Friday, October 31, 2014

मेरे भव्य ड्रांइगरूम मेँ झुर्रियोँ से भरे पोपले मुँह वाले बूढ़े पिता - लवनीत सिंह

मेरे भव्य ड्रांइगरूम मेँ
झुर्रियोँ से भरे पोपले मुँह वाले
बूढ़े पिता
कहीँ भी समा नहीँ पा रहे थे
भद्र अतिथियों के सामने
मैँ नहीँ होना चाहता था लज्जित
इसीलिए मैँने उन्हेँ घर के किसी कोने मेँ छिपा दिया
मैँने मुस्कान ओढ़े अतिथियों का स्वागत किया
सजे हुए भव्य ड्रांइगरूम को
अतिथि ने प्रंशसा भरी नजरो से देखा
सामने आले मेँ रखी
सुनहरे फ्रेम मेँ जड़ी तस्वीर को देखकर
(जिसे मैँ भूलवश छिपाना भूल गया था )
अतिथि ने जिज्ञासावश पूछा
यह तस्वीर क्या आपके पिता की है ?
मैँने लगभग हकलाते हुए कहा- "हाँ"
जैसे हु-ब-हू आपकी तस्वीर हो
कितनी मिलती है आपकी शक्ल आपके पिता से
मुझे लगा मैँ भी बूढ़ा हो चुका हूँ
और आने वाली पीढ़ी मुझे भी कहीँ छिपा देना चाहती है...

सच तुम बहुत देर तक सोये ! - मुकुट बिहारी 'सरोज'

सच तुम बहुत देर तक सोये !

इधर यहाँ से , उधर वहाँ तक ,
धूप , चढ़ गई कहाँ-कहाँ तक ,
लोंगों ने सींची फुलवारी
तुमने अब तक बीज न बोये !

दुनिया जगा-जगा कर हारी ,
ऐसी कैसी नींद तुम्हारी ,
लोंगों की भर चुकी उड़ानें
तुमने सब संकल्प डुबोये !

जिनको कल की फ़िक्र नहीं है ,
उनका आगे , जिक्र नहीं है ,
लोंगों के इतिहास बन गये
तुमने सब सम्बोधन खोये !

Thursday, October 30, 2014

होंठों पे हंसी है न तो आँखों में नमी है - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

उस शख्स की औकात में आई न कमी है !
थोड़े से वसीक़े से बड़ी बात बनी है !!

उजड़ी हुई बस्ती में तेरी याद बसी है ,
एक कालकोठरी में रौशनी-सी जली है !

उसके खुदा के बीच कोई और नहीं था ,
मुझको नज़र में उसकी इक मूरत-सी दिखी है !

हम दोनों के कलाम में इतना-सा फ़र्क है ,
मैंने ग़ज़ल कही है , ग़ज़ल तूने लिखी है !

सुर मेरा मिले कैसे , बेसुरे जहान से ,
हर साँस मेरी वीणा के सरगम में ढली है !

अए रूह मेरी ! मौत को इतना तो बता दे ,
किस सिम्त से आई थी , तू किस सिम्त चली है !

होंठों पे हंसी है न तो आँखों में नमी है ,
'सिन्दूर' की हालत न भली है , न बुरी है !

ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है - वसीम बरेलवी

ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है !
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है !!

ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते !
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है !!

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं !
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है !!

ज़मीं की कैसी वक़ालत हो फिर नहीं चलती !
जब आसमां से कोई फ़ैसला उतरता है !!

तुम आ गये हो तो फिर चाँदनी सी बातें हों !
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है !!

Tuesday, October 28, 2014

अरे ओ, समाज को राह दिखाने वाले ठेकेदारो - अनिल सिन्दूर

अरे ओ,
समाज को राह  दिखाने वाले  ठेकेदारो
न बोये होते यदि कड़बे बीज
जिन्होनें बढ़ा दी खायी
बीच उनके जो हुआ करते थे करीब
तो पूजे जाते तुम
जो बोया है वही काटना है तुम्हें
जिन्होनें तुम्हारे चरणों को दिया था
एक ऐसा आवरण जो सुरक्षित रख सके उन्हें
तुमने दंभ में, उसके सर पर ही
उन्हें रखने का अपराध कर डाला 

Monday, October 27, 2014

दो-चार बार हम जो कभी हंस-हंसा लिए ! - कुंअर बेचैन

दो-चार बार हम जो कभी हंस-हंसा लिए !
सारे  जहाँ  ने  हाथ में  पत्थर  उठा लिए !

