Tuesday, December 27, 2016

किसी चीज़ की हद होती है - यश मालवीय

किसी चीज़ की हद होती है
जो तय हो उगते सूरज-सी
वही बात 'शायद' होती है !

मुद्राएँ अंगारों-वाली करती दिखें चिरौरी
मानसून ने ठंडी कर दी धूप-सरीखी त्यौरी
जिसकी जड़ काँपती नहीं हो
वही शाख बरगद होती है !

भरी सुबह चेहरों पर मिलती शामों-वाली स्याही
जो षडयंत्रों में शामिल हैं देते वही गवाही
सूक्ति रची जो सिंहासन ने
वही सूक्ति अनहद होती है !

लिए लाठियाँ कानूनों की हांक रहे हैं बकरी
अपना बुना जाल है सारा कैसी अफ़रा-तफ़री
जिन आँखों पर काले चश्मे
वही आँख संसद होती है !

अपनी परछाईं पर शासन करने की बीमारी
छोटे से शीशे में उठती आदमक़द लाचारी
नींव कि जिसकी ईंट हिल रही
वही नींव गुम्बद होती है !

Thursday, December 22, 2016

वचन हारने लगो - प्रोफे. राम स्वरुप सिन्दूर

वचन हारने लगो.....................

वचन हारने लगो, याद जय के क्षण कर लेना !
सामने दर्पण धर लेना !

ताजमहल की सेजों पर हम-तुम थे शीश धरे,
और, दृगों में थे यमुना का निर्मल नीर भरे,
संकल्पों में बंधें याद वे बन्धन कर लेना !
सामने दर्पण धर लेना !


चिश्ती के मज़ार पर बांधे साथ-साथ धागे,
सदा साथ रहने-वाले दिन हाथ जोड़ माँगे,
किया हर्ष में दान, याद वह कंगन कर लेना !
सामने दर्पण धर लेना !

मन-कामेश्वर के मन्दिर में ज्योतित दीप किये,
मुखर व्रतों को दीप्त शिखाओं में आशीष दिये,
स्वप्न, सत्य-सा दिखा याद वह दर्शन कर लेना !

सामने दर्पण धर लेना !

सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात - रमा नाथ अवस्थी

सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात !
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात !

मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई,
जहर-भरी जादूगरनी-सी मुझको लगी जुन्हाई,
मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई,
दूर कहीं दो आँखें भर-भर आई सारी रात !
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात !


गगन बीच रुक तनिक चन्द्रमा लगा मुझे समझाने,
मनचाहा मन पा जाना है खेल नहीं दीवाने,
और उसी क्षण टूटा नभ से एक नक्षत्र अजाने,
देख जिसे मेरी तबियत घबराई सारी रात !
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात !

रात लगी कहने सो जाओ, देखो कोई सपना,
जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना,
वहाँ तुम्हारा क्या, कोई भी नहीं किसी का अपना,
समझ अकेला मौत मुझे ललचाई सारी रात !

और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात !

मुझको तेरी तलाश है - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मुझको तेरी तलाश है ,आवाज़ दे मुझे !
तू मेरे बहुत पास है , आवाज़ दे मुझे !!
मैं आइने में ख़ुद को जो देंखू तो तू दिखे ,
क्या खूब इल्तिबास है , आवाज़ दे मुझे !
हर सम्त बेपनाह शोरोशर है क्या हुआ ,
आवाज़ तेरी ख़ास है , आवाज़ दे मुझे !
कहते हैं लोग है ही नहीं तू वजूद में ,
तू है तो नाशनास है , आवाज़ दे मुझे !
मैं गुम हुआ हूँ संगतराशों की भीड़ में ,
कोई तो बुततराश है , आवाज़ दे मुझे !
मुझको तो रास आ गईं मेरी उदासियाँ ,
गर तू बहुत उदास है , आवाज़ दे मुझे !
उस वक़्त अंधेरों खो गयी थी हर सदा ,
ये लम्हा ज़ियापाश है , आवाज़ दे मुझे !
हर हाल में 'सिन्दूर' को इंसाफ दे सके ,
वो कौन सा इज्लास है , आवाज़ दे मुझे !


Tuesday, December 20, 2016

सब कुछ भूला ... - प्रोफे. रामस्वरूप सिन्दूर

सब कुछ भूला ...............................

सब कुछ भूला, किन्तु न भूले वे लोचन अभिराम !
तुम्हारे लोचन ललिल-ललाम !

चितवन में सपनों की छाया,
मृग-मरीचिकाओं की माया,
इन्द्रधनुष-धारे पलकों में छिपे रहें घनश्याम !
तुम्हारे लोचन ललिल-ललाम !


