दिव्या शुक्ला एक सशक्त हस्ताक्षर हैं इनकी रचनाएँ मर्म स्पर्शी होती हैं ....................
जाओ तुम भी ना
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थाम कर मेरी हथेली
न जाने किस रौ में उस शाम
अनगिनत शब्द उकेरे थे तुमने
न जाने कितनी बार
लिखा तर्जनी के पोरों से
अपना ही नाम -
मानो मेरी भाग्यरेखाओं से
खुद को बांध रहे हो --
खिलखिला कर हंस रही थी मै
गोल गोल बड़ी बड़ी आँखों से घूरा
तुमने खीझ कर मुझे -और मै ?
मै तो उस पल मौन हो गई मुस्कान दबा कर
आज न क्यूँ फिर याद आये वो पल
देर तक देखती रही अपने दोनों हाथो को
वो अक्षर ढूंढ रही थी -वो यही थे अभी तक
पसीजी हुई हथेलियों से अपना ही मुख ढांप लिया
सुनो देखो तो सारे शब्द उभर आये - मेरे चेहरे पर
अरे तुम कहाँ हो - कहाँ खो गए हो --
क्या कहीं और उकेर रहे हो यही शब्द -
उफ़ तुमसे ये उम्मीद न थी
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