मन तुम घर से बाहर निकलो
अरे कभी तो किसी नज़र के
कोमल भावों बिक लो
ऐसे बने घमंडी बैठे
जैसे महापुरुष हो
या फिर स्रष्टा चित्रकार के
कर में गहे बुरुश हो
तुम ही इसे चलाते
सारे भगत जगत के , केवल
कीर्ति तुम्हारी गाते
अरे कभी तो रूप-धूप की
किरणों में भी सिक लो
लच्छन ठीक तुम्हारे ऐसे
जैसे मिली महंती
या फिर हुये छोड़ कर सब कुछ
पूरे कबिरापंथी
सूरत-शक्ल बनाये जैसे चढ़ी हुई मनहूसी
दाना-पानी छूट गया हो
सिर्फ खा रहे भूसी
अरे कभी दुनियादारी की
लहरों पर भी फिक लो
अरे कभी तो किसी नज़र के
कोमल भावों बिक लो
ऐसे बने घमंडी बैठे
जैसे महापुरुष हो
या फिर स्रष्टा चित्रकार के
कर में गहे बुरुश हो
तुम ही इसे चलाते
सारे भगत जगत के , केवल
कीर्ति तुम्हारी गाते
अरे कभी तो रूप-धूप की
किरणों में भी सिक लो
लच्छन ठीक तुम्हारे ऐसे
जैसे मिली महंती
या फिर हुये छोड़ कर सब कुछ
पूरे कबिरापंथी
सूरत-शक्ल बनाये जैसे चढ़ी हुई मनहूसी
दाना-पानी छूट गया हो
सिर्फ खा रहे भूसी
अरे कभी दुनियादारी की
लहरों पर भी फिक लो
No comments:
Post a Comment