Thursday, October 1, 2015

तुम चिन्तन के शिखर चढ़ो..............सीमा अग्रवाल



तुम चिन्तन के शिखर चढ़ो ..........
तुम पन्नों पर सजे रहो, अधरों - अधरों बिखरेंगे
तुम बन ठन कर घर में बैठो, हम सड़कों से बात करें
तुम मुठ्ठी में कसे रहो, हम पोर-पोर खैरात करें
इतराओ गुलदानों में, हम मिट्टी में निखरेंगे
तुम अनुशासित झीलों जैसे, हल्का-हल्का मुस्काते
हम अल्हड़ नदियों सा हँसते, हर पत्थर से बतियाते
तुम चिन्तन के शिखर चढ़ो हम चिन्ताओं में उतरेंगे !












Thursday, September 10, 2015

एक दिया चलता है आगे- आगे अपने ज्योति बिछाता - कृष्ण मुरारी पहारिया

एक दिया चलता है आगे-
आगे अपनी ज्योति बिछाता
पीछे से मैं चला आ रहा
कंपित दुर्बल पाँव बढाता

दिया जरा-सा, बाती ऊँची
डूबी हुई नेह में पूरी
इसके ही बल पर करनी है
पार समय की लम्बी दूरी


दिया चल रहा पूरे निर्जन
पर मंगल किरणें बिखराता

तम में डूबे वृक्ष-लताएँ
नर भक्षी पशु उनके पीछे
यों तो प्राण सहेजे साहस
किन्तु छिपा भय उसके नीचे

ज्योति कह रही, चले चलो अब

देखो वह प्रभात है आता

Wednesday, August 19, 2015

जैसे कभी पिता चला करते थे, - भारत भूषण



जैसे कभी पिता चला करते थे,
वैसे ही अब मैं चलता हूँ !
भरी सड़क पर बायें-बायें
बचता-बचता डरा-डरा-सा,
पौन सदी कंधों पर लादे
भीतर-बाहर भरा-भरा सा,
जल कर सारी रात थका जो
अब उस दिये-सा मैं जलता हूँ !
प्रभु की कृपा नहीं कम है ये
पौत्रों को टकसाल हुआ हूँ ,
कुछ प्यारे भावुक मित्रों के
माथे लगा गुलाल हुआ हूँ,
'मिलनयामिनी' इस पीढ़ी-को
सौप स्वयं बस वत्सलता हूँ !
कभी दुआ-सा कभी दवा-सा
कभी हवा-सा समय बिताया
संत-असंत रहे सब अपने
केवल पैसा रहा पराया,
घुने हुये सपनों के दाने,
गर्म आसुओं में तलता हूँ !!

Wednesday, August 5, 2015

कुछ आंसू बन गिर जाएंगे, कुछ दर्द चिता तक जाएंगे, उनमें ही कोई दर्द तुम्हारा भी होगा ! - रमानाथ अवस्थी


कुछ आंसू बन गिर जाएंगे, कुछ दर्द चिता तक जाएंगे
उनमें   ही   कोई   दर्द   तुम्हारा   भी    होगा !

सड़कों पर मेरे पाँव हुए कितने घायल
यह बात गाँव की पगडंडी बतलायेग,
सम्मान-सहित हम सब कितना अपमानित हैं
यह चोट हमें जाने कब तक तड़पायेगी,
कुछ टूट रहे सुनसानों में कुछ टूट रहे तहखानों में
उनमें  ही  कोई  चित्र  तुम्हारा  भी  होगा !

वे भी दिन थे, जब मरने में आनन्द मिला
ये भी दिन हैं , जब जीने से घबराता हूँ ,
वे भी दिन बीत गये हैं , ये भी बीतेंगे
यह सोच किसी सैलानी-सा मुस्काता हूँ ,
कुछ अँधियारों में चमकेंगे , कुछ सूनेपन में खनकेंगे
उनमें ही कोई स्वप्न तुम्हारा भी होगा !

अपना ही चेहरा चुभता है काँटे जैसा
जब संबंधों की मालाएँ मुरझाती हैं ,
कुछ लोग कभी जो छूटे पिछले मोड़ों पर
उनकी यादें नीदों में आग लगाती है ,
कुछ राहों में बेचैन खड़े , कुछ बाँहों में बेहोश पड़े
उनमें ही कोई प्राण तुम्हारा भी होगा !