रहते  हमारे  पास  तो  ये  टूटते  जरुर ,
अच्छा किया जो आपने सपने चुरा लिए !

सुख, बादलों में जैसे नहाती हों बिजलियाँ ,
दुःख, बिजलियों की आग में बादल नहा लिए !

जब हो सकी न बात तो हमने यही किया ,
अपनी ग़ज़ल के शेर कहीं गुनगुना लिए !

अब भी किसी दराज़ में मिल जायेंगे 'कुंअर',
वो ख़त जो तुमको दे सके लिख-लिखा लिए !

Sunday, October 26, 2014

सख्त चट्टानों सी जिन्दगी के बीच - सुवर्णा दीक्षित

माँ

सख्त चट्टानों सी
जिन्दगी के बीच
झांकती हुई
नर्म धूप सी

ठिठुरती - काँपती
बेरहम सर्दियों में
कटोरी भर धूप सी

घने काले
बादलों में से
झांकती - मुस्कराती
किसी किरण सी

ऐसी ही हो तुम

तुम हो
तो लगता है
जिन्दा हैं उम्मीदें
जिन्दा है ईश्वर










Saturday, October 25, 2014

इन दिनों ना जाने क्या धंस गया है - विशाल कृष्ण

इन दिनों
ना जाने क्या धंस गया है
अचानक से
सीने के बीचों बीच
कि
एक शुन्य फैलता जा रहा है मुझमें
कि बातें तो अभी भी बहुत है
जो तुमसे कहनी है
बहुत कुछ बाकी है
जो तुम संग बांटने की चाह है
पर कोई है मुझमें
जो थक गया है
शब्दों के पीछे भाग भाग कर
जो थोडा ठहर जाना चाहता है
चुप्पियों के बीच ,
कविताएँ आँखों में रख
तुम्हें देखने की चाह
होंठों पर उगी टेढी सी लकीरें
और एक ख्वाहिश
कि किसी दिन
तुम इस सब कविताओं को पढ़ोगे,
मेरी दोस्त ,
आओ ना
पढो
मुझ में बह रही खामोश कविताओं को
कि यहाँ
सिर्फ मैं हूँ
तुम हो
कही कोई
कुछ तीसरा नहीं

चिंदी चिंदी सुख हैं थान बराबर दुःख हैं - दिव्या शुक्ला

चिंदी चिंदी सुख हैं
थान बराबर दुःख हैं
चलो टुकड़ों में फाड़ें
दुःख के इस थान को
बीच बीच में सुख की
चिंदिया लगा कर
एक पैबन्दो वाली चादर सिलें
पत्थरों के बिस्तर की सलवटें
अपने हाथों से मिटायें -
फिर यही चादर ओढ़ कर
चलो उस पत्थर पर लेट जाएँ
हम दोनों ------
मै च्युंगम चबाऊंगीं
तुम सिगरेट सुलगा लेना
उसके धुंये में उड़ा देना
सारे गम गिले शिकवे
लेकिन बस आज ही
तुम्हे पता है न ----
मै हमेशा ही कहती हूँ
सुनो !सिगरेट मत पिया करो
पर तुम न सुनते ही कहाँ हो
अच्छा बस उँगलियों में ही
फंसा कर रखो न अब -
जरा स्मार्ट से लगते हो जी
और मै अपनी सारी खीझ
च्युंगम चबा चबा कर ही
निकाल दूंगी ---

Friday, October 24, 2014

अपनी आदत है , चुप रहते हैं या फिर बहुत खरा कहते हैं ! - शिव ओम अम्बर

अपनी आदत है , चुप रहते हैं या फिर बहुत खरा कहते हैं ! 
हमसे लोग ख़फ़ा  रहते हैं !

