Thursday, November 27, 2014

जिन राहों पर चलना है, तू उन राहों पर चल ! - प्रोफे. रामस्वरुप ‘सिन्दूर’




जिन राहों पर चलना है,
तू उन राहों पर चल !
कहाँ नहीं सूरज की किरणे, तूफ़ानी बादल !

मन की चेतनता पथ का अँधियारा हर लेगी,
मंजिल की कामना प्रलय को वश में कर लेगी,
जिस बेला में चलना है,
तू उस बेला में चल !
यात्रा का हर पल होता है क़िस्मत-वाला पल !

सपनों का रस मरुथल को भी मधुवन कर देगा,
हारी-थकी देह में नूतन जीवन भर देगा,
जिस मौसम में चलना है,
तू उस मौसम में चल !
भीतर के संयम की दासी, बाहर की हलचल !

उठे कदम की खबर ज़माने को हो जाती है,
अगवानी के लोकगीत हर दूरी गाती है,
जिस गति से भी चलना है,
तू उस गति से ही चल,
निर्झर जैसा बह न सके, तो हिम की तरह पिघल !



Monday, November 17, 2014

मधुर दिन बीते ...................... प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

मधुर दिन बीते ......................

मधुर दिन बीते-अनबीते !
वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते !

यादों के सरगम से ऊबे,
सपनों के आसव में डूबे,
आँखें रस पीती हैं, लेकिन होंठ अश्रु पीते !
मधुर दिन बीते-अनबीते !
वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते !

आतप ने झुठलाई काया,
सर पर बादल-भर की छाया,
सूखी पौद हरी कर देंगें, क्या कपड़े तीते !
मधुर दिन बीते-अनबीते !
वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते !

हम पनघट की राहें भूले,
मृग मरीचिकाओं में फूले,
कन्धों के घट पड़े हुये हैं, रीते के रीते !
मधुर दिन बीते-अनबीते !
वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते !


प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

Monday, November 10, 2014

सुनो, लेखक-वेखकों को अब सस्पेंड कर दो - विवेक कुमार

सुनो,
लेखक-वेखकों को अब सस्पेंड कर दो
और कवियों की कर दो छंटनी।
अब हमें चाहिए चमार
जो मरे हुए शब्दों की
खाल उधेड़ सकें, बेझिझक।
अब हमें चाहिए लुहार
जो शब्दों को पिघलाकर
फौलादी तलवारें बना सकें।
अब हमें चाहिए कुम्हार
जो मिट्टी के शब्दों को
कठोर कड़वे पत्थर बना सकें।
अब हमें चाहिए सुनार
जिनके बनाए शब्दों की
लोग जान से बढ़कर हिफाजत करें।
और सुनो,
भर्ती करते वक्त ध्यान रखना
कोई ब्राह्मण न हो,
क्योंकि भूखो मरना भी आना चाहिए।

Wednesday, November 5, 2014

बंधु मेरे पास भी यदि - जन कवि बाबा नागार्जुन

बंधु
मेरे पास भी यदि
बाप दादों की उपार्जित भूमि होती
धान होता बखारों में
आम कटहल लीचियों के बाग होते 


 क्यों न मैं भी
याद कर प्रथमा द्वितीया या तृतीया प्रेयसी को
सात छिद्रों की रुपहली
बाॅसुरी में फूॅक भरता ..

Tuesday, November 4, 2014

"Geetaantar" " गीतान्तर": हमने शाप बटोरे इतने , सदियों तक हम शिला रहेंगे ! ...

"Geetaantar" " गीतान्तर": हमने शाप बटोरे इतने , सदियों तक हम शिला रहेंगे ! ...: हमने शाप बटोरे इतने , सदियों तक हम शिला रहेंगे ! कहाँ गये अपने हिस्से के मोरों-वाले जंगल सारे , उल्लासों की लाल पतंगें , खुशिओं के नीले...

हमने शाप बटोरे इतने , सदियों तक हम शिला रहेंगे ! - सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी

हमने शाप बटोरे इतने ,
सदियों तक हम शिला रहेंगे !

कहाँ गये अपने हिस्से के मोरों-वाले जंगल सारे ,
उल्लासों की लाल पतंगें , खुशिओं के नीले गुब्बारे ,
चीख-चीख कर इस अरण्य में ,
किससे अपनी व्यथा कहेंगे ?

जिनको गूंथना था माला में , वे गुलाब कितने बासे थे ,
कागों को क्या पता कि घर के सारे नल खुद ही प्यासे थे ,
कब तक मृग बनने की धुन में ,
हर दिन सौ-सौ बाण सहेंगे ?

हाँ , कंदीलों ने बुझ-बुझकर , और घनी कर दी हैं रातें ,
देखो कमरे में घुस आयी तिरछी हो-होकर बरसातें ,
चट्टानों से भरी नदी में हम-तुम कितनी दूर बहेंगे ?