साधू हो या साँप , नहीं अन्तर कोई
जलता जंगल दोनों को साथ जलाता है ,
कुछ वैसी ही है आग हमारी बस्ती में
पर ऐसे में भी कोई-कोई गाता है ,
कुछ महफ़िल की जय बोलेंगे कुछ दिल के दर्द टटोलेंगे
उनमें ही कोई गीत तुम्हारा भी होगा !
   

Saturday, August 1, 2015

तुमने मुझे बुलाया है, मैं आऊँगा, बंद न करना द्वार देर हो जाए तो ! - रमानाथ अवस्थी



तुमने मुझे बुलाया है, मैं आऊँगा,
बंद न करना द्वार देर हो जाए तो !

अनगिन सांसों का स्वामी होकर भी निरा अकेला हूँ,
पाँव थके हैं दिन-भर अपनी माटी के संग खेला हूँ;
चरवाहे  की  रानी-जैसी  सुन्दर  मेरी  राह  है,
मुझको अपने से ज़्यादा सुन्दरता की परवाह है;
मेरे आने तक मन में धीरज धरना,
चाँद देख लेना यदि मन घबराए तो !

महकी-महकी सांसों-वाले फूल बुलाते हैं मुझे,
पर फूलों के संगी-साथी शूल रुलाते हैं मुझे;
लेकिन मुझ यात्री का इन शूलों-फूलों से मोह क्या,
मेरे मन का हंसा इनसे अनगिन बार छला गया;
मुझसे मिलने की आशा में सह लेना,
यदि तुमको दुनिया का दर्द सताए तो !

मेरी मंज़िल पर है रवि की धूप, बदलियों की छाया,
मैं इन दोनों की सीमाओं के घर में भी सो आया;
लेकिन मुझको तो छूना है सीमा उस श्रंगार की,
जिसके लिए टूटती है हर मूरत इस संसार की;
मैं न रहूँ तब मेरे गीतों को सुनना,
जब कोई कोकिल जंगल में गाए तो !

धो देते हैं बादल जब-तब धूल-भरे मेरे तन को,
लेकिन इनसे बहुत शिकायत है मेरे प्यासे मन को;
मरुथल में चाँदनी तैरती लेकिन फूल नहीं खिलते,
मन ने जिनको चाहा अक्सर मन को वही नहीं मिलते;
मेरा और तुम्हारा मिलना तो तय है,
शंकित मत होना यदि जग बहकाए तो !


Friday, July 31, 2015

आदमी खुद को कभी यूँ भी सज़ा देता है, - गोपालदास नीरज

आदमी खुद को कभी यूँ भी सज़ा देता है,
रोशनी के लिए शोलों को हवा देता है !

खून के दाग़ हैं दामन पे जहाँ संतों के
तू वहां कौन-से नानक को सदा देता है !

एक ऐसा भी वो तीरथ है, मेरी धरती पर,
क़ातिलों को भी जहाँ मंदिर भी दुआ देता है !

मुझको उस वैद्य की विद्या पे तरस आता है.
भूखे लोंगों को जो सेहत की दवा देता है !

तू खड़ा होके कहाँ माँग रहा है रोटी,
ये सियासत का नगर सिर्फ़ दग़ा देता है !

मैं किसी बच्चे के मानिन्द सिसक उठता हूँ,
जब कोई माँ की तरह मुझको दुआ देता है !

मत उसे ढूंढए शब्दों के नुमाइशघर में,
हर पपीहा यहाँ 'नीरज' का पता देता है ! 

Wednesday, May 6, 2015

क्योंकि मैं आधुनिक हूँ.. - aasha agarwal



क्योंकि मैं आधुनिक हूँ...
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मु्झे देखिए,
परखिए और पंसद आने पर
चुन लीजिए,
आप लगा सकते है मेरी बोली,
अरे घबराएं नहीं,
यदि आप पुरुष हैं तो कतई नहीं,
मेरी बोली आपकी जेब पर नहीं पडेंगी भारी,
मैं तो बस आपसे चाहती हूं कुछ झूठे वादे,
कुछ दगा और कुछ कटु शब्‍दों के पक्‍के धागे,
कहिए कि आप मुझे प्‍यार करते हैं,
गर आप चाहते हैं मेरे हाथों को चूमना,
कहें एक ठहाके के साथ कि आप मेरे बिना जी नहीं सकते
और छू लीजिए मेरी कमर को,
और इच्‍छाएं कुछ ज्‍यादा ही हैं,
तो करें एक और झूठा वादा,
शादी का,
फिर देखिए कैसे मैं बिझ जाऊंगी आप के नीचे,
घबराएं नहीं मेरी बोली में केवल बंधन नहीं है,
आप सहजता से पा सकते हैं मुक्ति भी,
क्‍योंकि मैं हूं आधुनिक नारी,
बस कह दें कि नहीं हो सकती शादी,
जरा से उल्‍हाने दें मेरी पढ़ाई और आधुनिकता के,
बस मैं तैयार हो जाऊंगी किसी और के लिए... aasha