आंसू नहीं छलकने देंगे - ऐसी कसम उठा रक्खी है,
होंठ नहीं दाबे दांतों से,  हमने चीख दबा रक्खी है,

माथे पर पत्थर सहते हैं , छाती पर खंज़र सहते हैं !
पर कहते पूनम को पूनम, मावस को मावस  कहते हैं !
हमसे लोग ख़फ़ा  रहते हैं !

हम तो इस ख़ुद्दार  ज़िंदगी  के मानी  इतने  ही मानें,
 जितनी गहरी चोट अधर पर उतनी ही मीठी मुस्कानें,

फ़ाक़े-वाले दिन को पावन एकादशी  समझ गहते हैं !
लेकिन  मुखिया की ड्योढ़ी पर जा आदाब नहीं कहते हैं !
हमसे लोग ख़फ़ा  रहते हैं !

हम स्वर हैं झोपड़पट्टी के रंग महल के फ़ाग नहीं हैं ,
आत्म कथा बाग़ी लपटों की गन्धर्वों के राग नहीं हैं ,

हम चराग़ हैं रात-रात भर दुनिया की खातिर दहते हैं !
अपनी तैराकी उल्टी है धारा में मुर्दे बहते हैं !
हमसे लोग ख़फ़ा  रहते हैं !




Tuesday, October 21, 2014

यदि बंद करना है तो जाओ - शिखा वार्ष्णेय

यदि बंद करना है तो जाओ
पहले घर का एसी बंद करो.
हर मोड़ पर खुला मॉल बंद करो
२४ घंटे जेनरेटर से चलता हॉल बंद करो.
नुक्कड़ तक जाने लिए कार बंद करो
बच्चों की पीठ पर लदा भार बंद करो.
नर्सरी से ही ए बी सी रटाना बंद करो
घर में चीखना चिल्लाना बंद करो.
बच्चों से मजदूरी करवाना बंद करो
कारखानों का प्रदुषण फैलाना बंद करो.
मंदिर में रोज शाम का कीर्तन बंद करो
मस्जिद में रोज सुबह की अज़ान बंद करो.
कचरा कम करो, यहाँ वहां टपकाना बंद करो
उसे पडोसी के दरवाजे पर फैलाना बंद करो.
बाउंड्री बढ़ाकर सरकारी जमीन हथियाना बंद करो
बिना जरुरत तीन माले का घर बनाना बंद करो.
लड़कों को खुला सांड सा छोड़ना बंद करो
लड़कियों पर प्रतिबन्ध लगाना बंद करो.
ये सब रोज करो पूरा साल करो
सिर्फ एक दिन जिम्मेदारी का न प्रचार करो.



Monday, October 20, 2014

मेरा बाप - बुरा माने - संजीबा कानपूर

 मेरा बाप -  बुरा माने
 तो मान जाये ,
मैंने तो उन्हें कल फिर
साफ-साफ बोल दिया कि
अपनी मौत के बाद
घाट तक जाने का
अपना इंतजाम कर लेना ,
क्यों कि - सम्बन्ध
हमारे आप के बीच अपनी जगह
लेकिन किसी भी हालत में
मेरे जिन्दा कन्धों पर
मरे हुये  लोग नहीं चल सकते !

उठती हो ढलती हो यूँ ही मचलती हो - नीलू 'नीलपरी'

लहरें
उठती हो ढलती हो
यूँ ही मचलती हो
सागर के दिल से उभरती
ए लहरों तुम भी मेरे जैसी हो

तूफ़ान सा उठाती
बस खुद पे इतराती
कहीं गहरी कहीं ठहरी हो
ए लहरों तुम भी मेरे जैसी हो
कहाँ है उद्गम
कहाँ है संगम
अनजान डगर पे चलती हो
ए लहरों तुम भी मेरे जैसी हो
फिर मचली इक लहर
भटक गयी अपना सफ़र
क्यूँ हो, कैसी हो तुम अशांत
ए लहरों तुम भी मेरे जैसी हो

Saturday, October 18, 2014

मेरे छूने से तुम हो जाते हो - अवज्ञा अमरजीत गुप्ता

मेरे छूने से तुम हो जाते हो
अपवित्र-अशुद्ध...
और जरूरी हो जाता है
तुम्हारा नहाना...
खुद को कोसूं ,रोकूँ उस पीढ़ी का नहीं हूँ मैं...
मैं तुम्हें तब-तक छूता रहूँगा
जब-तक सर्दी जुकाम से तुम मर ना जाओ

तुम आये तो सावन आया , गये उठा तूफ़ान ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

तुम आये तो सावन आया , गये उठा तूफ़ान !
जल में तैरे रेगिस्तान !

