Saturday, June 21, 2014

दोपहरी में छाँव लिखूं , - अभिनव अरुण

दोपहरी में छाँव लिखूं ,
जब भी अपना गाँव लिखूं |

जन्नत की जब बात चले ,
अपनी माँ के पांव लिखूं |


पांचाली की पीर बढ़ी ,
दुर्योधन के दांव लिखूं |

दिल दिल्ली से टूटा है,
खुल के अब डुमरांव लिखूं |

सड़कों पर विश्राम नहीं ,
पगडण्डी की ठांव लिखूं !

1 comment:

  1. हार्दिक रूप से आभार आदरणीय श्री अनिल सिन्दूर जी ! हिंदी साहित्य के उन्नयन और प्रसार में आपके ब्लॉग की भूमिका सराहनीय है | मेरी रचना स्थान पा अनुगृहित हुई | साधुवाद !!

    अभिनव अरुण
    वाराणसी

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