Monday, March 10, 2014

न मैंने देखे कभी तख्तो-ताज के सपने - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

बिछड़ के तुझसे एक उम्र मैं उदास रहा !
खुदी  से  दूर, बेख़ुदी के  आसपास रहा !!

न ग़मगुसार रहा जो, न गमगियास रहा !
जुनेने-शौक के  धोखे में  बदहवास रहा !!

उसे  कहूँ तो  किस  तरह से  कहूँ  बेगाना ,
न  दूर-दूर  रहा  वो, न  पास-पास  रहा !

तमाम  रंग  भर  दिए  जहान  में  जिसने ,
वो  रंगरेज़,  यहाँ  जोगिया  लिबास  रहा !

न मैंने देखे कभी तख्तो-ताज के सपने ,
तमाम  उम्र   कोहेनूर  मेरे  पास  रहा !

किसे पता है कि 'सिन्दूर' की  निगाहों मे ,
न कोई आम रहा, औ ' न कोई ख़ास रहा !

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