Tuesday, September 30, 2014

हँसना सुकून दे औ' न रोना सुकून दे ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

हँसना सुकून दे औ' न रोना  सुकून दे !
मुझको, मेरा वजूद न होना सुकून दे !!

आँखों से कूच कर गये ख़्वाबों के काफ़िले ,
पूरे सुकून में भी न सोना,  सुकून दे !

एक नूर की तलाश है गर्दो-गुबार में ,
अब चाँदनी का साथ न होना, सुकून दे !

यारब ! मैं आ गया हूँ कहाँ किस मक़ाम पर ,
मुझको तो अब सुकून न होना , सुकून दे !

कब से मुझे तलाश है उस बेक़रार की ,
जिसको मेरा सुकून में होना , सुकून दे !

हद से गुजर गये हैं हकीक़त के दायरे ,
आखों में कोई ख़्वाब न होना सुकून दे ! ,

बातें हुआ करें तमाम कायनात से ,
अपने से कोई बात न होना सुकून दे !

'सिन्दूर' की दुश्मन है ये दुनिया , तो क्यों इसे,
'सिन्दूर' का तबाह न होना , सुकून दे !

"बहुत अच्छी लगती हैं मेंड़ें खेतों की सचाई के लिए, - रमेश रंजक

"बहुत अच्छी लगती हैं मेंड़ें
खेतों की सचाई के लिए,

कितनी प्यारी लगती हैं कुर्सियाँ
भलाई के लिए,

बहुत मौजूँ लगती हैं दीवारें
घरों की सुरक्षा के लिए

बहुत भली लगती हैं खाइयाँ
किलों के आस-पास,

कितनी सुन्दर लगती हैं घाटियाँ
तराई के लिए

लेकिन...
ये मेड़ें, ये कुर्सियाँ, ये दीवारें...
मुझे हरगिज मंजूर नहीं
आदमी और आदमी के बीच..."

Saturday, September 27, 2014

तमाम प्रयासों के बाद भी टूटता नहीं वो - अनिल सिन्दूर

मित्र ,
तमाम प्रयासों के बाद भी
टूटता नहीं वो
हथोड़ों की चोट से भी नहीं
और न ही संवेदनाओं के आहत होने से
चोट दर चोट
और मजबूत हुआ है वो
लोहे की तरह !

प्रयास जारी रखना
क्यों कि तुम्हें नहीं मालूम
तुम हार गये तो
हार जायेगा वो भी !!


Friday, September 26, 2014

सुबह छूटी शामें साधते रहे हम तुम - नईम

सुबह छूटी
शामें साधते रहे हम तुम

धुन्धवाते सूरज रात-दिन
तापते रहे हम तुम

मंझली माँ संझली दी
बड़की भौजाई
बजरे बूढर ,  सांवरे पिता
बड़े भाई !
देवता सिराने
आराधते रहे हम तुम !

छाती पर धरी हुई
क्वारीं आशायें
ब्याही कम
ज्यादातर उम्ररसीदायें
लक्षमन रेखाओं से
बांधते रहे हम तुम









Thursday, September 25, 2014

रखो अपने विमर्श अपने पास - दिलीप वसिष्ठ

रखो अपने विमर्श अपने पास
रोज सुबह उठकर चपड चपड करते रहो।।
तुम्हे साधन भी मिले है
और संसाधन भी।।।
न तुम्हे नारित्व का पता है
न पौरूष का....
यह लिङ्ग भेद नही
उससे आगे की जीजिविषा है।।।
तुम लडते रहो
अपने सुख को अभिशाप करके...
हमे तो जीना है भाई......।।
न मुझे रोटी बनाने और बर्तन मलने
से आपत्ति है।।
और न उसे बोझा ढोने से.....
साहब ज़िन्दगी कौन सी
इत्र है
तुम्हारे संडास से पूछना।।।।
यहाँ तो
सडक के किनारे भी
मेंहदी के पौधे लगे है...
देखना है तो
सडक बनाने आ जाओ.....।।।

