Saturday, August 9, 2014

नर हो न निराश करो मन को - मैथली शरण गुप्त

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो , जग में रहकर कुछ काम करो ,
यह जन्म हुआ कुछ अर्थ अहो , समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को , नर हो न निराश करो मन को !

संभलो कि सुयोग न जाय चला , कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना , पथ आप प्रशस्त करो अपना !
अखिलेश्वर हैं अवलम्बन को , नर हो न निराश करो मन को !

निज गौरव का नित ज्ञान रहे हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे ,
सब जाप अभी , पर मान रहे , मरणोत्तर गुंजित गान रहे !
कुछ हो न तजो निज साधन को , नर हो न निराश करो मन को !

प्रभु ने तुमको कर दान किये , सब वांछित वस्तु विधान किये ,
तुम प्राप्त करो उनको न अहो फिर है यह किसका दोष कहो ,
समझो न अलभ्य किसी धन को , नर हो न निराश करो मन को !

किस गौरव के तुम योग्य नहीं , कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं ,
जन हो तुम भी जगदीश्वर के , सब हैं जिसके अपने घर के ,
फिर दुर्लभ क्या उनके जन को , नर हो न निराश करो मन को !

करके विधिवाद न खेद करो , निज लक्ष्य निरंतर भेद करो ,
बनता बस उद्यम ही विधि है , मिलती जिससे सुख की निधि है ,
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को , नर हो न निराश करो मन को !



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