बात जो न अधरों तक आये,
दृष्टि सहज में ही कह जाये,
वे दृग, संकेतों से ले-लें कैसे-कैसे काम !
तुम्हारे लोचन ललिल-ललाम !

कब की उठी मधुर मधुशाला,
पर न अभी तक उतरी हाला,
कभी-कभी मैं हस्ताक्षर में, लिख जाऊँ खैयाम !
तुम्हारे लोचन ललिल-ललाम !

देख रहे हैं जो भी कृपाकर मत कहिये - रमा नाथ अवस्थी


देख रहे हैं जो भी कृपाकर मत कहिये !
मौसम ठीक नहीं आजकल चुप रहिये !

चारों ओर हमारे जितनी दूर तलक जीवन फैला है,
बाहर से जितना उजला वह, भीतर उतना ही मैला है;
मिलने-वालों से मिल कर तो, बढ़ जाती  है और उदासी,
हार गए ज़िन्दगी जहाँ हम पता चला वह बात जरा-सी;

मन कहता है दर्द कभी स्वाविकार न कर
मज़बूरी हर रोज़ कहे इस को सहिये !


कल कुछ देर किसी सूने में मैंने की ख़ुद से कुछ बातें,
लगा कि जैसे मुझे बुलायें बिन बाजों-वाली बारातें;
कोई नहीं मिला जो सुनता मुझ से मेरी हैरानी को,
देखा सब ने मुझे, न देखा मेरी आँखों के पानी को;

रोने लगी मुझी पर जब मेरी आँखें
हँस कर बोले लोग, मांग मत जो चहिये !

फुलवारी में फूलों से भी ज़्यादा साँपों के पहरे हैं,
रंगों के शौक़ीन आज भी जलते जंगल में ठहरे हैं;
जिन के लिए समंदर छोड़ा वे बादल भी काम न आये,
नयी सुबह का वादा कर के, लोग अंधेरों तक ले आये;

भूला यह भी दर्द, चलो कुछ और जियें

जाने कब रुक जांय ज़िन्दगी के पहिये !

Sunday, December 18, 2016

बादल भी है, बिजली भी है, पानी भी है सामने - रमा नाथ अवस्थी

बादल भी है, बिजली भी है, पानी भी है सामने
मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने

प्यास मुझे ही क्या, यह जग में सबको भरमाती है
जिसमें जितना पानी, उसमें उतनी आग लगाती है
आग जलती ही है, चाहे भीतर हो या बाहर हो
चलने वाले से क्या कहिये, पानी हो या पाथर हो

छांव उसी की है, जिसको भी गले लगाया घाम ने
मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने
मेरे चारों ओर लगा है , मेला चार दिशाओं का
जिसमें शोर बहुत है, कम है अर्थ ह्रदय के भाव का
मैं बिल्कुल वैसा ही हूँ, इस अंतहीन कोलाहल में
जैसी कोई आग ढूढती हो छाया दावानल में

मेरी जलन न जानी अब तक किसी सुबह या शाम ने
मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने


घन से लेकर घूँघट तक के आंसू से परिचय मेरा
हर आंसू की आग अलग है, एक मगर जल का घेरा
कोई आंसू दिखलाता है, कोई इसे छिपाता है

कोई मेरी तरह अश्रु को गाकर जी बहलाता है

तू है जहाँ, वहां आ पाना- प्रोफे. रामस्वरूप सिन्दूर

तू है जहाँ, वहां आ पाना
तन के वश की बात नहीं है,
इस तन से नाता टूटे तो
तुझसे मिलना हो सकता है !

आँखों में तैरती उदासी, लहराती आंसू की छाया,
ऐसा लगे, कि मेरी काया में उतरी है तेरी काया;
दर्पण ने इस विह्वलता को
सहज योग का नाम दिया है,
दर्पण   से    नाता  टूटे  तो
तुझसे मिलना हो सकता है !


गन्ध बने उच्छ्वास, प्राण का गुह्य द्वार बरबस खुल जाये,
तेरे  साये  से  लगते हैं, मुझको  मेरे-अपने  साये ;
उपवन ने इस दिवा-स्वप्न को
महामिलन तक कह डाला है,
उपवन   से   नाता  टूटे  तो
तुझसे मिलना हो सकता है !

मैं जागूँ तो नींद सताये, ओ’ सौऊ तो नींद न आये,
मंदिर में उदास हो जाऊं, मैखाने में जी घबराये;
यह मन मेरी इस गति को ही
दुर्लभ गति कह बहलाता है,
इस मन से नाता टूटे तो
तुझसे मिलना हो सकता है !