इंच - इंच सरक रहा है - मणि मोहन मेहता

इंच - इंच सरक रहा है
घाटी पर
सरियों से लदा हाथ ठेला
अपनी पूरी ताकत झोंक दी है
पसीने से लथपथ
उस ठेलेवाले ने
एक होड़ जारी है
भीतर के लोहे की
बाहर के लोहे के साथ
देखो
पसीना बह रहा है
झरने की तरह ।

बादल भी है, बिजली भी है, पानी भी है सामने - रमानाथ अवस्थी

बादल भी है, बिजली भी है, पानी भी है सामने
मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने

प्यास मुझे ही क्या, यह जग में सबको भरमाती है
जिसमें जितना पानी, उसमें उतनी आग लगाती है
आग जलती ही है, चाहे भीतर हो या बाहर हो
चलने वाले से क्या कहिये, पानी हो या पाथर हो

छांव उसी की है, जिसको भी गले लगाया घाम ने
मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने

मेरे चारों ओर लगा है , मेला चार दिशाओं का
जिसमें शोर बहुत है, कम है अर्थ ह्रदय के भाव का
मैं बिल्कुल वैसा ही हूँ, इस अंतहीन कोलाहल में
जैसी कोई आग ढूढती हो छाया दावानल में

मेरी जलन न जानी अब तक किसी सुबह या शाम ने
मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने

घन से लेकर घूँघट तक के आंसू से परिचय मेरा
हर आंसू की आग अलग है, एक मगर जल का घेरा
कोई आंसू दिखलाता है, कोई इसे छिपाता है
कोई मेरी तरह अश्रु को गाकर जी बहलाता है

आंसू क्या वे समझे, जिनको सोख लिया घन घाम ने
मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने
 



Tuesday, September 23, 2014

पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ीली चादर - आलोक श्रीवास्तव

पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ीली चादर
चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर

हसीं वादियों में महकती है केसर
कहीं झिलमिलाते हैं झीलों के ज़ेवर


है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र

यहां के बशर हैं फ़रिश्तों की मूरत

यहां की ज़ुबां है बड़ी ख़ूबसूरत
यहां की फ़िज़ा में घुली है मुहब्बत

यहां की हवाएं मुअत्तर-मुअत्तर
है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र

ये झीलों के सीनों से लिपटे शिकारे
ये वादी में हंसते हुए फूल सारे

यक़ीनों से आगे हसीं ये नज़ारे
फ़रिश्ते उतर आए जैसे ज़मीं पर

है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र
सुख़न सूफ़ियाना, हुनर का ख़ज़ाना

अज़ानों से भजनों का रिश्ता पुराना
ये पीरों फ़कीरों का है आस्ताना

यहां मुस्कुराती है क़ुदरत भी आकर
है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र

मगर कुछ दिनों से परेशान है ये
तबाही के मंज़र से हैरान है ये

पहाड़ों में रहने लगी है ख़मोशी
चिनारों के पत्तों में है बदहवासी

न केसर में केसर की ख़ुशबू रही है
न झीलों में रौनक़ बची है ज़रा-सी

हर इक दिल उदासी में डूबा हुआ है
हर इक दिल यहां बस यही कह रहा है-

संभालो-संभालो फ़रिश्तों का ये घर
बचा लो बचा लो ये जन्नत का मंज़र

हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी - निदा फाजली

हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी,
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी,

सुबह से शाम तक बोझ ढ़ोता हुआ,
अपनी लाश का खुद मज़ार आदमी,

हर तरफ भागते दौड़ते रास्ते,
हर तरफ आदमी का शिकार आदमी,

रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ,
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी,

जिन्दगी का मुक्कदर सफ़र दर सफ़र,
आखिरी साँस तक बेकरार आदमी

खिड़की पर आँख लगी देहरी पर कान - सोम ठाकुर

खिड़की पर आँख लगी देहरी पर कान
धूप भरे सूने दालान
हल्दी के धूप भरे दालान

पर्दों के साथ-साथ उड़ता है
चिड़ियों का खंडित-सा छायाक्रम
झरे हुए पत्तों की खड़-खड़ में
उगता है कोई मन-चाहा भ्रम
मंदिर के कलशों पर
ठहर गयी -
सूरज की काँपती थकान
धूप भरे सूने दालान

रोशनी चढ़ी सीढ़ी-सीढ़ी
डूबा मन
जीने के मोड़ों को
घेरता अकेलापन
ओ मेरे नंदन !

