जैसे बना मैं वैसे
रहा, ज़िंदगी के पास !
अँधियारा छोड़ जाता
रहा, रौशनी के पास !!
वो झील में, घाटी
में, समन्दर में क्या मिले,
ज़िद करके मेरी
प्यास रुकी है नदी के पास !
मैं दोस्ती
के हाथ मात
खाता रहा हूँ,
लड़ने का और ढंग,
मेरी दुश्मनी के पास
!
वो शख्स मेरा
यार-व्यार कुछ भी नहीं है,
दिल छोड़ के सब-कुछ
है उस आदमी के पास !
सब कुछ है
मुझ में, दुश्मनी, जज़्बा नहीं है,
जो चाहे चला आये
मेरी, मेरी दोस्ती के पास !
‘सिन्दूर’ के
अन्दाज़ से मत खुद को देखिये,
कुछ ख़ास चीज होती
है हर आदमी के पास !
बहुत ही यथार्थपरक और सुंदर कविता।
ReplyDeletebahut badhiya !
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