बेसुध कर जाती हैं सुधियाँ, चेतन कर जाती मदहोशी,
मैं विदेह की तृषा, तृप्ति की नजरों में करुणा का दोषी;
दर्शन मेरे चिर यौवन को
काल-सिद्धि कह कर छलता है,
दर्शन से नाता टूटे तो

तुझसे मिलना हो सकता है ! 

Saturday, December 17, 2016

झंकृत धरती आकाश - प्रोफे. रामस्वरूप सिन्दूर

झंकृत धरती-आकाश................

झंकृत धरती-आकाश,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !

अनुगुंजित अन्तर की घाटी,
नर्तित चलती-फिरती माटी;
बाँसुरी बनी नि:श्वास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !

जैसे हो वन्दन की वेला,
अर्चन-अभिनन्दन की वेला;
मुखरित निर्जन अधिवास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !


सुधियों ने अवगुण्ठन खोले,
किसलय दल-सा संयम डोले;
करुणा विगलित उल्लास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !

युग से सूखे दृग तरल हुए,
पहले जैसे ही सरल हुए;
करतल चूमे सन्यास,

प्राण के तार छू दिये प्राणों ने

ऐसे क्षण आए जीवन में - प्रोफे. राम स्वरुप सिन्दूर

ऐसे क्षण आए जीवन में................

ऐसे क्षण आए जीवन में, माटी कंचन लगे !
नयन रह जायें ठगे-ठगे !

तन लहराये अगरु गन्ध-सा
मन लहरे किसलय-सा,
हर पल लगे प्रणय की बेला
हर उत्सव परिणय-सा,

छाया तक कस लेने वाला बंधन, कंगन लगे !
नयन रह जायें ठगे-ठगे !


अपनी छाया अंकित कर दूँ
इस दहरी उस द्वारे,
पानी में प्रतिविम्ब निहारूँ
मन-मोहक पट-धारे,

चकाचौंध चौंध कर देने-वाला सूरज दर्पण लगे !

नयन रह जायें ठगे-ठगे !

तुमने मुझे बुलाया है, मैं आऊँगा - रमा नाथ अवस्थी

तुमने मुझे बुलाया है, मैं आऊँगा,
बंद न करना द्वार देर हो जाए तो !

अनगिन सांसों का स्वामी होकर भी निरा अकेला हूँ,
पाँव थके हैं दिन-भर अपनी माटी के संग खेला हूँ;
चरवाहे  की  रानी-जैसी  सुन्दर  मेरी  राह  है,
मुझको अपने से ज़्यादा सुन्दरता की परवाह है;
मेरे आने तक मन में धीरज धरना,
चाँद देख लेना यदि मन घबराए तो !

महकी-महकी सांसों-वाले फूल बुलाते हैं मुझे,
पर फूलों के संगी-साथी शूल रुलाते हैं मुझे;
लेकिन मुझ यात्री का इन शूलों-फूलों से मोह क्या,
मेरे मन का हंसा इनसे अनगिन बार छला गया;
मुझसे मिलने की आशा में सह लेना,
यदि तुमको दुनिया का दर्द सताए तो !


मेरी मंज़िल पर है रवि की धूप, बदलियों की छाया,
मैं इन दोनों की सीमाओं के घर में भी सो आया;
लेकिन मुझको तो छूना है सीमा उस श्रंगार की,
जिसके लिए टूटती है हर मूरत इस संसार की;
मैं न रहूँ तब मेरे गीतों को सुनना,
जब कोई कोकिल जंगल में गाए तो !

धो देते हैं बादल जब-तब धूल-भरे मेरे तन को,
लेकिन इनसे बहुत शिकायत है मेरे प्यासे मन को;
मरुथल में चाँदनी तैरती लेकिन फूल नहीं खिलते,
मन ने जिनको चाहा अक्सर मन को वही नहीं मिलते;
मेरा और तुम्हारा मिलना तो तय है,

शंकित मत होना यदि जग बहकाए तो !

Thursday, December 15, 2016

घर के बूढ़े लोग - ज्योति शेखर

सारी उम्र जिन्हें ढोते हैं घर के बूढ़े लोग !
उनके लिए बोझ होते हैं घर के बूढ़े लोग !!

उन्हें पता है जब ये पकेगी तब वे नहीं होंगे,
फिर भी नई फ़सल बोते हैं घर के बूढ़े लोग !

बच्चे कहते हैं, तहज़ीब नयी क्या सीखेंगे,
ये सब तो बूढ़े तोते हैं घर के बूढ़े लोग !

कभी देखना एक उजाला फैला रहता है,
जहाँ फ़रिश्तों से सोते हैं घर के बूढ़े लोग !