Tuesday, April 28, 2015

एक ग़ज़ल दुष्यंत कुमार की



रोज़ जब रात को बारह का गज़र होता है,
यातनाओं  के  अँधेरें  में सफ़र होता है !

कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए,
वो घरौंदा सही, मिट्टी का भी घर होता है !

सिर के सीने में कभी, पेट से पावों में कभी,
एक जगह हो तो  कहें  दर्द  इधर होता है !

ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगें,
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है !

सैर के वास्ते सड़कों पर निकल आते थे ,

अब तो आकाश से पथराव का डर होता है !

Thursday, April 16, 2015

कश्मीर अलगाव वादियों के नाम एक ग़ज़ल - महेश कटारे सुगम

ज़ुल्म के तल्ख अंधेरों के तलबगार हो तुम 
जानता हूँ मेरे दुश्मन के मददगार हो तुम 

जिसके हर शब्द में इक मौत नज़र आती हो
आज के दौर का खूंखार सा अख़बार हो तुम

तुमने घर घर में ज़राइम को पनाहें दीं हैं
एक मेरे नहीं दुनिया के गुनहगार हो तुम

देखना एक दिन तुमसे ये कहेगी दुनिया
खौफ खाए हुए हालात से बेज़ार हो तुम

तुम जो चाहो तो ज़माने को बदल सकते हो
वक्त के साथ हो काबिल हो समझदार हो तुम

ये तो समझो की कहाँ साथ खड़े हो किसके
हाथ वो कौन है जिसके बने हथियार हो तुम



मौत के साथ मुहब्बत का सफर होगा क्या
वो यही सोच है जिसके कि तरफदार हो तुम

अब जाम निगाहों से पिलाने नहीं आते - मंजु अग्नि



अब जाम निगाहों से पिलाने नहीं आते ,
वो झूठी मुहब्बत भी जताने नहीं आते !!

आग़ोश में हैं चाँद सितारे अभी उनके ,
मजबूर हैं वो रात बिताने नहीं आते !!

गुल भी नहीं ख़ुशबू-ए-तमन्ना भी नहीं है ,
दस्त-ए-दुआ को फूल उगाने नहीं आते !!

जज़्बात के बादल तो बरसते हैं घनेरे ,
दरिया हमे अश्क़ो के बहाने नहीं आते !!

ये दर्द मेरी ज़िन्दगी भर की है कमाई ,
बेबात अजी ग़म के ख़ज़ाने नहीं आते !!

यूँ तो हैं मुहब्बत के तलबगार हज़ारों ,
पर हर किसी को नख़रे उठाने नहीं आते !!heart इमोट " मंजु अग्नि "

महावर की धूमिल सी छाप - दिव्या शुक्ला


पत्थरों के इस महल में
कुछ आलता रंगे क़दमों
के धूमिल से निशान दिखे
वर्षों पहले नवाँकुरित सपनों को
आँचल में सहेजे गृह प्रवेश करती
किशोरी नववधू के भीतर आते
पाँवों की छाप कुछ धूमिल सी थी


और कुछ चटक सी लगती कभी
अरे बस एक हाथ की दूरी पर
बाहर की ओर जाते क़दमों के
निशान सुर्ख़ लाल चटक से
किसके हैं  ? ध्यान से देखो
इन पत्थरों की गूँगी बहरी
दीवारों की दरारों में
अपनी उम्र के सारे बसंत भर
पतझर लिये इस ऊँची ड्योढ़ी
को लाँघ कर बाहर जाती हुई
उसी किशोरी के तलवों से
रिसते हु़ये रक्त की छाप है

Thursday, April 2, 2015

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख - दुष्यंत कुमार

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख !

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाजुओं को देख, पतवारें न देख !

अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीकत की तरह,
यह हक़ीकत देख, लेकिन खौफ़ के मारे न देख !

वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख !

दिल को बहला ले, इज़ाज़त है, मगर इतना न उड़,
रोज सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख !

ये धुंधलका है नज़र का, तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख, दीवारों में दीवारें न देख !

राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई,
राख में चिंगारियां ही देख, अंगारे न देख !

Saturday, March 28, 2015

रिश्तों के अंतिम बिंदु पर - वीरू सोनकर , कानपूर

रिश्तों के अंतिम बिंदु पर,
जहाँ,
तुमने कहा था
अब हमारे रास्ते अलग है !

चाहता हूँ
वहीँ कुछ देर रुकना,
तुम्हे जी भर कर सोचना,
सड़क के उसी प्रस्थान बिंदु पर
सड़क के उसी मोड़ पर,
चाहता हूँ
तुम्हारे हो सकने के सभी यकीनो का
वहीँ पिंडदान करना,
चाहता हूँ
तुम्हारी अंतिम इच्छा को पूर्णरूप से पूर्ण करना,
उसी मोड़ से
तुम्हारे और अपने रास्ते अलग करना !

“पसंद अपनी-अपनी” - रेखा जोशी, फरीदाबाद

“पसंद अपनी-अपनी”
मत देखो ख़्वाब
जो कभी
पूरे हो नही सकते
कितने भी सुन्दर हों
रेत के महल
आखिर
इक दिन तो
गिरना है उन्हें
कभी कभी
ज़िंदगी भी हमे
ले आती
ऐसी राह पर
जहाँ
टेकने पड़ते घुटने
वक्त के आगे
और
बस सिर्फ इंतज़ार
पड़ता है करना
न जाने कब तक

Friday, March 27, 2015

ये मेरी नई मां है - अनीता जैन कोटा (राजस्थान )

ये मेरी नई मां है
जाने क्या हुआ होगा उन दोनों में
जाने क्या सोचा होगा लोगों ने
पर शायद न सोचा
क्या भोगा होगा बच्चो ने
कुछ बातें कुछ वादे न निभे होंगे
दिल न मिले होंगे दोनों के
या वफ़ा बेवफ़ा के किस्से होंगे
पर शायद न सोचा
घायल होंगे दिल बच्चो के
इतने बसंत पतझड़ देखे होंगे दोनों ने
सुख - दुख बान्टे होंगे दोनों ने
मिलजुल रंग भरे होंगे जीवन में
पर शायद ये न सोचा
बच्चेकैसे विश्वास करेंगे रिश्तों पे
छोडा हाथ इक दुजे ने
अलग हो गए इक दुजे से
हसिं पल हो गए ज़हरीले से
पर शायद न सोचा
पूछ रहे कुछ ,बच्चे सूने नैनों से
दर्द मेरे सीने में भर गई
वो मासूम खाली अपनी आंखों से
बिन बोले व्यथा कह गई
सीने से मेरे लग के
क्या सोचा न पापा ने
नई मां लाने से पहले.......,..
क्या सोचा न.....,

मर्दानगी के अवध्य वेताल की ओर से - रितेश मिश्रा इंदौर टाइम आफ इण्डिया में सीनियर रिपोर्टर

सांघातिक सड़कों का
सन्नाटा खरबोटती
चार्टर्ड बस के काले पर्दों के पीछे
बहुवीर्य में लिथड़े
शापित पितृत्वों के साए
मेंकोई न कोई शुक्राणु ज़मीन पाता ही
मार क्यों दिया !
मैं उस बलात्कार का अ-रोपित बेटा
अधिकल्पित प्रेतरोपा जाता,
जनमता तो
अभिव्यक्ति पाती अभीप्सित मर्दानगी
लोहे की राडों में उभरती नसों में रक्त के थक्के जमते हैं
वीर्यप्लावित सड़क पर रेंगते हैं
आत्मरति करती कारों के हुजूम
काले शीशों पर चमकते विज्ञापनों की परछाइयाँ
जिनके पीछे रचना था सभ्यता को
अपना सबसे बड़ा शाहकार
मार क्यों दिया !
यूं भी किसे गुरेज़ था बलात्कार से
सिवाय रात के पोशीदा इरादों पर भरोसा करने वाली
उस अभागी औरत के
मार क्यों दिया !
सदियों से घरों में रिसते कानूनी बलात्कारों के
सांस्कृतिक आकर्षण के सभी हामी थे।
बुतों के दामन से बंधी औरतें
रोटी की ताज़गी में बासी होती औरतें
जारज संतानों का बोझ ढोती गर्भ में
दक्खिन टोलों की सीलनभरी कोठरी के कोने पर-----!
पूरी तहज़ीब राज़ी थीएक जायज़ बलात्कार पर
एवरीबॉडी लव्स अ लीगल रेप------!
तो ढूंढ लेते तर्क इस बलात्कार का
दर्शन से,विज्ञान से
इतिहास की वस्तुनिष्ठ गति से
या किसी अपमार्केट विमर्श से मसलन 'विकास'
बलात्कारों से ही बसती हैं राजधानियां -------
मार क्यों दिया !
पर अब मैं कब तक करूं इंतज़ार
मैं मर्दानगी का अवध्य वेताल------कहाँ होऊं अवतरित
सभ्यता के किस स्काई स्क्रैपर पर
संस्कृति के किस पीपल वृक्ष पर
किस कापालिक के मन्त्रों पर होकर सवार
या इंतज़ार करूं
किसी जायज़ बलात्कार का

