Monday, April 21, 2014

खुद से झूठ बोलती औरतें - मृदुला शुक्ला

खुद से झूठ बोलती औरतें
पिता द्वारा
अपने आस पास खींचे
गए वृत्त में बंधी
गाय की तरह
पगहे में लवराई लडकियां
जा सकती हैं दूर तक टूंगते हुए,
हरे भरे घास के मैदानों में

पगहे की सीमा समाप्त होते ही
लौट आती हैं रंभाती हुई
आँखों से छलकाती स्नेह का प्रतिदान



वृताकार मैदानों का चौरस हो जाना
हरा भरा होना,
पगहे का मैदानों के आखिरी छोरों तक
विस्तारित होते जाना
स्नेह में दया
प्रतुत्तरमें कृतज्ञता
ये तय होते है
सशर्त स्नेह के नए
अलिखित माप दंड

अपने मन पर महसूसती हुई
सीमा रेखाओं की खरोंचे
वे स्वांग करती हें
असीमित होने के सुख
से अपरिचय का

परिधियों की रेखाओं को
स्वीकारते हुए अपनी हथेली पर
वे उसे विलीन मान लेती हैं अपनी
भाग्यरेखा से,

वे जानती हैं बेहतर तरीके से
रेखाएं निर्धारित करती हैं सीमा
खुद सीमाओं में बंधे होने पर भी
वो हथेली पर हों या की
किसी वृत्त की परिधि पर

दरअसल वे सच नहीं बोलती
वो खुद से बोलती हैं एक बहुत बड़ा झूठ
वे भले से जानती हैं ,सच बोल कर भी क्या होगा...........

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