कुछ कहना हो , कुछ कह जाँऊ ,
दिन-दिन-भर घर में  रह जाँऊ ,
ताज महल जैसा लगता है कलई पुता मकान !
जल में तैरे रेगिस्तान !

दर्पण देखूं , देख न पाऊँ ,
अर्थहीन गीतों को गाऊँ ,
सूरज डूबे ही  पड़  जाऊँ , सर से चादर तान !
जल में तैरे रेगिस्तान !

सोते में चौकूँ , डर जाऊँ ,
साँस  चले , लेकिन मर जाऊँ ,
सिरहाने रखने   खोजूँ , आधी रात कृपान !
जल में तैरे रेगिस्तान !

मुश्किल से हो कहीं सबेरा ,
चैन तनिक पाये जी मेरा ,
जैसे-जैसे धूप चढ़े , होता  जाऊँ नादान !
जल में तैरे रेगिस्तान !


Tuesday, October 14, 2014

"गाँधी" तुम्हारा अहिंसा का पाठ - संजीबा

"गाँधी" तुम्हारा अहिंसा का पाठ
कृष्ण अगर मानते - तो
महाभारत ही न हो पाता,
और धर्म पर अधर्म की
विजय हो जाती .............

"गाँधी" तुम्हारी अहिंसा की बात पर
राम अगर चलते - तो
युद्ध रोककर
सीता - रावण को ही सौंप कर
तसल्ली कर लेते .................

"गाँधी" तुम्हारी ग़लतफ़हमी है - कि
तुम्हारा अहिंसा का पाठ
दुनियां में पढ़ा जा रहा है
गाँधी सच तो ये है कि
तुम्हारा अहिंसा का प्रचार
सिर्फ वे लोग कर रहे हैं
जिन्हें खौफ है कि
भूखी-खूंख्वार भीड़
अपने हक़ के लिए कहीं एक दिन
उनकी देह पर आक्रमण न कर दें ...........

Monday, October 13, 2014

मुझे बचाओ एक दिन वो मेरी ही नजरों के सामने - अनिल कार्की

"मुझे बचाओ एक दिन वो मेरी ही नजरों के सामने
बना देंगे मुझे अपना सबसे प्यारा वफादार कुत्ता
वो मेरी पूँछ काट देंगे
इसलिए कि वो सीधी नहीं हो सकती
क्योंकि वह टेड़ी ही रहने को प्रतिबद्ध है
आज भी!

एक दिन, एक किसी भी दिन
वो मेरी आवाज बेच देंगे
एक दिन वो मेरी नज़र बेच देंगे
मेरी आँखों के समन्दरों पे वो उगा देंगे नागफनी
मुझे बचा लो मेरे बंधु!
मैं विश्व की सबसे संकटग्रस्त प्रजाति का
मुँहफट आदमी हूँ...."

Wednesday, October 8, 2014

वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं - अविनाश मिश्र

वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें कोई हताहत नहीं होता
आग पर काबू पा लिया गया होता है
और सुरक्षा व बचावकर्मी मौके पर मौजूद होते हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें तानाशाह हारते हैं
और जन साधारणता से ऊपर उठकर
असंभवता को स्पर्श करते हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें मानसून ठीक जगहों पर
ठीक वक्त पर पहुंचता है
और फसलें बेहतर होती हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें स्थितियों में सुधार की बात होती है
जनजीवन सामान्य हो चुका होता है
और बच्चे स्कूलों को लौट रहे होते हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
इतनी अच्छी कि शायद खबर नहीं होतीं
इसलिए उन्हें विस्तार से बताया नहीं जाता
लेकिन फिर भी वे फैल जाती हैं..."

