Sunday, August 17, 2014

आत्म-पुनर्वास भी जियें - प्रोफे. राम स्वरुप सिन्दूर


हम हिरण्यवास जी चुके , निर्जन निर्वास भी जियें !
तन का इतिहास ही नहीं , मन का इतिहास भी जियें !!

एक अंतहीन ज्वार में
सप्त-सिन्धु एक कर दिये ,
अश्रु के त्रिलोकी दृग में
लीलाधर रूप भर  दिये ,
खण्ड-खण्ड श्वास जी चुके , चक्रवात रास भी जियें !

सूर्यमुखी आग पी रहे
चंद्रमुखी तृप्ति के लिये ,
एक बिम्ब से जुड़े हुए
सृष्टि से विभक्ति के लिये ,
शून्य का प्रवास जी चुके , प्राकृत सन्यास भी जियें !

स्वप्नजात इंद्रजाल में
मन्वन्तर-कल्प खो गये ,
होना था कल कि जो हमें
इस पल ही आज हो गये ,
विस्थापन -त्रास जी चुके , आत्म पुनर्वास भी जियें !

शब्द-सिद्ध अन्तरिक्ष में
अंतर्ध्वनि लीन हो गयी ,
रस -विमुग्ध लय-समाधि में
चेतना प्रवीण हो गयी ,
मुक्ति का प्रयास जी चुके , मुक्ति अनायास भी जियें !





 

 



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