कभी-कभी जब और किसी बूढ़े से मिलते हैं,
चुपके-चुपके क्यों रोते हैं घर के बूढ़े लोग !

इनको छुओ साँप बनकर तब  भी ठंडक देंगे,
चंदन का दरख़्त होते हैं घर के बूढ़े लोग !

बोझ पाप का बढ़े तो इनके क़दमों में रख दो,
तीरथ हैं, गुनाह धोते हैं, घर के बूढ़े लोग !

मैं यायावर गुन्जन हूँ - रामस्वरूप सिन्दूर

मैं यायावर गुन्जन हूँ

जैसे-जैसे दृगबन्ध खुले,
मटमैले सपने रंग धुले,
कोई सुरंग मुझ को मधुवन में छोड़ गयी !
हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !

मैं बन्दी-राजकुँअर की नियति जी रहा था
पर, कोई भी कल्पना मूर्त हो जाती थी,
तृप्ति के कमल खिलते थे राजसरोवर में
मुक्ति की कामना फिर भी बहुत सताती थी,
खंडित सुरंग, मुझको फिर मुझसे जोड़ गयी !
हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !


दंशित-तन का विष पिया एक निर्झरणी ने
श्वास का कलुष बह गया तरंगित गन्धों में,
जीती-मरती माटी का काया-कल्प हुआ
सीमान्त सृष्टि सिमटी मेरे भुजबंधों में,
दुर्बल सुरंग, काल की कलाई मोड़ गयी !
हीरक हथकड़ियाँ स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !

मैं यायावर गुन्जन हूँ पुष्पक घाटी का
मैं महाप्रलय में भी अक्षय लय गाऊँगा,
डूबेंगे जब हिमसृंग अतल जलप्लावन में
शब्द के कंठ में बैठ नाद हो जाऊँगा,
सर्पिल सुरंग, अंजलि में अमृत निचोड़ गयी !

हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !

Monday, December 12, 2016

घर में भी सम्मान मिला है - रामस्वरूप सिन्दूर


घर में भी सम्मान मिला है

मैं प्रसंगवश कह बैठा हूँ तुमसे अपनी राम-कहानी !

मेरे मनभावन मन्दिर में बैठी हैं खण्डित प्रतिमाएं,
विधिवत् आराधन जारी है, हँसी उड़ाती दसों दिशाएं,
मूक वेदना के चरणों में, मुखर वेदना नत-मस्तक है,
जितनी हैं असमर्थ मूर्तियाँ, उतना ही समर्थ साधक है,
एक ओर ज़िन्दगी कामना, एक ओर निष्काम कहानी !



बिखर गई ज़िन्दगी कि जैसे बिखर गई रत्नों की माला,
कोहनूर कोई ले भागा, तन का उजला मन का काला,
हारा मेरा सत्य कि जैसे, सपना भी न किसी का हारे,
साँसों-वाले तार चढ़ गये, जो वीणा के तार उतारे,
ख़ास बात ही तो बन पाती है, दुनिया की आम-कहानी !


एक ज्वार ने मेरे सागर को शबनम में ढाल दिया है,
कहने को उपकार किया है, करने को अपकार किया है,
प्रखर ज्योति ने आँज दिया है, आँखों में भरपूर अँधेरा,
मैं इस तरह हुआ जन-जन का, कोई भी रह गया न मेरा,
कामयाब है जितनी, उतनी ही ज़्यादा नाकाम कहानी !

निर्वसना प्रेरणा कुन्तलों बीच छिपाये चन्द्रानन है,
आँसू ही पहचान सकेगा, लहरें गिन पाया सावन है
मेरा यह सौभाग्य, कि मुझको हर अभाव धनवान मिला है
पीड़ा को बाहर जैसा-ही, घर में भी सम्मान मिला है

नाम कमाने की सीमा तक, हो बैठी बदनाम कहानी !

सुधा भी पी नहीं जाती - रामस्वरूप सिन्दूर


सुधा भी पी नहीं जाती

आज को मैंने जिया कल कि प्रतीक्षा में !
एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में !

बह गयी आकाशगंगा में करुण-गाथा,
गा रहा मैं अरुण छंदों में, वरुण-गाथा, 
ये नयन हैं, कौन-से जल की प्रतीक्षा में !
एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में !


आँसुओं का अतल मन्थन कर चुका हूँ मैं,
रत्न-कोषों को अमृत से भर चुका हूँ मैं,
कल्पतरु भी है, किसी फल की प्रतीक्षा में !
एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में !

अब तृषा को तृप्ति की सुधि भी नहीं आती,
वारुणी तो क्या सुधा भी पी नहीं जाती,
चल-अचल पल हैं, सकल-पल कि प्रतीक्षा में !

एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में !