छुम-छम-छम बरसे नीर, न तुम आना !
कितनी भी कसके पीर, न तुम आना !
बूंदों पर गड़ जाती होंगी अँखियाँ,
कुछ खिंची-खिंची-सी सरसिज की पखियाँ,
रोमावालियाँ लहरा जाती होंगी
रो-रो देती होंगी हठ की सखियाँ,
वौछार होंठ बिन छुये न जब माने,
मुड़ना, गह उड़ता चीर, न अकुलाना !
छुम-छम-छम बरसे नीर, न तुम आना !
कितनी भी कसके पीर, न तुम आना !
कुछ देर बाद बादल उड़ जायेंगे,
देखा जायेगा जब फिर आयेंगे,
पर अनिल और रस में सन जायेगी
सासों के पग कैसे चल पायेंगे,
सोया होगा दीपक, न चंचला से
लखना मेरी तस्वीर, मान जाना !
छुम-छम-छम बरसे नीर, न तुम आना !
कितनी भी कसके पीर, न तुम आना !
अब खो लेता हूँ मैं अपनेपन में,
मन लगता तब तक रहता इस तन में,
जी चाह रहा पर आज खूब तड़पूं
उलझा-उलझा लोचन हर जल-कन में,
मेरे सुख-दुख का ध्यान अगर आये,
निशि में न पढ़ाना कीर, तरस खाना !
छुम-छम-छम बरसे नीर, न तुम आना !
कितनी भी कसके पीर, न तुम आना !
प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’
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