आँगन तक बढ़ आया-
एक बियावान.

 

Monday, September 22, 2014

दर्द जब हद से गुज़र जाता है...... - वीणा श्रीवास्तव

दर्द जब हद से गुज़र जाता है......
तो हो ही जाता है
दिल मे ठहर कर भारी .......
तो कभी
आँखों की कोर से चुपचाप बहकर, हल्का
माथे पर उभरी रेखाओं मे अनसुलझा
मस्तिष्क मे चढ़ा आशंकाओं की भेंट
तो कभी....
अधरों पर विरह गुनगुनाता गीत सा,
इश्क़ का मारा,मुफ़लिसी के समंदर सा खारा
ज़ेहन मे डूबता-उतराता नासमझ .....
बदमाश
कोई तो होगी दवा तेरी.........?

हवा ने बीज से नहीं पूछा था - दिनकर कुमार

हवा ने बीज से नहीं पूछा था
उसकी जाति के बारे में
उसके प्रान्त के बारे में
उसकी मातृभाषा के बारे में
और हवा
बीज को उड़ाकर ले आई थी

बीज मिट्टी के साथ
घुल-मिल गया था और
एक फूल के पौधे के रूप में
अंकुरित हुआ था

हवा की तरह चिड़िया भी
बीज से नहीं पूछती
निर्धारित प्रपत्र के प्रश्न
हवा की तरह चिडिय़ा भी
बीज से नहीं माँगती
सच्चे-झूठे प्रमाण-पत्र

और मनुष्य जड़ की तलाश में
उन्मादित हो जाता है
अतीत के मुर्दाघर में भटकता है
हवा की तरह
चिडिय़ा की तरह
और मिट्टी की तरह
सहज नहीं रह जाता

खून के लाल रंग को भूलकर
पीले और नीले
काले और भूरे रंग के भ्रम में
पंचतंत्र का शेर बन जाता है
मेमने पर पानी गंदा करने का
आरोप लगाता है
मेमने की सफ़ाई सुनकर
उसके पूर्वज को दोषी बताता है
और मेमने को दंडित करता है ।

Saturday, September 20, 2014

हर माँ अपनी कोख से - निदा फ़ाज़ली

हर माँ
अपनी कोख से
अपने शौहर को जन्मा करती है..,

मैं भी जब
अपने कन्धों से
बूढ़े मलबे को ढो-ढो कर
थक जाउँगा...!


अपनी महबूबा के
कुँवारे गर्भ में
छुप कर सो जाऊँगा..!!

Saturday, September 13, 2014

सिर्फ तिनकों के सहारे नहीं बनते घोंसले - मणि मोहन मेहता

घोंसला
------
सिर्फ तिनकों के सहारे
नहीं बनते घोंसले ....
देखो , जरा गौर से
इस स्रष्टि को
कुछ टूटे हुए पंख भी
दिख जायेंगे
यहाँ - वहां ।