Monday, March 23, 2015

नदी के तीर पर ठहरे - विनोद श्रीवास्तव



नदी के तीर पर ठहरे
नदी के बीच से गुजरे
कहीं भी तो लहर की बानगी हमको नहीं मिलती

हवा को हो गया है क्या
नहीं पत्ते खड़कते हैं
घरों में गूँजते खण्डहर
बहुत सीने धड़कते हैं

धुएँ के शीर्ष पर ठहरे
धुएँ के बीच से गुजरे
कहीं भी तो लहर की बानगी हमको नहीं मिलती


नकाबें पहनते हैं दिन
कि लगता रात पसरी
जिसे सब स्वर्ग कहते हैं
न जाने कौन नगरी है

गली के मोड़ पर ठहरे
गली के बीच से गुजरे
कहीं भी तो लहर की बानगी हमको नहीं मिलती

कहाँ मंदिर, कहाँ गिरजा,
कहाँ खोया हुआ काबा
कहाँ नानक, कहाँ कबिरा,
कहाँ चैतन्य की आभा

अवध की शाम को ठहरे
बनारस की सुबह गुजरे
कहीं भी तो लहर की बानगी हमको नहीं मिलती

Sunday, March 22, 2015

पाने को प्रेम - अनिल सिन्दूर

पाने को प्रेम
जब भी
खटखटाता हूँ कुण्डी
प्रेम
खोलकर कुण्डी
चला जाता है कहीं दूर
दिखाई देती है मुझे
पीठ प्रेम की
प्रेम की पीठ !

जैसे तुम सोच रहे साथी - विनोद श्रीवास्तव कानपूर मोब. 9648644966

गीत

जैसे तुम सोच रहे साथी
वैसे आज़ाद नहीं हैं हम

पिंजरे जैसी इस दुनिया में
पंछी जैसा ही रहना है
भरपेट मिले दाना-पानी
लेकिन मन ही मन दहना है

जैसे तुम सोच रहे साथी
वैसे संवाद नहीं हैं हम

आगे बढ़ने की कोशिश में
रिश्ते नाते सब छूट गये
तन को जितना गढ़ना चाहा
मन से उतना ही टूट गये

जैसे तुम सोच रहे साथी
वैसे आबाद नहीं हैं हम

पलकों ने लौटाये सपने
आँखें बोली अब मत आना
आना ही तो सच में आना
आकर फिर लौट नहीं जाना

जितना तुम सोच रहे साथी
उतना बरबाद नहीं हैं हम



Saturday, March 21, 2015

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास - नागार्जुन

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया, सोई उसके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर, छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी, हालत रही शिकस्त

दाने आये घर के अन्दर, कई दिनों के बाद
धुआं उठा आँगन से ऊपर, कई दिनों के बाद

चमक उठी घर-भर की आँखें, कई दिनों के बाद
कौये ने खुजलाई पांखे, कई दिनों के बाद

मैं इस महान पुण्य भूमि में - डॉ. अब्दुल कलाम

मैं इस महान पुण्य भूमि में
खोदा गया एक कुआँ
देखूं अनगिनत बच्चे
खींचते पानी , मुझमें जो भरा
कृपा का उस परवरदिगार की
और सींचते फूल, पौधे, फसलें
नया दौर
नयी नस्लें
दूर-दूर तक नियामत
मेरे खुदा की .

