड़ा धनंजय ! मोहमय अवसाद है ,
पार्थ ! गह गांडीव शर यदि चाहता प्रतिवाद है ,
अग्री-कुल की रश्मियाँ हम
जुगनुओं के घर नहीं !


Friday, August 8, 2014

ऐसी गांठ बंधी अंतस में - अमर नाथ श्रीवास्तव

ऐसी गांठ बंधी अंतस में,
चाहा भी तो खोल न पाया  !
कभी समय पर सोच न पाया
कभी समय पर बोल न पाया !

भीतर-भीतर फ़ांस समेटे
बाहर-बाहर हँसी तुम्हारी ,
तुमसे मिलना उत्सव ऐसा
रातें रूठी , पलकें भारी,

मिला मुझे आकाश मिलन का
मैं अपने पर तोल न पाया !

वे परम्परा के आभूषण
भार हो गये रिश्ते नाते ,
धारण करते जी डरता था
खोने का भय , आते-जाते

फूलों के जेवर जो सोचे
बाज़ारों में मोल न पाया !

बार-बार शब्दों का चुनना
बार-बार उनमें संशोधन ,
दो होठों के बीच रह गये
आगामी कल के संशोधन ,

फागुन की आहट आई भी
टेसू के रंग घोल न पाया !

Wednesday, August 6, 2014

मुझे पहाड़ पसंद थे तुम्हें नदी - विशाल कृष्ण

एक मुलाकात
...............................
मुझे पहाड़ पसंद थे
तुम्हें नदी ,
हाँ तुम संग थोडी नदी मुझमें भी बहने लगी थी,
ठीक वैसे ही जैसे
मुझ संग तुम जी रही थी एक खामोश पहाड़ |

हम पहाड़ों पर गये तुमने धूप से जला मेरा चेहरा देखा|
और झट से सूरज और चेहरे के बीच अपनी पीठ रख दी,
मेरा चेहरा बर्फ सा शीतल हो उठा
और बिन कुछ कहे
मुझे नींद आ गयी |
जब उठा
तो मेरी नजर पानी से सड़ रहा तुम्हारे अंगूठे को निहारने लगी |
मै व्याकुलता से
दवा वाले शब्द ढुंढने लगा |
तुमने मेरे होठों पर उंगली रखी
और आंखों में ऐसे देखे
मानो कोई पुल बन गया हो
हवा में
और बटने लगा दर्द
आधा आधा |
तब शाम होने को थी
मुझे पहाड़ो पर लौटना था
तुम्हें नदी को |
पर शायद ,
वहाँ कुछ था
जो छूट  रहा था
जिसको बचा लेना बहुत जरूरी था |
हम जान कर भी
अनजान बने रहे
और लौट गये
अपने अपने रास्ते,
रास्ते जो दोनों छोर से जुडें थे
और इकलौते गवाह थे
नदी और पहाड़ के बीच
इस मुलाकात के |
.....................................
( मैं नहीं चाहता था
तुम ठहर जाओ
इक मुलाकात में
ताउम्र,
इसलिए कभी नहीं बताया
वो तमाम फिक्र,
जो तुम्हारे लिए
आज भी पल रही हैं
अन्दर ही अन्दर )

Tuesday, August 5, 2014

बच्चे कहाँ लिख पाते है कविता - विशाल

बच्चे कहाँ लिख पाते है कविता
कविता लिखने के लिए
जरूरी होता है
उनका बडा होना |

बडे कहाँ जी पाते है कविता
कविता जीने के लिए
जरूरी होता है
उनका बच्चा होना |
..........................................
( मै खुद को
बचाए रखना चाहता हूँ
और तुम कहते हो /
अब बचपना छोडो यार )

कुछ भी नया नहीं ना हमारी पीडा - विशाल

कुछ भी नया नहीं
ना हमारी पीड़ा
ना शब्द
ना मौन
ना स्याह
ना कागज |

आकाश सदियों से देख रहा है
सबकुछ,
और मिट्टी आदिकाल से एक चुप माँ सी पाल रही है हमको,...
बावजूद इसके
हमें भ्रम है..
कि पीड़ा और मौन की काली जड़े
सिर्फ मेरे सीने पर उगी है,
दीमक सिर्फ मुझेमे रेंग रहा है,
सबसे विकृत सिर्फ मेरा सच है,
रात सिर्फ मैने कपडे नोचे थे अपनी देह से |

पर
सुर्य /अंधकार/ मृत्यु /जन्म
जैसे तमाम सत्य के साथ साथ ,
सत्य है
हमारा विलीन होना
और
फिर से उगना
इन्हीं तमाम पीड़ा / शब्द /मौन /दीमक/ स्याह और कागज लिए |

Monday, August 4, 2014

आज की रात बहुत गरम हवा चलती है - कैफ़ी आज़मी

आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।

सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।

ये जमीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटी शाखों से उतारे हम ने ।

इन मकानों को खबर है ना मकीनों को खबर
उन दिनों की जो गुफाओ मे गुजारे हम ने ।

हाथ ढलते गये सांचे में तो थकते कैसे
नक्श के बाद नये नक्श निखारे हम ने ।

कि ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद,
बाम-ओ-दर और जरा, और सँवारा हम ने ।

आँधियाँ तोड़ लिया करती थी शामों की लौं
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने ।

बन गया कसर तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे खाक पे हम शोरिश-ऐ-तामिर लिये ।

अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ऐ-पेयाम की थकान
बंद आंखों में इसी कसर की तसवीर लिये ।

दिन पिघलाता है इसी तरह सारों पर अब तक
रात आंखों में खटकतीं है स्याह तीर लिये ।

आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।

सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।

मत रहो घर के अन्दर(लड़कियों से) - इला प्रसाद

"मत रहो घर के अन्दर
सिर्फ़ इसलिए
कि सड़क पर खतरे बहुत हैं।
चारदीवारियाँ निश्चित करने लगें
जब
तुम्हारे व्यक्तित्व
की परिभाषाएँ
तो डरो।

खो जायेगी तुम्हारी पहचान
अँधेरे में,
तुम्हारी क्षमताओं का विस्तार
बाधित होगा
डरो।
सड़क पर आने से मत डरो
मत डरो कि वहाँ
कोई छत नहीं है सिर पर।
तुमने क्या महसूसा नहीं अब तक
कि अपराध और अँधेरे का गणित
एक होता है?
और अँधेरा घर के अन्दर भी
कुछ कम नहीं है।
डरना ही है तो अँधेरे से डरो
घर के अन्दर रहकर,
घर का अँधेरा,
बनने से डरो।..."