Wednesday, January 25, 2017

मैं यायावर गुन्जन हूँ - प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'

मैं यायावर गुन्जन हूँ

जैसे-जैसे दृगबन्ध खुले,
मटमैले सपने रंग धुले,
कोई सुरंग मुझ को मधुवन में छोड़ गयी !
हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !

मैं बन्दी-राजकुँअर की नियति जी रहा था
पर, कोई भी कल्पना मूर्त हो जाती थी,
तृप्ति के कमल खिलते थे राजसरोवर में
मुक्ति की कामना फिर भी बहुत सताती थी,
खंडित सुरंग, मुझको फिर मुझसे जोड़ गयी !
हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !


दंशित-तन का विष पिया एक निर्झरणी ने
श्वास का कलुष बह गया तरंगित गन्धों में,
जीती-मरती माटी का काया-कल्प हुआ
सीमान्त सृष्टि सिमटी मेरे भुजबंधों में,
दुर्बल सुरंग, काल की कलाई मोड़ गयी !
हीरक हथकड़ियाँ स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !

मैं यायावर गुन्जन हूँ पुष्पक घाटी का
मैं महाप्रलय में भी अक्षय लय गाऊँगा,
डूबेंगे जब हिमसृंग अतल जलप्लावन में
शब्द के कंठ में बैठ नाद हो जाऊँगा,
सर्पिल सुरंग, अंजलि में अमृत निचोड़ गयी !

हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !

Tuesday, January 24, 2017

तुम आये तो - प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'



तुम आये तो सावन आया, गये उठा तूफ़ान !
जल में तैरे रेगिस्तान !

कुछ कहना हो, कुछ कह जाऊं,
दिन-दिन-भर घर में रह जाऊं,
ताजमहल जैसा लगता है कलई पुता मकान !
जल में तैरे रेगिस्तान !

दर्पण देखूँ, देख न पाऊँ,
अर्थहीन गीतों को गाऊँ,
सूरज डूबे ही पड़ जाऊँ, सर से चादर तान !
जल में तैरे रेगिस्तान !


सोते में चौकूँ, डर जाऊँ,
साँस चले, लेकिन मर जाऊँ,
सिरहाने रखने को खोजूँ, आधी रात कृपान !
जल में तैरे रेगिस्तान !

मुश्किल से हो कहीं सबेरा,
चैन तनिक पाये जी मेरा,
जैसे-जैसे धूप चढ़े, होता जाऊँ नादान !

जल में तैरे रेगिस्तान !

Monday, January 23, 2017

मधुर दिन बीते ......................- प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'



मधुर दिन बीते-अनबीते !
वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते !

यादों के सरगम से ऊबे,
सपनों के आसव में डूबे,
आँखें रस पीती हैं, लेकिन होंठ अश्रु पीते !
मधुर दिन बीते-अनबीते !
वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते !


आतप ने झुठलाई काया,
सर पर बादल-भर की छाया,
सूखी पौद हरी कर देंगें, क्या कपड़े तीते !
मधुर दिन बीते-अनबीते !
वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते !

हम पनघट की राहें भूले,
मृग मरीचिकाओं में फूले,
कन्धों के घट पड़े हुये हैं, रीते के रीते !
मधुर दिन बीते-अनबीते !

वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते ! 

Saturday, January 21, 2017

हठ कर गया वसन्त - प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'

हठ कर गया वसन्त

मन करता है फिर कोई अनुबन्ध लिखूँ !
गीत-गीत हो जाऊँ, ऐसा छन्द लिखूँ !

करतल पर तितलियाँ खींच दें
सोन-सुवर्णी रेखायें,
मैं गुन्जन-गुन्जन हो जाऊँ
मधुकर कुछ ऐसा गायें,
हठ पद गया वसन्त, कि मैं मकरन्द लिखूँ !
श्वास जन्म-भर महके, ऐसी गन्ध लिखूँ !


सरसों की रागारुण चितवन
दृष्टि कर गयी सिन्दूरी,
योगी को संयोगी कह कर
हँस दे वेला अंगूरी,
देह-मुक्ति चाहे, फिर से रस-बन्ध लिखूँ !
बन्धन ही लिखना है, तो भुजबन्ध लिखूँ !

सुख से पंगु अतीत, विसर्जित
कर दूँ जमुना के जल में,
अहम् समर्पित हो जाने दूँ
आगत से, ऐसा भावी सम्बन्ध लिखूँ !

हस्ताक्षर में, निर्विकल्प आनन्द लिखूँ !

Thursday, January 12, 2017

मधुवास जिया जाये - रामस्वरूप 'सिन्दूर'

मधुवास जिया जाये

अधिवास या-कि निर्वास जिया जाये !
प्रति-पल कोई उल्लास जिया जाये !

उच्छवास अतल से अमृत खींच लाये,
नि:श्वास शून्य के अधरों पर गाये,
करुणा मन्वन्तर-व्यापी छन्द रचे
संवास या-कि वनवास जिया जाये !
बारहमासी मधुमास जिया जाये !