कितनी रोशनी है फिर भी कितना अँधेरा है - सुशांत सुप्रिय

कितनी रोशनी है
फिर भी कितना अँधेरा है

कितनी नदियाँ हैं
फिर भी कितनी प्यास है

कितनी अदालतें हैं
फिर भी कितना अन्याय है

कितने ईश्वर हैं
फिर भी कितना अधर्म है

कितनी आज़ादी है
फिर भी कितने खूँटों से
बँधे हैं हम

मान लो, दुनिया के सभी खुदाओं भगवानों, मसीहाओ - वीरू सोनकर

मान लो,
दुनिया के सभी खुदाओं
भगवानों, मसीहाओ
अगर !
मरी हुई माँ के सिरहाने एक बच्चा दूध को रोता हैं
अगर , किसी घर का
इकलौता कमाने वाला दूर देश में गुमनाम मौत मरता हैं
अगर, एक मंदिर के बाहर
तुम्हे बुलाने को कोई अपना सर पटकता हैं

और तुम नहीं आते प्रभु !
अगर, एक मुस्लिम औरत
किसी दुपहर को चिल्ला देती हैं
ऒफ़्फ़ खुदाया !
गर ये नकाब ही नसीब था तो ये मेरे साथ ही पैदा क्यों नहीं किया !
और तुम चुप ही रहते हो
तो मान लो...
तुम नहीं हो
कहीं भी नहीं हो
अगर, तुम्हारे मंदिर के बाहर रोज झाड़ू लगाता बुढा,
रात को पीने के बाद बडबडाता हैं
मेरे दादा
मेरे पिता और मैं
और अब मेरा बेटा भी !
ये कहाँ फसाया हैं प्रभु !
अगर यही नसीब था
तो जात माथे पे लिख भेजते प्रभु !!
बूढ़ा रोता हैं और तुम मंदिर में ही बने रहते हो प्रभु !
मान भी लो !
तुम हमेशा से सिर्फ एक झूठ ही हो...
दुनिया का सच यही हैं
यहाँ हमेशा से बस दो ही धर्म थे, है, और रहेंगे,
मालिक और मजूर
दबंग और शोषित
खुदाओं भगवानों
मान भी लो
तुमने आज तक
उन गिरोहबंद मालिको को एक लिहाफ ही दिया हैं
धर्म के लिहाफ की आड़ में
खुद को सही साबित करते ये मालिक लोग,
आज भी,
किसी ताजा पैदा बच्चे की जात, धर्म तक नहीं बता पाते
मान भी लो प्रभु !
यही साबित करता हैं की तुम नहीं हो !

Thursday, September 11, 2014

हिल नही रहा बारहसिंघा - सुलाक्षणा दत्ता


हिल नही रहा
बारहसिंघा
सूरज की गेंद
उठाये सर पे
कह रहा दुनिया को
देखो
मैं~~~~मैं सवेरा लाया.....
सोच रहा.....
कहीं गिर न पड़े सूरज.....
थामे खड़ा सांस....
बघार रहा शान.....!


किरणों ने बनाया घेरा
उसके सींगों में फँस
सूरज को सरकाया
तब समझ आया....
ऊपर था चढ़ आया....
रवि तो स्थिर था.........!
उतरने में समय नहीं लगेगा....
किसी ने समझाया........!!!

प्यार में डूबी हुई लड़कियां - मनीषा पाण्डेय

यूं तो मनीषा के परिचय में काफी चीजें कही जा सकती हैं। वो पेशे से पत्रकार हैं, राइटर हैं, ब्‍लॉगर हैं, फेसबुक पर स्त्रियों की उभरती हुई सशक्‍त आवाज हैं, लेकिन इन सबसे ज्‍यादा और सबसे पहले वह एक आजाद, बेखौफ सपने देखने वाली स्‍त्री हैं। रोजी-रोटी के लिए पत्रकारिता करती हैं, लेकिन बाकी वक्‍त खूब किताबें पढ़ती हैं, घूमती हैं, फोटोग्राफी करती हैं और जीती हैं। उनकी जिंदगी एक सिंगल और इंडीपेंडेंट औरत का सफर है, जिसने इलाहाबाद, मुंबई और दिल्‍ली समेत देश के कई शहरों की खाक छानी है। मनीषा पूरी दुनिया की सैर करना चाहती हैं। मनीषा का परिचय इन दो शब्‍दों के गिर्द घूमता है - आजाद घुमक्‍कड़ी और बेखौफ लेखन।

रेशम  के दुपट्टे में टांकती  है सितारा 

देह मल-मल के नहाती है 
करीने से सजाती हैं बाल
आँख में काजल लगाती हैं 
प्यार में डूबी हुई लड़कियां ......

