नेह और बाती जलती है
दिया सम्हाले रहता है
अपनी मिटटी की काया में
किरणें पाले रहता है
नेह दूसरों के प्रति करुणा
बाती जितनी आयु मिली
मिटटी की काया किरणों से
रहती कैसी खिली-खिली
जलने का व्रत है प्रभात तक
तम को टाले रहता है
दिया हाथ में लेकर चलना
चलन हुआ जग वालों का
लेकिन क्यों कृतज्ञ हो कोई
बहुमत बैठे - ठालों का
फिर भी तो देखा यह दीपक
खुद को बाले रहता है
दिया सम्हाले रहता है
अपनी मिटटी की काया में
किरणें पाले रहता है
नेह दूसरों के प्रति करुणा
बाती जितनी आयु मिली
मिटटी की काया किरणों से
रहती कैसी खिली-खिली
जलने का व्रत है प्रभात तक
तम को टाले रहता है
दिया हाथ में लेकर चलना
चलन हुआ जग वालों का
लेकिन क्यों कृतज्ञ हो कोई
बहुमत बैठे - ठालों का
फिर भी तो देखा यह दीपक
खुद को बाले रहता है
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