वय की संगणना अंकों की माया,
अन्त तक रहेगी सोनल यह काया,
मेरे तप का आतप सह लेती है,
संवेदन की मेघिल-मेघिल छाया,
विन्यास या-कि संन्यास जिया जाये !
ज्वार के शीश पर रास जिया जाये !

मुझ से, मुझ-तक मेरा संज्ञान गया,
कल्प का भेद, मैं क्षण में जान गया,
मैंने ऐसा नि:शब्द गीत गाया
जो बोधिसत्व मुझ में सन्धान गया,
विश्वास या-कि आभास जिया जाये !

केवल कवि का इतिहास जिया जाये !

हार जीत तो दुनिया भर के साथ है - मुकुट बिहारी 'सरोज'

इसमें रोने-धोने की क्या बात है,
हार-जीत तो दुनिया भर के साथ है !

नपी तुली सांसें माटी को मिली, यही क्या कम मिला
यह  किस्मत की बात किसी को ख़ुशी, किसी को गम मिला
तुम तो हो इन्सान कि जो कह लेते हो दुःख-दर्द को ---
चाँद कहाँ तक रोये, जिसके आगे पीछे रात है !

सूरज रोता अगर कि जैसी मिली बिचारे को जलन
कब का डूब गया होता अब तक तारों वाला गगन
लेकिन साहस तो देखो उस चलती-फिरती आग का--
जहाँ पाँव रख देती है, मुस्काता वहीँ प्रभात है !

चरणों का इतिहास मंजिलों से जाकर पूछो ज़रा
कितने चले गुलाबों पर, कितनों का मन प्यासा मरा
तुम शायद विश्वास करोगे नहीं कि इस संसार में---
छुईमुई के पातों तक पर पतझर का आघात है !

इसमें रोने-धोने की क्या बात है,
हार-जीत तो दुनिया भर के साथ है !   

Wednesday, January 11, 2017

बात कुछ भी हो मगर भाई नहीं - मुकुट बिहारी 'सरोज'

चाँद आया, चाँदनी आई नहीं
बात कुछ भी हो मगर भाई नहीं

प्यास ओंठों को जगाती ही रही
आँख सपनों को सजाती ही रही
रात-भर नाची बिचारी वर्तिका
पर पतंगों की सभा गाई नहीं
बात कुछ भी हो मगर भाई नहीं

बन गई चादर सितारों की कफ़न
पाँव तक फैला नहीं पाया पवन
इस तरह निकलीं खुशीं की अर्थियाँ
ओस अब तक भी समझ पाई नहीं
बात कुछ भी हो मगर भाई नहीं

देखकर पानी हिमालय तक चढ़ा
हर युवक  अरमान-शूली पर चढ़ा
बांध बलि के खून बंध तो गया
पर नई तस्वीर मुसकाई नहीं
बात कुछ भी हो मगर भाई नहीं

Tuesday, January 10, 2017

एक युगीन वक्तव्य - मुकुट बिहारी 'सरोज'

रात भर पानी बरसता और सरे दिन अंगारें,
अब तुम्हीं बोलो कि कोई ज़िन्दगी कैसे गुजारे !

आदमी ऐसा नहीं है आज कोई,
साँस हो जिसने न पानी में भिगोई,
दर्द, सबके पाँव में रहने लगा है,
खास दुश्मन, गाँव में रहने लगा है,
द्वार से आँगन अलहदा हो रहे हैं,
चढ़ गया दिन मगर सब सो रहे हैं,

अब तुम्हीं बोलो कि फिर आवाज़ पहली कौन मारे,
कौन इस वातावरण की बंद पलकों को उघारे !

बेवजह सब लोग भागे जा रहे हैं,
देखने में ख़ूब आगे जा रहे हैं,
किन्तु मैले हैं सभी अन्त:करण से,
मूलत: बदले हुए हैं आचरण से,
रह गए हैं बात वाले लोग थोड़े,
और अब तूफ़ान का मुँह कौन मोड़े,

नाव डांवाडोल है ऐसी कि कोई क्या उबारे,
जब डुबाने पर तुले ही हों किनारे पर, किनारे !

है अनादर की अवस्था में पसीना,
इसलिए गढ़ता नहीं कोई नगीना,
जान तो है एक उस पर लाख गम हैं,
इसलिए किस्में बहुत हैं, नाम कम हैं,
नागरिकता दी नहीं जाती सृजन को,
अश्रु मिलते हैं तृषा के आचमन को,

एक उत्तर के लिए, हल हो रहे हैं ढेर सारे,
और जिनके पास हल हैं, बंद हैं उनके किबारे !

एक जरूरत - मुकुट बिहारी 'सरोज'

तम,  जरूरत से बहुत ज्यादा दिखाई दे रहा है,
अब मुझे सूरज उगाना ही पड़ेगा !