मन ही मन मुस्कराती हैं  अकेले में 
बात बेबात चह्कती 
आईने में निहारती छातियाँ  को 
कनखियों से 
खुद ही शरमाकर नजरें फिराती हैं 
प्यार में डूबी हुई लड़कियां ......


डाकिये का करती इंतजार 
मन ही मन लिखती हैं जबाब 
आने वाले ख़त का 
पिछले दफे मिले एक चुम्बन की स्मृति 
हीरे की तरह सजोती है अपने भीतर
प्यार में डूबी हुई लड़कियां ......

प्यार में डूबी हुई ये लड़कियां 
नदी हो जाती हैं 
और पतंग भी 
कल कल करती बहती हैं  
नाप लेती हैं सारा आसमान 
किसी रस्सी से नहीं बंधती 
प्यार में डूबी हुई लड़कियां ...... 
 

नहीं जानता मैं कहाँ हो तुम - ब्रह्मदेव बन्धु

नहीं जानता मैं
कहाँ हो तुम
किस शहर की किस गली में
बनाया है तुमने
आशियाना अपना
नहीं जानता मैं
हवा का कौन-सा आवारा झोंका
घुस आया था
तुम्हारे कमरे में
और अपने साथ लाये पंखों को
लगा दिया था
तुम्हारे बदन पर
उड़ गयी थी तुम
उसके साथ
आकाश की अनन्त ऊँचाइयों की ओर
और चाहकर भी
रोक नहीं पाया था मैं
तुम्हारी उड़ान को
नहीं जानता मैं
क्यों हुआ यह सब
बसंत की सुहानी शाम
क्यों बन गयी
पूस की कंपकपाती रात
कर्कश क्यों हो गयी
कोयल की कूक
उड़ते रंग-बिरंगे गुलाल
क्यों तब्दील हो गये
राख़ में
नहीं जानता मैं
कौन मुस्कुराता है अब
तुम्हारी मुस्कुराहट के साथ
कौन हँसता है
तुम्हारी हँसी के साथ
किसकी काँपती उँगलियाँ
स्पर्श करती है
तुम्हारी छुअन को
तुम्हारी आँखों की
अथाह गहराइयों को
कौन थाहता है
बार-बार
देर रात तक
मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ
दूर, बहुत दूर चली गई हो तुम
वहाँ, जहाँ पहुँच नहीं पाऊँगा मैं
बिना पंखों के
और पंख
जो मिल नहीं पायेंगे मुझे
सदियों तक
इसीलिए तो
अब-तक सहेज कर रखे हैं मैंने
तुम्हारी पायल की रूनझुन
तुम्हारे कदमों की आहट
तुम्हारी हथेलियों की गर्माहट
और तुम्हारे बदन की ख़ुशबू को
ताकि,
सबकुछ खोकर भी
कुछ तो महफूज़ रह सके
मेरे पास।

Wednesday, September 10, 2014

मैं जब भी आराध्य भाव में देखता हूँ शिवलिंग - विशाल कृष्ण सिंह

मैं जब भी
आराध्य भाव में देखता हूँ
शिवलिंग
तो अंतः गहरे महसूसता हूँ
श्रृष्टि के अकाट्य सत्य को ,
रचना की संस्कृति की
साहचर्य के सम्मान को |

आश्चर्य से महसूसता हूँ
कि कितने गहरे जुड़े है
स्त्री पुरुष का सम्बंध
सृजन में
जनन में
रचना में
निराशा से देखता हूँ
अपने आस पास
विकृति
सच
भ्रम
असम्मान
कि मिलन तो
एक प्रार्थना है
आत्मिक स्वीकृति है
एक जिम्मेदारी है
जननी के सच्चे स्वरूप के प्रति
बेहद जरूरी है हमारा
सम्बन्ध में शिव होना
और देख पाना
अपने देह में छिपी आधी स्त्री |