Thursday, March 19, 2015

गणित - हेमंत कुमार

गणित -

ज़िन्दगी का
गणित
सीखते-सीखते
मैं फंस गया
बुरी तरह
रोटिओं के
दलदल में !
निकलने पर
मैंने पाया कि
मेरे हाथ
कुछ भी नहीं लगा
न ज़िन्दगी
न रोटियां  !

लेखक का परिचय -
हेमंत कुमार - बाल एवं युवा साहित्य  रचनाकार लखनऊ निवास स्थान है अभी हाल ही में उ.प्र. हिंदी संस्थान ने बाल साहित्य पुरुस्कार से सम्मनित किया है ! 
संपर्क -
094512 50698



महेश कटारे सुगम की एक ग़ज़ल

मुंह के अंदर दही जमाया जाता है
हाथों पर अब सत्य उगाया जाता है

माँ के द्वारा रोटी की लोरी गाकर
भूखे बच्चे को बहलाया जाता है

भूख जगाई जाती है इच्छाओं की
फिर लोगों को ज़हर खिलाया जाता है

पहले आग लगाते हैं बस्ती बस्ती
फिर आकर अफ़सोस जताया जाता है

बेचा जाता है अपनी औलादों को
फिर सेठों का क़र्ज़ चुकाया जाता है

इम्दादों के पीछे भी इक साज़िश है
दानों पर भी जाल बिछाया जाता है

खौफ दिखाकर भूत प्रेत भगवानों का
बच्चों को नाहक डरवाया जाता है

बहुत अलग है पर्दे के पीछे का सच
परदे पर कुछ अलग दिखाया जाता है

डॉ. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - समीक्षा - महेंद्र भीष्म का कहानी-संग्रह ‘लाल डोरा’ -



समीक्षा - कहानी-संग्रह ‘लाल डोरा’