रात जैसी रात हो तो ठीक भी है,
एक दिन की बात हो तो ठीक भी है,
आज तो सूरज जनम से साँवला है,
और कुछ उलझा हुआ सा मामला है,

भ्रम, किरण की आत्मा को पातकी ठहरा रहा है,
अब मुझे निर्णय सुनाना ही पड़ेगा !

आज मावस बात वाली हो गई है,
चाँदनी क्या धूप काली हो गई है,
और जाने क्या कराएगा अँधेरा,
शाम के कपड़े पहिनता है सवेरा,

श्रम, भरे दरबार में नंगा नचाया जा रहा है,
अब मुझे तांडव  सिखाना ही पड़ेगा !

ज्योति का कोसों पता चलता नहीं हैं,
आरती तक में दिए जलते नहीं हैं,
अब नहीं सधता स्वरों से राग कोई,
क्या करे जप-तप-तपस्या-त्याग कोई,

गम, मकानों से गली की दोस्ती तुडवा रहा है,
अब मुझे आँगन लिपाना ही पड़ेगा !    

Monday, January 9, 2017

एक निवेदन - मुकुट बिहारी 'सरोज'

उत्तर का अन्तिम अक्षर लिखना बाकी था,
घोषित तुमने व्यर्थ परीक्षा-फल कर डाला !

किस नीयत से अंक दिए कम, ये तुम जानो,
मैंने तो हल करने में, आँसू बरते थे,
दुःख के गुरुकुल का स्नातक था, जहाँ रात-दिन--
बड़े - बड़े ज्ञानी-ध्यानी, पानी भरते थे,

मैंने सिर्फ अभावों के अनुबन्ध लिखे थे,
तुमने उनकी गिनती कर टोटल कर डाला !

कर्जदार हो जाए न दुनियाँ की तरुणाई,
परम्परा के हाथ इसलिए नहीं वर सका,
आश्वासन तो बहुत दिये थे आसमान ने--
मैं ही कुछ, तम से समझौता नहीं कर सका,

मैंने सिर्फ सलामी भेजी थी सूरज को,
तुमने आँखें मूँद सत्य ओझल कर डाला !

बुरे दिनों में पढ़ा, किया असफल इस कारण,
लेकिन इस लिखाव का मरम नहीं पहिचाना,
और किसी बैठे के प्रति चलनेवाले के -----
दायित्वों का पहला धरम नहीं पहिचाना,

सही रूपरेखा को महज़ नक़ल ठहराकर,
तुमने मेरा काम और मुश्किल कर डाला !  


Wednesday, January 4, 2017

मुक्ति का द्वार नकार गये - प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'

वासंती-पल जीत गये
जोगी-पल हार गये !
किस चितवन की मूठ
तुम्हारे नैना मार गये !

पीताम्बर मौसम ने काया-कल्प कर दिया है,
सुमिरन-सधे कंठ में स्वगत-प्रलाप भर दिया है,
दिवा-स्वप्न तन-मन का
गैरिक रंग उतार गये !
तोड़ मौनव्रत,
अधर तुम्हारा नाम पुकार गये !


जप-भूली उँगलियाँ, तितलियाँ पकड़, छोड़ती हैं,
व्यर्थ-गये जीवन के कितने वर्ष जोड़ती हैं,
रूप-रूप क्षण, अन्तर की
घाटी झंकार गये !
प्राण तुम्हारे लिये
मुक्ति का द्वार नकार गये !

संयम, दर्पण पर पारे की तरह फिसलता है,
रसपायी-एकान्त, काल की चाल बदलता है,
शिखर-तरंगित गन्ध-ज्वार
भव-सागर तार गये !
एक समन्दर क्या,
हम सात समन्दर पार गये !

गीतान्तर में गाया - प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'

मैंने अपने जन्मान्तर को, भाषान्तर में गाया !
कविता में अकथ कथान्तर को, गीतान्तर में गाया !

अक्षर-अक्षर स्वर-लिपियों में अनुगुन्जन ढल जाता है,
ध्वनि-मुद्रित शब्द-शब्द में कोई छन्द उभर आता है,
मैंने अपने भावान्तर को, भाषान्तर में गाया !
निर्वचन हुए अर्थान्तर को, गीतान्तर में गाया !


रस-चक्रव्यूह भेदन कर मैंने काया-कल्प किया है,
निर्झर से घाटी में उतरी गति का संगीत जिया है,
मैंने अपने रूपान्तर को, भाषान्तर में गाया !
प्रान्तर-प्रान्तर देशान्तर को, गीतान्तर में गाया !

मैं आत्म निरति में डूब नाद के तलमें लौट गया हूँ,
भूला श्रुतियों को श्रुति के पहले पल में लौट गया हूँ,
मैंने अपने लोकान्तर को, भाषान्तर में गाया !

ठहरे-ठहरे कालान्तर को, गीतान्तर में गाया !