Thursday, March 19, 2015

डॉ. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - समीक्षा - महेंद्र भीष्म का कहानी-संग्रह ‘लाल डोरा’ -



समीक्षा - कहानी-संग्रह ‘लाल डोरा’


कथाकार महेन्द्र भीष्म हिन्दी साहित्य क्षेत्र में, विशेषकर बुन्देलखण्ड में एक जाना-पहचाना नाम है, जो किसी परिचय का मोहताज नहीं रह गया है. समाज की विसंगतियों, समस्याओं, अनछुए विषयों पर कलम चलाना उनकी सजगता, सक्रियता को परिलक्षित करता है. वे अपने वर्तमान कहानी-संग्रह ‘लाल डोरा’ के माध्यम से एक बार फिर सामाजिक विसंगतियों, विषमताओं पर चर्चा करने के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं, पारिवारिक ताने-बाने की पड़ताल करते नजर आते हैं. समाज के बाईस विभिन्न बिन्दुओं का कोलाज तैयार कर इस बार वे पाठकों के लिए अपने शीर्षक द्वारा कौतूहल प्रस्तुत करते हैं. महेन्द्र जी के न्यायालयीन कार्यों में संलग्न होने के कारण कहानी संग्रह का समीक्षात्मक अध्ययन करने से पूर्व ऐसा अनुमान लगाया गया था कि ‘लाल डोरा’ न्यायालय अथवा प्रशासनिक क्षेत्र से सम्बंधित हो सकता है और बहुत हद तक ऐसा सत्य प्रतीत भी हुआ. प्रशासनिक अक्षमता और तानाशाहात्मक कार्यशैली का ज्वलंत उदाहरण इस संग्रह की पहली कहानी ‘लाल डोरा’ स्वयं प्रस्तुत करती है. पूर्ण रूप से स्थापित परिवार का बंटवारे के दौर में विस्थापन और उस दर्द के साथ-साथ ‘एक बेटे की जिंदगी के एवज में तीन बेटियों को पाकिस्तान में छोड़ने’ की ह्रदयविदारक घटना को अपने भीतर समेटे-सहेजे एक परिवार स्थापित होने के पश्चात् पुनः स्थानापन्न होने का भय, संत्रास झेलता है. यह कहानी भय के साये में मृत्यु के आगोश में पहुँच चुके व्यक्ति के साथ-साथ कई सवाल उठती दिखती है. आखिर क्षेत्र के विकास हेतु इंसानों को ही विस्थापन का दर्द कब तक सहना पड़ेगा? आखिर विकास का कोई दीर्घकालिक मापदंड विकसित क्यों नहीं किया जाता है? आखिर साल-दर-साल विकास के नाम पर मानवीय बस्तियों के साथ-साथ पारिवारिकता, सामाजिकता, जीवन को उखाड़ फेंकने का काम क्यों किया जाता रहता है? आखिर प्रशासनिक मशीनरी की अक्षमता, अकर्मण्यता, भ्रष्ट कार्यशैली को कब तक मासूम, निर्दोषों की मृत्यु के आवरण से छिपाया जाता रहेगा?
प्रशासनिक मशीनरी की कार्यशैली, उसकी कारगुजारियों के साथ-साथ राजनैतिक कुचक्रों के संगठित स्वरूप को संग्रह की कहानी ‘बीड़ी पिला देते साब’ के माध्यम से लेखक ने बखूबी उभारा है. यदि इस कहानी को संग्रह की सर्वाधिक सशक्त कहानी कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. कहानी का शिल्प, कथ्य, प्रस्तुतिकरण अंत-अंत तक प्रभावित करता है. अपनी अंतिम परिणति को समझ चुके पात्र पंचू का अंतिम वाक्य ‘लो साब! मार दो गोली, अब नहीं मांगूंगा बीड़ी’ पुलिस अधिकारी द्विवेदी के साथ-साथ पाठकों के मन को निरंतर उद्देलित करती है. ‘बीड़ी पिला देते साब’ का अदृश्य भूत सम्पूर्ण कहानी में इर्द-गिर्द घूमता हुआ संवेदना को कम नहीं होने देता है. ये किसी भी कहानी की सशक्तता, सफलता कही जा सकती है कि उस कहानी का मूल भाव अंत-अंत तक कहानी में बना रहे. कहानीकार महेन्द्र भीष्म इसमें पूर्णतः सफल होते दिखे हैं.
उक्त दो कहानियों के अतिरिक्त अन्य कहानियों ‘अन्तराल’, ‘कृतघ्न’, ‘किसी शहर की कोई रात’, ‘एक बूढ़े की गुजरती शाम’, ‘नवकोण’, ‘ततास’, ‘कन्या’, ‘त्रासदी’ आदि में सामाजिक सरोकारों, संस्कारों, रिश्तों, पारिवारिकता आदि को अलग-अलग किन्तु चिर-परिचित रूप से सामने रखती हैं. मानवीय सोच और मानसिकता के साथ-साथ पारिवारिक तानों-बानों, रिश्तों के मकड़जाल में फँसी मानवीय जीवन की गाथा कहती कहानियाँ नवीनता का एहसास करवाने में जरा सी चूकती दिखती हैं. संग्रह की ‘कन्या’ और ‘त्रासदी’ कहानियों को उनके विषय तथा उसमें समाहित संवेदना की उच्चता तक ले जाने में कहानीकार असफल से दिखे हैं. ‘कन्या’ कहानी जहाँ कन्या भ्रूण हत्या जैसे अतिसंवेदनशील विषय को उठाती है वहीं ‘त्रासदी’ के द्वारा समाज के किन्नर समाज की मनोदशा और उसके प्रति सोच को उभारने के साथ ही किसी किन्नर की संवेदनशीलता को भी उकेरा गया है. ऐसे ज्वलंत और संवेदित विषयों को उठाने के बाद भी दोनों कहानियाँ उस चरम को नहीं छू पाती हैं, जिनकी अपेक्षा ऐसे विषयों में पाठकों द्वारा की जाती है. ‘कन्या’ कहानी समस्या को उठाती है किन्तु अत्यंत साधारण रूप से. ‘एक स्त्री दूसरी स्त्री के ऊपर तीसरी स्त्री के वजूद में न आने देने के लिए इतना दबाव डाल सकती है, अपने कृत्य पर हर्षित हो सकती है?’ तथा ‘जो दवाएँ प्राण ले सकती हैं, एक अजन्मे को संसार में आने से रोक सकती हैं, वह भला किसी पौधे के लिए उर्वरा कैसे बन सकती हैं?’ जैसे गंभीर चिंतन के बाद भी कहानी अपना उत्स प्राप्त नहीं कर पाती है, पाठक-मन को उद्देलित नहीं कर पाती है. एक तरह की ऊहापोह में समाप्त कहानी संभवतः कहानीकार के उर्वर मन-मष्तिष्क की उपज भी हो सकती है, जिसमें वह पाठकों पर अपना निर्णय न थोपकर उन्हें ये सोचने के लिए स्वतंत्र कर देता है कि गर्भपात हेतु दी गई गोलियां न खाने के पश्चात् राज खुलने पर उस माँ के साथ उसके पति, उसकी सास का बर्ताव क्या, कैसा रहेगा, जिस माँ की अन्तरात्मा गर्भ में पल रही बच्ची को बचाने को प्रेरित करती है. कुछ इसी तरह का खालीपन, अधूरापन ‘त्रासदी’ में भी परिलक्षित होता है. अनछुए पहलू को उठाकर कहानीकार कहानी आगे तो बढ़ाता है किन्तु उसे चरमोत्कर्ष तक नहीं पहुँचा पाता है. संभवतः कहानी का फलक विस्तीर्ण होने के कारण तथा उसे कहानी की परिधि से बाहर न निकलने देने की अपनी साहित्यिक मजबूरी के चलते कहानीकार ने कहानी की गति को अतिशय तीव्रता प्रदान कर सुन्दरी और रति की भांति ही उसे प्लेटफ़ॉर्म पर ढहा दिया. यदि ‘त्रासदी’ को सुन्दरी और रति के जीवन तक की सीमितता में विकसित किया जाता, एक किन्नर और एक विधवा स्त्री के अशरीरी संबंधों के आलोक में कहानी को आगे बढ़ाया जाता तो संभव है कि एक उत्कृष्ट रचना हिन्दी कथा-साहित्य को अवश्य ही प्राप्त होती.
वर्तमान समीक्ष्य कहानी-संग्रह अपने शीर्षक ‘लाल डोरा’ के द्वारा जितना प्रभावित करता है, ये कहने में गुरेज नहीं कि उसकी कहानियाँ उतना प्रभावित नहीं करती हैं. वर्तमान साहित्य परिदृश्य में जिस तरह की कहानियों की अपेक्षा महेन्द्र भीष्म जैसे कथाकार से की जा सकती है कम से कम वैसी कहानियाँ पढ़ने को नहीं मिली. लगभग सभी कहानियाँ एक सपाट रूप से बजाय किस्स्गोई कहने के भागती सी नजर आती हैं. बंधी-बंधाई लीक पर, पूर्व चिर-परिचित विषयों के साथ प्रस्तुत कहानियाँ मन को छूती सी नहीं लगती हैं, किसी विषय पर सोचने को विवश नहीं करती, मन में छटपटाहट को पैदा नहीं करती, संवेदना के स्तर पर आकुलता नहीं भरती. बहुतायत कहानियों में कहानी आरम्भ होने के साथ ही उसे समाप्ति बिंदु पर पहुँचाने की आकुलता, आतुरता कहानीकार में देखने को मिलती है. संभवतः है कि ऐसा होने के पीछे कथा को विस्तार देने और फिर उसे कहानी के रूप में समेटने का द्वंद्व कहानीकार की कलम पर हावी रहा होगा. अपनी धरती, अपनी बोली के प्रति प्रेम, स्नेह दर्शाने हेतु कहानीकार महेन्द्र भीष्म साधुवाद के पात्र हैं. ‘एक बूढ़े की गुजरती शाम’ और ‘ततास’ के द्वारा बुन्देली भाषा में संवाद अदायगी और ‘अन्तराल’ में स्थान-नाम के द्वारा वे ऐसा करते आगे बढ़ते हैं. समीक्ष्य रूप में कहा जाए तो महेन्द्र भीष्म का कथाकार व्यक्तित्व इस कहानी-संग्रह में उभरकर सामने नहीं आ पाया है. बहुधा कहानियाँ किसी नए लेखक की कलम से उपजी सी प्रतीत होती हैं. संभव है कि इस संग्रह की कई कहानियाँ महेन्द्र जी की आरंभिक कहानियाँ हों क्योंकि बहुतायत कहानियों का शिल्प, कथ्य और उनका वातावरण, देशकाल वर्तमान की अनुभूति सी नहीं करवा पाता है. यद्यपि किसी भी कहानी को लिखने के पीछे कहानीकार का अपना मंतव्य, अपनी मनोदशा, अपनी सोच काम करती है तथापि ऐसा ही कुछ समीक्षक/आलोचक पर भी प्रभावी होता है. इसी कारण से ‘लाल डोरा’ की अनेक कहानियाँ प्रभावित किये बिना आँखों के सामने से गुजरती रहती हैं.
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डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर,
सम्पादक – स्पंदन, मेनीफेस्टो
संपर्क - 09415187965


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