Tuesday, September 9, 2014

वो बंद कर लेना चाहता है - अनिल सिन्दूर

वो बंद कर लेना चाहता है
दरवाजे
और बैठना चाहता है
ख़ामोश
सुनने को अनकही आवाज़े
जो गूंजती रहती हैं
वे-आवाज़ बेहद करीब


वो बंद कर लेना चाहता है
कपाट
करना चाहता है अट्टहास
और हो जाना चाहता है शांत
बेहद शांत
सुनने को अनकही अन्दर की
आवाज़ 

मैं सलाम करता हूँ - अवतार सिंह संधू 'पाश'

मैं सलाम करता हूँ
आदमी के मेहनत में लगे रहने को

मैं सलाम करता हूँ
आने वाले खुशगवार मौसमों को

मुसीबतों से पाले गये प्यार जब सफल होंगे
बीते वक्तों का बहा हुआ लहू

जिन्दगी की धरती से उठाकर
मस्तकों पर लगाया जायेगा


मिट्टी नहीं करती भेदभाव - अनुलता राज नायर

" भेदभाव "
मिट्टी नहीं करती भेदभाव
अपने भीतर दबे बीजों पर...
होते हैं सभी बीज अंकुरित
और लहलहाते हैं
फूलते हैं, खिलते हैं....

मनुष्य ऐसा नहीं है !
वो मसल देता है
उन बीजों को
जिनसे जन्मती हैं बेटियाँ ...
ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि दी,
मनुष्य ने
स्वयं को ईश्वर बना लिया |

ईश्वर के आंसुओं से भीगती हैं मिट्टी
अन्खुआते हैं बीज,
मनुष्य का मन नहीं भीगता
न आंसुओं से न रक्त से !

Monday, September 8, 2014

पानी को सिलती रहतीं हैं मछलियाँ - हेमंत देवलेकर

पानी को सिलती रहतीं हैं मछलियाँ

इसलिए पानी कभी नहीं उघड़ता या

फटता नहीं

और मछलियों को पता नहीं चलता

कि वे कब धागे बन गयीं हैं


संभावनाएं - आत्मा रंजन

देखी ही जानी चाहिये
हमारे आसपास
हर संभव
देखी जायेंगी
तभी बच पाएंगी
संभावनाएं

जैसे बीज के भीतर
रहता है पेड़
अंडे के भीतर
आकाश व्यापी उड़ान

देखी जायेंगी
तभी बच पाएंगी









कभी बरगद के नीचे उगना मत - मोहन कुमार नागर

कभी बरगद के नीचे
उगना मत

उगे तो जूझना
हारना मत

उतार देना
गहराई तक जड़ें

छोड़ना मत
अपने हिस्से का जीवन रस


Sunday, September 7, 2014

नव युग का निर्माण करेंगे , ज्योतिर्मय संधान करेंगे ! - डॉ . सत्यकाम पहारिया

नव युग का निर्माण करेंगे , ज्योतिर्मय संधान करेंगे !
भारत माँ के यशोगान का सब मिलकर गुणगान करेंगे !!

मानव-मानव सभी एक हैं , किन्तु सभी की राह अलग है !
जीवन का उत्कर्ष कराने की सब में बस चाह एक है !
मात्र-भूमि को देव-भूमि में परिवर्तन की चाह एक है !
देव-संस्कृति के पालन हित हम सब मिल अनुदान करेंगे !

नव युग का निर्माण करेंगे , ज्योतिर्मय संधान करेंगे !

एक राग है , एक रंग है , एक गीत की ताल एक है !
भारत माता जग विख्याता , उसकी आसन वही एक है !
हम सब शोणित बहां चुके हैं , बंधन काटे , मुक्त किया है !
गुरु-पद का सिंहासन पाने को उद्यत हैं , संज्ञान करेंगें !

