याद आया ये आज कौन इतनी रात ढले !
सूने कमरे में जैसे कोई दबे पाँव चले !
पहली बारिश भी कहाँ दे गई पनाह मुझे,
स्याह अलकों में छिपी घोर घटाओं के तले !
दर्द सहने की महारत-सी हो गई है मुझे,
बर्फ़ के दिल पे रखी आग कितनी देर जले !
पानी-पानी है रात, पास मैकदा भी नहीं,
याद तो उसकी हाथ धो-के पड़ी मेरे गले !
नफ़स-नफ़स मेरी हर लम्हा गुनगुनाती रहे,
ज़िंदगी और छले, और छले, और छले !
ख़बर कहाँ है 'सिन्दूर' ज़िंदगी को अभी,
मैं उसके साथ चलूँ , मौत मेरे साथ चले !
सूने कमरे में जैसे कोई दबे पाँव चले !
पहली बारिश भी कहाँ दे गई पनाह मुझे,
स्याह अलकों में छिपी घोर घटाओं के तले !
दर्द सहने की महारत-सी हो गई है मुझे,
बर्फ़ के दिल पे रखी आग कितनी देर जले !
पानी-पानी है रात, पास मैकदा भी नहीं,
याद तो उसकी हाथ धो-के पड़ी मेरे गले !
नफ़स-नफ़स मेरी हर लम्हा गुनगुनाती रहे,
ज़िंदगी और छले, और छले, और छले !
ख़बर कहाँ है 'सिन्दूर' ज़िंदगी को अभी,
मैं उसके साथ चलूँ , मौत मेरे साथ चले !
No comments:
Post a Comment