"मुखौटों से झाइयाँ नहीं छिपतीं - मदन कश्यप

"मुखौटों से झाइयाँ नहीं छिपतीं
पूरा का पूरा चेहरा छिप जाता है
सबको पता चल जाता है
कि सब कुछ छिपा दिया गया है
भला ऐसे छिपने-छिपाने का क्या मतलब
छिपो तो इस तरह
कि किसी को पता नहीं
चले कि तुम छिपे हुए हो
जैसे कोई छिपा होता है हवस में
तो कोई अवसरवाद में
कुछ चालाक लोग तो
विचारधारा तक में छिप जाते हैं
कोई सूचनाओं में छिप जाता है
तो कोई विश्लेषण में
कोई अज्ञान में तो कोई इच्छाओं में..."

Tuesday, October 7, 2014

रेतीले दिन काटे पपिहे ने - गीता चौहान मोब. 9919086565

रेतीले दिन काटे पपिहे ने
एक नेह-बिंदु सहारे से !

स्वप्न के कपोत को पकड़ने में
श्वास-श्वास उम्र की गंवाई ,
करता गलती सौ-सौ बार वो
जिसने सौ बार कसम खाई,

क्षीण हुआ बासंती मौसम यों,
उतर जाय ऊष्मा ज्यों पारे से !

उन्मन मन खोजता फिरा नित ही
शांति -पूत भावना संजोये
घूमा मन पंथ में अकेले ही
प्रीत के अमोल बीज बोये,

अंतर्मन के भवन संजे-संवरे,
नींव सधी अश्रु सने गारे से !

एक रूप दृगों में तिरा जब से
छवि ने आकृति जब से पायी है,
बिन बोले प्रीति मुखर होती है
सपनों की बेल महमहायी है,

संबोधन ऊंचे आकाश चढ़े
चाह बंधी सिन्धु के किनारे से !

Saturday, October 4, 2014

मुझमे तो खैर हिम्मत है हर दर्द सहने की ! - शशि जैन

मुझमे तो खैर हिम्मत है हर दर्द सहने की !
तुम इतने गम देते हो ..थक नहीं जाते !!

कोई रिश्ता ना होता तो तुम खफा क्यूँ होते !
ये बेरुखी तुम्हारी मोहब्बत का पता देती है !!

मेरी तन्हाई को ज़रूरत है तुम्हारी बहुत !
अगर इज़ाज़त हो तो यादों में बसा लूं तुमको !!

आज और कुछ नहीं बस तुम इतना सुन लो !
अगर मैं हूँ तनहा तो वजह तुम हो !!

क्यों शर्मिंदा करते हो हमारा हाल पूछ कर !
हाल हमारा वही है जो तुमने बना रखा है !!

काश इस बार पलट जाये बाज़ी सारी !
तुम्हे तलब हो मेरी और मैं बेवफा हो जाऊं !!

तुम्हे याद ना करूँ तो थम सी जाती हैं साँसे !
ज़िन्दगी सांसो से है या तुम्हारी यादो से !!

सुनो ऐ नरम दिल लड़कियों -- दिव्या शुक्ला

सुनो ऐ नरम दिल लड़कियों
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रुई के फाहों सी नरम दिल लड़कियों
जरा सा सख्त भी हो जाओ --वरना
खतम हो जाएगा तुम्हारा वज़ूद
इसी तरह दोयम दर्जे का जीवन जीती रहोगी
याद करो कभी अपने ही घर में सुना होगा न
किसी को बार बार यह कहते
अपनी इज्जत करना सीखो --
जो अपनी इज्जत नहीं करता
दुनिया उसकी परवाह नहीं करती
सुनो ऐ नरम दिल बेवकूफ लड़कियों
कितनी भोली हो तुम नहीं समझी न ?
यह शब्द यह नसीहत यह सीख कुछ भी
तुम्हारे लिए नहीं थी अरे यह सब
तुम्हारे भाइयों के लिए कहा था