नव युग का निर्माण करेंगे , ज्योतिर्मय संधान करेंगे !

दुनिया की यह रीति नयी है , व्यक्ति-व्यक्ति की चाह यही है !
भारत होवे जग विख्याता , दुनिया के कष्टों का त्राता !
नहीं किसी से दबे हुए हैं , नहीं किसे से डरे हुए हैं !
नहीं किसी को दुःख दिया है , नहीं किसी का हरण करेंगें !

नव युग का निर्माण करेंगे , ज्योतिर्मय संधान करेंगे !

राम-कृष्ण की जन्म भूमि यह , हम सब की ये पावन धरती !
यहाँ कृष्ण ने गीता गाई , और राम ने अलख जगाई !
कर्तव्यों को पूरा करने , मर्यादा रख खूब निभाई !
ध्येय निष्ठ हैं , कर्म करेंगे , झंझाओं को दूर करेंगे !

नव युग का निर्माण करेंगे , ज्योतिर्मय संधान करेंगे !
भारत माँ के यशोगान का सब मिलकर गुणगान करेंगे !!

Saturday, September 6, 2014

इतवार और तानाशाह - मणि मोहन मेहता

आज इतवार है
अपने घर पर होगा तानाशाह
एकदम अकेला...

क्या कर रहा होगा ? ? ?
गमलों में लगे
फूलों को डांट रहा होगा ! ! !
हाथों में कैंची लिए
लताओं के पर कतर रहा होगा ! ! !
खीझ रहा होगा बीवी पर ! ! !
या फिर अपने कुत्तों से
चटवा रहा होगा तलुवे ! ! !
क्या आज फिर
टूटा होगा
उसके घर में एक आईना ?
क्या आज फिर चीख - चीख कर पूछ रहा होगा -
किसने तोड़ा है ये आईना ?
पता नहीं तानाशाह
इस वक्त अपने घर पर
किस तरह
मना रहा होगा इतवार ? ? ?

Friday, September 5, 2014

जेपी के वक्त में लिखी धर्मवीर भारती की एक कविता .... आज के हिन्दुस्तान के नाम

खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढा़कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है
 

शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाये
 

जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है !
 
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों ! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छाँह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है ?


आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…

तोड़ दिये जाएँगे पैर
और फोड़ दी जाएँगी आँखें
अगर तुमने अपने पाँव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर
अन्दर झाँकने की कोशिश की
 

क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवाँमर्दी की दाद दें

अब पूछो कहाँ है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ? 

हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए
 

नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।

ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी 
कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुँचो

इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मँझधार में रोक दी जाएँगी
बैलगाड़ियाँ सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएँगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है
वहीं ठप कर दिया जाए
 

बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो !
वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में 

और 
 सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से बहा, 
वह पुँछ जाए

बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं

तुम्हारे कुर्तों की लकालकी कलफ़ से - संजीबा

तुम्हारे कुर्तों की लकालकी कलफ़ से
झुग्गी के बच्चों  की
आँखों की रोशनी चली गई ,
तुम्हारे भाषणों से
मेरी बस्ती के लोगों के
कान के परदे कनपटी पर
चू-कर इस कदर बहे
कि उनकी जिन्दगी
अपनी ही आवाज़
सुनने को तरस गई
और अंत में तुम्हारे जूतों
के वजन से
आम आदमी का पेट
पीठ से क्या मिला
बेचारों की जीभ तक निकल गई ,
अब तो हर आदमी
रोज सूरज निकलते वक्त
हाथ जोड़ कर अपनी मौत तक
सकुचाकर मांगता है-सिर्फ
ये सोचकर कि शायद
इसे भी तुम देने से
इंकार न कर डॉ कहीं

Thursday, September 4, 2014

दो रचनायें प्रो.शरद नारायण खरे की ............

