आत्म-पुनर्वास भी
जियें
हम हिरण्य-वास जी
चुके, निर्जन निर्वास भी जियें !
तन का इतिहास ही
नहीं, मन का इतिहास भी जियें !
एक अन्तहीन ज्वार
ने
सप्त-सिन्धु एक कर
दिये,
अश्रु के त्रिलोकी
दृग में
लीलाधर रूप भर
दिये,
खण्ड-खण्ड श्वास जी
चुके, चक्रवात रास भी जियें !
सूर्यमुखी आग पी
रहे
चंद्रमुखी तृप्ति
के लिये,
एक बिम्ब से जुड़े
हुए
सृष्टि से विभक्ति
के लिये,
स्वप्नजात
इन्द्रजाल में
मन्वन्तर-कल्प खो
गये,
होना था कल कि जो
हमें
इस पल ही आज हो
गये,
विस्थापन-त्रास जी
चुके, आत्म-पुनर्वास भी जियें !
शब्द-सिद्ध
अन्तरिक्ष में
अंतर्ध्वनि लीन हो
गयी,
रस-विमुग्ध
लय-समाधि में
चेतना प्रवीण हो
गयी,
मुक्ति का प्रयास
जी चुके, मुक्ति अनायास भी जियें !
प्रोफे. रामस्वरूप
‘सिन्दूर’
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