भले ही कहने वाली तुम्हारी माँ ही होगी
तुम्हारी नियति तो तय ही कर दी गई थी
सदियों पहले -- वो ही दोयम दर्जे वाली
सब जानते थे आज भी उन्हें पता है
रुई हल्की सी नमी से भीग जाती है
भारी बोझिल हो जाती है ---आंसुओं से
पर वो यह कैसे भूल गए ---कभी कभी
हल्की सी चिंगारी से रुई में आग भड़क जाती है
और भस्म हो जाता है पूरा का पूरा साम्राज्य
उसी रुई से तो बना है तुम्हारा नरम दिल
पर सुनो क्यों नहीं समझती तुम
जब तक तुम खुद नहीं समझोगी
कैसे समझाओगी सबको ----
अब तो समझो ---मत बहो अंधी नदी की धार में
जिसके कगार ढह रहे हों न जाने किस खाड़ी में
ले जाकर पटक देगी तुम्हे और फिर होगा वही
अथाह सागर में विलीन हो जाओगी --
तुम्हे खुद बनाना है अपना बाँध एकजुट हो कर
तभी तो तुम्हारी उर्जा से दिपदिपायेगा --
जगमगायेगा पूरा समाज --और
फिर ऐ रुई के फाहों सी नरम दिल लड़कियों
बस तनिक सा कठोर हो जाओ ---
अपना सम्मान करना सीख लो

Friday, October 3, 2014

अक्सर लौटता हूँ घर - मणि मोहन

अक्सर लौटता हूँ घर
धूल और पसीने से लथपथ
लौटता हूँ अक्सर
अपनी नाकामियों के साथ
थका-हारा

वह मुस्कराते हुए
सिर्फ थकान के बारे में पूंछती है
एक कप चाय के साथ
और मैं भूल जाता हूँ
अपनी हार





मन तुम किसके रूप रचे हो - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन तुम किसके रूप रचे हो
किसके बल पर इस दुनिया में
साबुत अभी बचे हो


क्यों अरूप में रूप देखते
बिम्बों में तस्वीरें
नहीं कल्पना पर थोपी क्यों
काया की प्राचीरें
भीतर कैसा स्रोत खुला है
जिसका रस पीते हो
सारी पीड़ा भूल गये हो
हंसी ख़ुशी जीते हो


नहीं मांगते मान मनौबल
अपने आप लचे हो

घूम रहे निर्जन सड़कों पर
लेकिन नहीं उदासी
कैसा आज तुम्हारा
वृन्दावन, कैसा है काशी
किसकी मुरली गूँज रही है
इन गीतों छंदों में
कैसे तुमको लगा दीखने
ईश्वर इन बन्दों में

अब पहले से ठीक हो गये
मुझको बहुत जंचे हो

Thursday, October 2, 2014

बापू, स्वच्छ भारत का सपना - अनिल सिन्दूर

बापू,
स्वच्छ भारत का सपना
साकार करने को
आया है एक ऐसा प्रधानमन्त्री
जिसे गुमान है खुद पर
जो ठान लेता है, करता है
क्या, आपका सपना
पूर्ण करने में सफल होगा वो
संदेह है तुम्हें ?
यदि है भी, तो नहीं करना प्रदर्शित
आज़ादी के बाद, दो अक्टूबर को
करने को साकार सपने, तुम्हारे
पहली बार उठाया है सर पे आसमान
किसी सिरफिरे ने
बापू,
स्वच्छता के मामले में नहीं बख्शा था
आपने, बा' तक को
ऐसे तेवर देना उसे, आशीर्वाद स्वरूप
और देना होंसला, पस्त होने लगे जब



Wednesday, October 1, 2014

जले चराग बुझाने की ज़िद नहीं करते - चाँदनी पाण्डेय

जले चराग बुझाने की ज़िद नहीं करते ।
अब आ गए हो तो जाने की ज़िद नहीं करते।

किसी की आँख में आँसू हमे पसंद नहीं
दिलों के जख्म दिखाने की जिद नही करते ।

हमारे साए भी रस्ते में छोड़ जाते हैं
हमारा साथ निभाने की ज़िद नहीं करते।

तुम्हारे संग का भी ज़िक्र छिड़ न जाए कहीं
ग़ज़ल के शेर सुनाने की जिद नही करते।

खला में कोई ईमारत कभी नही टिकती
वहाँ मकान बनाने की ज़िद नहीं करते।

ये शहरे संग है ,पत्थर के लोग रहते हैं
यहाँ पे फूल खिलाने की ज़िद नही करते ।

ज़मीन जैसा कहीं चाँद भी न हो जाए
ज़मीं पे चाँद को लाने की ज़िद नही करते।