ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है !
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है !!
ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते !
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है !!
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है !!
ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते !
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है !!
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं !
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है !!
ज़मीं की कैसी वक़ालत हो फिर नहीं चलती !
जब आसमां से कोई फ़ैसला उतरता है !!
तुम आ गये हो तो फिर चाँदनी सी बातें हों !
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है !!
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है !!
ज़मीं की कैसी वक़ालत हो फिर नहीं चलती !
जब आसमां से कोई फ़ैसला उतरता है !!
तुम आ गये हो तो फिर चाँदनी सी बातें हों !
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है !!
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