Saturday, March 29, 2014

रूप, विरूप जिया, या रूप अनूप जिया ! - प्रोफे. राम स्वरुप सिन्दूर

मैंने जीवन का अभिनव प्रारूप जिया !
रूप, विरूप जिया, या रूप अनूप जिया !

टूटा बंधन एक, मुक्ति मिल गयी मुझे
मेरा शून्य न रह पाया सीमांकन में,
गीतों से जुड़ गए तार इन श्वांसों के
तृप्ति अमृत की मिली मुझे अहि-दंशन में,
मैं घट-घट में, एक सोमरस कूप जिया !
रूप, विरूप जिया, या रूप अनूप जिया !

मैं अभाव का ऋणी, विभव पर ऋण मेरा
मेरी गणना होती है अपवादों में ,
मुझ को साक्षर संवेदन गा पता है
मैं गुंजन हो जाता हूँ , अवसादों में ,
हर पल रंक जिया मैं , हर पल भूप जिया !
रूप, विरूप जिया, या रूप अनूप जिया !

मैं बड़वानल भी हूँ , मैं दावानल भी
वास सिन्धु में करूँ, प्रवास तपोवन में ,
स्वप्नों का संवास मेघ-मालाओं में ,
तन से बाहर रहता है मन , सावन में ,
मैं रवि हूँ , मैं छाया में भी धुप जिया !
रूप, विरूप जिया, या रूप अनूप जिया !

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