मैंने अपने जन्मान्तर को,
भाषान्तर में गाया !
कविता में अकथ कथान्तर
को, गीतान्तर में गाया !
अक्षर-अक्षर
स्वर-लिपियों में अनुगुन्जन ढल जाता है,
ध्वनि-मुद्रित शब्द-शब्द
में कोई छन्द उभर आता है,
मैंने अपने भावान्तर को,
भाषान्तर में गाया !
निर्वचन हुए अर्थान्तर
को, गीतान्तर में गाया !
रस-चक्रव्यूह भेदन कर
मैंने काया-कल्प किया है,
निर्झर से घाटी में उतरी
गति का संगीत जिया है,
मैंने अपने रूपान्तर को,
भाषान्तर में गाया !
प्रान्तर-प्रान्तर
देशान्तर को, गीतान्तर में गाया !
मैं आत्म निरति में डूब
नाद के तलमें लौट गया हूँ,
भूला श्रुतियों को
श्रुति के पहले पल में लौट गया हूँ,
मैंने अपने लोकान्तर को,
भाषान्तर में गाया !
ठहरे-ठहरे कालान्तर को,
गीतान्तर में गाया !
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