कथाकार महेन्द्र भीष्म हिन्दी साहित्य क्षेत्र में, विशेषकर बुन्देलखण्ड में एक जाना-पहचाना नाम है, जो किसी परिचय का मोहताज नहीं रह गया है. समाज की विसंगतियों, समस्याओं, अनछुए विषयों पर कलम चलाना उनकी सजगता, सक्रियता को परिलक्षित करता है. वे अपने वर्तमान कहानी-संग्रह ‘लाल डोरा’ के माध्यम से एक बार फिर सामाजिक विसंगतियों, विषमताओं पर चर्चा करने के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं, पारिवारिक ताने-बाने की पड़ताल करते नजर आते हैं. समाज के बाईस विभिन्न बिन्दुओं का कोलाज तैयार कर इस बार वे पाठकों के लिए अपने शीर्षक द्वारा कौतूहल प्रस्तुत करते हैं. महेन्द्र जी के न्यायालयीन कार्यों में संलग्न होने के कारण कहानी संग्रह का समीक्षात्मक अध्ययन करने से पूर्व ऐसा अनुमान लगाया गया था कि ‘लाल डोरा’ न्यायालय अथवा प्रशासनिक क्षेत्र से सम्बंधित हो सकता है और बहुत हद तक ऐसा सत्य प्रतीत भी हुआ. प्रशासनिक अक्षमता और तानाशाहात्मक कार्यशैली का ज्वलंत उदाहरण इस संग्रह की पहली कहानी ‘लाल डोरा’ स्वयं प्रस्तुत करती है. पूर्ण रूप से स्थापित परिवार का बंटवारे के दौर में विस्थापन और उस दर्द के साथ-साथ ‘एक बेटे की जिंदगी के एवज में तीन बेटियों को पाकिस्तान में छोड़ने’ की ह्रदयविदारक घटना को अपने भीतर समेटे-सहेजे एक परिवार स्थापित होने के पश्चात् पुनः स्थानापन्न होने का भय, संत्रास झेलता है. यह कहानी भय के साये में मृत्यु के आगोश में पहुँच चुके व्यक्ति के साथ-साथ कई सवाल उठती दिखती है. आखिर क्षेत्र के विकास हेतु इंसानों को ही विस्थापन का दर्द कब तक सहना पड़ेगा? आखिर विकास का कोई दीर्घकालिक मापदंड विकसित क्यों नहीं किया जाता है? आखिर साल-दर-साल विकास के नाम पर मानवीय बस्तियों के साथ-साथ पारिवारिकता, सामाजिकता, जीवन को उखाड़ फेंकने का काम क्यों किया जाता रहता है? आखिर प्रशासनिक मशीनरी की अक्षमता, अकर्मण्यता, भ्रष्ट कार्यशैली को कब तक मासूम, निर्दोषों की मृत्यु के आवरण से छिपाया जाता रहेगा?
प्रशासनिक मशीनरी की कार्यशैली, उसकी कारगुजारियों के साथ-साथ राजनैतिक कुचक्रों के संगठित स्वरूप को संग्रह की कहानी ‘बीड़ी पिला देते साब’ के माध्यम से लेखक ने बखूबी उभारा है. यदि इस कहानी को संग्रह की सर्वाधिक सशक्त कहानी कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. कहानी का शिल्प, कथ्य, प्रस्तुतिकरण अंत-अंत तक प्रभावित करता है. अपनी अंतिम परिणति को समझ चुके पात्र पंचू का अंतिम वाक्य ‘लो साब! मार दो गोली, अब नहीं मांगूंगा बीड़ी’ पुलिस अधिकारी द्विवेदी के साथ-साथ पाठकों के मन को निरंतर उद्देलित करती है. ‘बीड़ी पिला देते साब’ का अदृश्य भूत सम्पूर्ण कहानी में इर्द-गिर्द घूमता हुआ संवेदना को कम नहीं होने देता है. ये किसी भी कहानी की सशक्तता, सफलता कही जा सकती है कि उस कहानी का मूल भाव अंत-अंत तक कहानी में बना रहे. कहानीकार महेन्द्र भीष्म इसमें पूर्णतः सफल होते दिखे हैं.
उक्त दो कहानियों के अतिरिक्त अन्य कहानियों ‘अन्तराल’, ‘कृतघ्न’, ‘किसी शहर की कोई रात’, ‘एक बूढ़े की गुजरती शाम’, ‘नवकोण’, ‘ततास’, ‘कन्या’, ‘त्रासदी’ आदि में सामाजिक सरोकारों, संस्कारों, रिश्तों, पारिवारिकता आदि को अलग-अलग किन्तु चिर-परिचित रूप से सामने रखती हैं. मानवीय सोच और मानसिकता के साथ-साथ पारिवारिक तानों-बानों, रिश्तों के मकड़जाल में फँसी मानवीय जीवन की गाथा कहती कहानियाँ नवीनता का एहसास करवाने में जरा सी चूकती दिखती हैं. संग्रह की ‘कन्या’ और ‘त्रासदी’ कहानियों को उनके विषय तथा उसमें समाहित संवेदना की उच्चता तक ले जाने में कहानीकार असफल से दिखे हैं. ‘कन्या’ कहानी जहाँ कन्या भ्रूण हत्या जैसे अतिसंवेदनशील विषय को उठाती है वहीं ‘त्रासदी’ के द्वारा समाज के किन्नर समाज की मनोदशा और उसके प्रति सोच को उभारने के साथ ही किसी किन्नर की संवेदनशीलता को भी उकेरा गया है. ऐसे ज्वलंत और संवेदित विषयों को उठाने के बाद भी दोनों कहानियाँ उस चरम को नहीं छू पाती हैं, जिनकी अपेक्षा ऐसे विषयों में पाठकों द्वारा की जाती है. ‘कन्या’ कहानी समस्या को उठाती है किन्तु अत्यंत साधारण रूप से. ‘एक स्त्री दूसरी स्त्री के ऊपर तीसरी स्त्री के वजूद में न आने देने के लिए इतना दबाव डाल सकती है, अपने कृत्य पर हर्षित हो सकती है?’ तथा ‘जो दवाएँ प्राण ले सकती हैं, एक अजन्मे को संसार में आने से रोक सकती हैं, वह भला किसी पौधे के लिए उर्वरा कैसे बन सकती हैं?’ जैसे गंभीर चिंतन के बाद भी कहानी अपना उत्स प्राप्त नहीं कर पाती है, पाठक-मन को उद्देलित नहीं कर पाती है. एक तरह की ऊहापोह में समाप्त कहानी संभवतः कहानीकार के उर्वर मन-मष्तिष्क की उपज भी हो सकती है, जिसमें वह पाठकों पर अपना निर्णय न थोपकर उन्हें ये सोचने के लिए स्वतंत्र कर देता है कि गर्भपात हेतु दी गई गोलियां न खाने के पश्चात् राज खुलने पर उस माँ के साथ उसके पति, उसकी सास का बर्ताव क्या, कैसा रहेगा, जिस माँ की अन्तरात्मा गर्भ में पल रही बच्ची को बचाने को प्रेरित करती है. कुछ इसी तरह का खालीपन, अधूरापन ‘त्रासदी’ में भी परिलक्षित होता है. अनछुए पहलू को उठाकर कहानीकार कहानी आगे तो बढ़ाता है किन्तु उसे चरमोत्कर्ष तक नहीं पहुँचा पाता है. संभवतः कहानी का फलक विस्तीर्ण होने के कारण तथा उसे कहानी की परिधि से बाहर न निकलने देने की अपनी साहित्यिक मजबूरी के चलते कहानीकार ने कहानी की गति को अतिशय तीव्रता प्रदान कर सुन्दरी और रति की भांति ही उसे प्लेटफ़ॉर्म पर ढहा दिया. यदि ‘त्रासदी’ को सुन्दरी और रति के जीवन तक की सीमितता में विकसित किया जाता, एक किन्नर और एक विधवा स्त्री के अशरीरी संबंधों के आलोक में कहानी को आगे बढ़ाया जाता तो संभव है कि एक उत्कृष्ट रचना हिन्दी कथा-साहित्य को अवश्य ही प्राप्त होती.
वर्तमान समीक्ष्य कहानी-संग्रह अपने शीर्षक ‘लाल डोरा’ के द्वारा जितना प्रभावित करता है, ये कहने में गुरेज नहीं कि उसकी कहानियाँ उतना प्रभावित नहीं करती हैं. वर्तमान साहित्य परिदृश्य में जिस तरह की कहानियों की अपेक्षा महेन्द्र भीष्म जैसे कथाकार से की जा सकती है कम से कम वैसी कहानियाँ पढ़ने को नहीं मिली. लगभग सभी कहानियाँ एक सपाट रूप से बजाय किस्स्गोई कहने के भागती सी नजर आती हैं. बंधी-बंधाई लीक पर, पूर्व चिर-परिचित विषयों के साथ प्रस्तुत कहानियाँ मन को छूती सी नहीं लगती हैं, किसी विषय पर सोचने को विवश नहीं करती, मन में छटपटाहट को पैदा नहीं करती, संवेदना के स्तर पर आकुलता नहीं भरती. बहुतायत कहानियों में कहानी आरम्भ होने के साथ ही उसे समाप्ति बिंदु पर पहुँचाने की आकुलता, आतुरता कहानीकार में देखने को मिलती है. संभवतः है कि ऐसा होने के पीछे कथा को विस्तार देने और फिर उसे कहानी के रूप में समेटने का द्वंद्व कहानीकार की कलम पर हावी रहा होगा. अपनी धरती, अपनी बोली के प्रति प्रेम, स्नेह दर्शाने हेतु कहानीकार महेन्द्र भीष्म साधुवाद के पात्र हैं. ‘एक बूढ़े की गुजरती शाम’ और ‘ततास’ के द्वारा बुन्देली भाषा में संवाद अदायगी और ‘अन्तराल’ में स्थान-नाम के द्वारा वे ऐसा करते आगे बढ़ते हैं. समीक्ष्य रूप में कहा जाए तो महेन्द्र भीष्म का कथाकार व्यक्तित्व इस कहानी-संग्रह में उभरकर सामने नहीं आ पाया है. बहुधा कहानियाँ किसी नए लेखक की कलम से उपजी सी प्रतीत होती हैं. संभव है कि इस संग्रह की कई कहानियाँ महेन्द्र जी की आरंभिक कहानियाँ हों क्योंकि बहुतायत कहानियों का शिल्प, कथ्य और उनका वातावरण, देशकाल वर्तमान की अनुभूति सी नहीं करवा पाता है. यद्यपि किसी भी कहानी को लिखने के पीछे कहानीकार का अपना मंतव्य, अपनी मनोदशा, अपनी सोच काम करती है तथापि ऐसा ही कुछ समीक्षक/आलोचक पर भी प्रभावी होता है. इसी कारण से ‘लाल डोरा’ की अनेक कहानियाँ प्रभावित किये बिना आँखों के सामने से गुजरती रहती हैं.
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डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर,
सम्पादक – स्पंदन, मेनीफेस्टो
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