फर्ज़
---
नेताजी
जनकल्याण
निभा
रहे हैं
जन
की गणना
में
सबसे पहले
ख़ुद को
पा
रहे हैं ।।



बहुत ख़ूब
-------
वे
ऊपरी कमाई
को
हाथ भी
नहीं
लगाते हैं
इसलिए
उनके मातहत
अटैची में
भरकर
लाते हैं ।।

Wednesday, September 3, 2014

मौन शब्द कागज़ पर उतरते ही बोलने लगते हैं - सुमित्रा पारीक

मौन शब्द कागज़ पर उतरते ही बोलने लगते हैं
चुप भी कब रहते जब भीतर रहते हैं
जितनी मन की रफ़्तार उतना ही
शब्दों का सफ़र तय है
एक तयशुदा काम कर के
संतुष्ट होना
कुछ नहीं कह के भी जीतना है खुद से
मेरे शब्द भी समझा नहीं पाते तुम्हें
और खोमोशियाँ भी
कमी मुझमें है या
इस खोखले होते जोड़ में
वो यकीन बेशक मुर्दा हो जाता है जब
जीवन की बांसुरी से
फूँक मारने पर भी सुर नहीं
सनसनाहट या सीटियाँ
सुनाई देती ....जो कानों को
खीचती है अन्दर की ओर
कि बस अब न सुनो !!
और न ही सुनाने का प्रयास करो
शायद कभी मौन के खाली
खेत में, शब्द अंकुरित हो
और खुशियों की फसल
लहलहाए .........

मैं सुख पर सुषमा पर रीझा , इसकी मुझको लाज नहीं है - हरिवंश राय बच्चन

मैं सुख पर सुषमा पर रीझा
इसकी मुझको लाज नहीं है

भीतर बहता गंगा जल हो
होंठ कहें पर पानी पानी

चलती-फलती है दुनिया में
बहुधा ऐसी बेईमानी

मेरे पूर्वज किन्तु
ह्रदय की सच्चाई पर मिटते आये

मधुबन भोगे मरू उपदेशे
मेरे वंश रिवाज नहीं है

मैं सुख पर सुषमा पर रीझा
इसकी मुझको लाज नहीं है


हिलाओ पूँछ तो करता है प्यार अमरीका । - जनकवि बल्ली सिंह चीमा

आज जनकवि बल्ली सिंह चीमा 62 साल के हो गए। उनको जन्मदिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ। प्रस्तुत है उनकी बेहद प्रसिद्ध कविता।

हिलाओ पूँछ तो करता है प्यार अमरीका ।
झुकाओ सिर को तो देगा उधार अमरीका ।

बड़ी हसीन हो बाज़ारियत को अपनाओ,
तुम्हारे हुस्न को देगा निखार अमरीका ।



बराबरी की या रोटी की बात मत करना,
समाजवाद से खाता है ख़ार अमरीका ।

आतंकवाद बताता है जनसंघर्षों को,
मुशर्रफ़ों से तो करता है प्यार अमरीका ।

ये लोकतंत्र बहाली तो इक तमाशा है,
बना हुआ है हक़ीक़त में ज़ार अमरीका ।

विरोधियों को तो लेता है आड़े हाथों वह,
पर मिट्ठूओं पे करे जाँ निसार अमरीका ।

प्रचण्ड क्रान्ति का योद्धा या उग्रवादी है,
सच्चाई क्या है करेगा विचार अमरीका ।

तेरे वुजूद से दुनिया को बहुत ख़तरा है,
यह बात बोल के करता है वार अमरीका ।

स्वाभिमान गँवाकर उदार हाथों से,
जो एक माँगो तो देता है चार अमरीका ।

हरेक देश को निर्देश रोज़ देता है,
ख़ुदा कहो या कहो थानेदार अमरीका ।

भीगी हुई आँखों का ये मन्ज़र न मिलेगा - बशीर बद्र

भीगी हुई आँखों का ये मन्ज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा

फिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा

आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा


इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें
बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा


ये सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा