Friday, January 23, 2015

हम अजाने रहे ..................प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

हम अजाने रहे नाम होते हुये !
एक तुम्हारे रहे आम होते हुये !

पास उनके पहुँचना न मुमकिन हुआ,
हाथ  में  एक  पैगाम  होते  हुये ! 

तोड़ दिल ज़िन्दगी का न हम जा सके,
मौत के  घर  बहुत  काम  होते हुये !

बन्दगी हर डगर, हर नज़र से मिली,
एक  ज़माने  से  बदनाम होते हुये !

यूँ तो बिकने को हर चीज बिकती रही,
कुछ  ख़रीदा  नहीं  दाम  होते  हुये !


एक  अरसे  से  पीते-पिलाते  रहे,
प्यास  हर  बार  अंजाम होते हुये !

इस जहाँ को न हम मैकदा कह सके,
आज  हर  हाथ में  जाम  होते हुये !

सामने  दौर-पर-दौर  चलते  रहे,
हम  रहे दूर  खैयाम  होते  हुये !

आज तक तो कभी हमने देखा नहीं,
आखरी  दाँव  नाकाम  होते  हुये !

दिन ही कुछ ऐसे ‘सिन्दूर’ अब आ गये,
आह   भरते  हैं  आराम  होते  हुये !


Tuesday, January 20, 2015

मैं दोस्ती के हाथ मात ........... प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’



जैसे बना मैं वैसे रहा, ज़िंदगी के पास !
अँधियारा छोड़ जाता रहा, रौशनी के पास !!

वो झील में, घाटी में, समन्दर में क्या मिले,
ज़िद करके मेरी प्यास रुकी है नदी के पास !

मैं  दोस्ती  के  हाथ  मात  खाता  रहा  हूँ,
लड़ने का और ढंग, मेरी  दुश्मनी  के  पास !


वो  शख्स मेरा  यार-व्यार  कुछ  भी नहीं है,
दिल छोड़ के सब-कुछ है उस आदमी के पास !

सब  कुछ है  मुझ में, दुश्मनी, जज़्बा  नहीं है,
जो चाहे चला आये मेरी, मेरी  दोस्ती के पास !

‘सिन्दूर’ के अन्दाज़ से मत खुद को देखिये,
कुछ ख़ास चीज होती है हर आदमी के पास !


Tuesday, January 13, 2015

कोई अनुबन्ध जिया मैंने........ प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

कोई अनुबन्ध जिया मैंने

पल-छिन कोई अनुबन्ध जिया मैंने !
जीवन कितना निर्बन्ध जिया मैंने !

मैं महाशून्य की हिम-यात्रा पर था
सहयात्री-सा संवेदन साथ रहा,
सर्पीले आरोहण-अवरोहण में
मेरे सिर पर करुणा का हाथ रहा,
वैदेही-छवियों के सम्मोहन में
परिचय-विहीन सम्बन्ध जिया मैंने !


मैं आ पहुँचा फूलों की घाटी में
जल-प्लावन का आदिम एकान्त लिये,
सुरभित सुधियों की विषकन्याओं ने
मेरे अधरों पर दंशन टांक दिये,
हो गया तरंगित अमृत शिराओं में
आजन्म मन्त्रवत छन्द जिया मैंने !

थिर हुई एक छाया संवेगों में
स्वप्न-से रूप आते हैं, जाते हैं,
जो शब्द, नाद ही नाद हो गये हैं
वे शब्द, मुझे गीतों में गाते हैं
शरबिद्ध-मिलन का आदि श्लोक हूँ मैं
आँसू-आँसू आनन्द जिया मैंने !


प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

Tuesday, January 6, 2015

तोड़ तन से मोह ........ प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’



तोड़ तन से मोह

तोड़ तन से मोह, मंदिर से लगाया,
बोझ रज का फेंक, प्रस्तर का उठाया,
भर लिया है अंक में अब कल्पना को !
हो गया क्या आज मेरी चेतना को !

प्राण का स्नेहिल दिया, धृत का बनाया,
मूर्ति के निर्जीव चरणों पर चढ़ाया,
दोष देना व्यर्थ है, मृदु वेदना को !
हो गया क्या आज मेरी चेतना को !

सांस का हर तार वीणा हो गया है,
राग जिस पर डोलता बिल्कुल नया है,
मोह लेगा जो प्रणय की अर्चना को !
हो गया क्या आज मेरी चेतना को !

कान्ति भर दे जो सहज अंत:करण में,
सत्य को जो डाल दे ला-कर शरण में,
सिर झुका सौ-बार ऐसी वंचना को !
हो गया क्या आज मेरी चेतना को !

प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

मुझको अहसास की चोटी.....................प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’



मुझको अहसास की चोटी से उतारे कोई !
मेरी  आवाज़  में  मुझको  पुकारे कोई !

जिन्दगी दर्द सही, प्यार के काबिल न सही,
मेरे  रंगों  में  मेरा   रूप  संवारे  कोई !

जीती बाज़ी को हर के-भी मैं उदास नहीं,
मेरी  हारी हुई  बाज़ी से  भी हारे कोई !


राख कर डाली किसी नूर ने हस्ती मेरी,
राख मल-मल के मेरी रूह निखारे कोई !

तू नहीं, चाँद नहीं और सितारे भी नहीं,
किस तरह से य’ सियह रात गुजारे कोई !

चोट पर चोट से सियाह हुआ हर पहलू,
दम निकलता है अगर फूल भी मारे कोई !

बाँसुरी-जैसी  बजे  घाटियों  की  तनहाई,
किस क़दर प्यार से ‘सिन्दूर’ पुकारे कोई !

प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’


ऐसा क्यों होता है .................................... प्रोफे. रामस्वरुप ‘सिन्दूर’


ऐसा क्यों होता है

‘पिक्चर’ देख रहा होता हूँ
तो रो पड़ता हूँ !
ऐसा क्यों होता है
मैं ऐसा क्यों करता हूँ ?

बच्चों को अच्छी लगती है
मेरी नादानी,
इन्द्रधनुष रच देता
मेरी आँखों का पानी,
ख़ुद को भी सुन पड़े न
ऐसी आहें भरता हूँ !

बंद दृगों में
‘सीन’ फिल्म के चलने लगते हैं,
अन्ध गुफाओं में
जुगनू-से जलने लगते हैं,
आखेटी सपनों से
मृग-शावक-सा डरता हूँ !

देख न पाया पूरी ‘मूवी’
अब तक मैं कोई,
धूमिल होने लगी दृष्टि
तो लहरों में धोयी,
मझधारों की पतवारों से
पार उतरता हूँ !