भर आया क्यों नीर नयन में
मैं समीप बैठा हूँ तेरे,
तुझको मेरी छाया घेरे,
मुक्त, मृदुल-शीतल समीर ने,
पीर कौन ढाली तन-मन में !
भर आया क्यों नीर नयन में
तू अपलक कुछ देख रही थी,
किसने तेरी दृष्टि गही थी,
अब न ठीक से मुख भी अपना
दिखता होगा उस दर्पन में !
भर आया क्यों नीर नयन में !
आज रात क्या नींद न आई,
इस बेला में तू अलसाई,
चल, श्रंगार करूँ मैं तेरा
हरसिंगार झरते उपवन में !
भर आया क्यों नीर नयन में !
No comments:
Post a Comment