मैं घर-द्वार छोड़ कर भटकूँ,
वन-वन विजन-विजन में !
बड़ी विसंगतियां होती हैं ,
छोटे-से जीवन में !
पीड़ा जितनी बढ़े, बढ़े उतनी ही नादानी,
अपनी बानी भूल, सीख-ली निर्जन की बानी,
कोई भी अंतर न रह गया,
गुंजन औ' क्रंदन में !
घाटी उतरे देह, प्राण पर्वत-पर्वत डोले,
अधर-धरी बाँसुरी, स्वगत की भाषा में बोले,
संवेदन करुणा में बदले
करुणा संवेदन में !
झील आँख नम कर जाये, आंसू अनुपात हरे,
अस्तंगत सूरज कुहरे में सौ-सौ रंग भरे,
रूप, दिखे पहले-जैसा
जल के अन्धे दरपन में !
वन-वन विजन-विजन में !
बड़ी विसंगतियां होती हैं ,
छोटे-से जीवन में !
पीड़ा जितनी बढ़े, बढ़े उतनी ही नादानी,
अपनी बानी भूल, सीख-ली निर्जन की बानी,
कोई भी अंतर न रह गया,
गुंजन औ' क्रंदन में !
घाटी उतरे देह, प्राण पर्वत-पर्वत डोले,
अधर-धरी बाँसुरी, स्वगत की भाषा में बोले,
संवेदन करुणा में बदले
करुणा संवेदन में !
झील आँख नम कर जाये, आंसू अनुपात हरे,
अस्तंगत सूरज कुहरे में सौ-सौ रंग भरे,
रूप, दिखे पहले-जैसा
जल के अन्धे दरपन में !
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