मैं अपने ही अधर चूम लूँ दरपन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !
अधरों पर धर गया बाँसुरी लीलाधर-बादल
कोई,
मैं जितना जागा-जागा, संसृति उतनी सोयी-सोयी,
बिजली कौंधे, आग लगे चन्दन-वन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !
आँखों की झील में तैरता सपना एक
शिकारे-सा,
तन की घाटी में बजता है भीगा मन
इकतारे-सा,
प्राणों में साकेत, प्राण वृन्दावन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !
प्राणों
खारे सागर में उभरी हैं तल-तक डूबी
सरिताएं,
महामौन में अनुगुंजित आदिम यौवन की
कविताएं,
होना है नौका-विहार, जलप्लावन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !
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