Thursday, April 17, 2014

अपने टुकड़े को धकेलता मै एक गुबरैला - कश्यप किशोर मिश्रा


जिन दिनों मै खाली रहता हूँ,
यहाँ खाली होने का मतलब, उन दिनों से है
जिस दौरान मेरा लिखना पढ़ना रुका होता है|
तो इन खाली दिनों में,
बिना किसी हील हुज्जत के,
मै बस खाली हो जाता हूँ|

इन खाली दिनों के दौरान,
अक्सर मै अपने पते पर नहीं मिलता|
घर के पेड़ पौधों को दुलराते भी नहीं दिखता
न ही सुनता हूँ “कुमार गंधर्व” या
जगजीत सिंह का संगीत|
ना ही किसी सुदूर पहाड़ की चोटी पर,
अपने नोट-पैड के साथ चला जाता हूँ|
इन खाली दिनों में,
अक्सर अपने साथ मै कुछ नहीं रखता|
पिट्ठू थैला, थैले में एक गमछा, एक कैमरा,
पानी की बोतल और कुछ रूपये, जो वाकई कुछ ही रहते है|
तो निकल पड़ता हूँ बस इतने से सामान के साथ किसी भी तरफ|
शहर में ही, या गाव में हुआ तो गावों की तरफ|
यह निकल पड़ना, अक्सर पैदल ही होता है,
जो कभी-कभी बैलगाड़ी इक्का या किसी साईकिल वाले से मदद तलब होकर आराम भी कर लेता है|
गावं के सीवान से सटा काली माँ का चौर मान लीजिये मेरा ठिकाना है,
तो करीब-करीब पूरा एक दिन बस वहीँ बिता देता हूँ |
या घर से निकलते बस एक मील के फ़ासले पर,
सड़क को काटती जो नहर है,
उसकी पुलिया से उतर जाता हूँ नीचे|
ठीक पुलिया के नीचे जगह तलाशता हूँ, बैठ जाता हूँ|
कभी-कभी मुहल्लेवाले पार्क की पानी की टंकी के नीचे बिता देता हूँ, एक पूरा दिन|
और कभी-कभी ऐसा भी करता हूँ,
कि चहल-पहल बाजार में,
तलाश लेता हूँ, एक छुपा-छुपा कोना,
बस वही बैठ जाता हूँ|
एक दम खाली मन से,
खाली ख्यालों के साथ,
बस वक़्त को गुजरते रहने देता हूँ,
एकदम खाली-खाली|
...और जब सोचता हूँ, अब चला जाये|
तो सामने की दुनिया गोबर सी लगती है,
और मै,
अपने हिस्से के दुनिया के टुकड़े को धकेलता एक गुबरैला |

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