मुझे याद है
मेरी बस्ती के सब पेड़
पर्वत, हवाएं , परिंदे मेरे साथ रोते थे
मेरे ही दुःख में
दरिया किनारों पे सर को पटकते थे
वही जुगनुओं की
चरागों की
बिल्ली की आँखों की ताबन्दगी थी
नदी मेरे अन्दर से गुजरती थी
आकाश ........................
आँखों का धोखा नहीं था
ये बात उन दिनों की है
जब इस जमीं पर
इबादत घरों की ज़रूरत नहीं थी
मुझी में
खुदा था !
मेरी बस्ती के सब पेड़
पर्वत, हवाएं , परिंदे मेरे साथ रोते थे
मेरे ही दुःख में
दरिया किनारों पे सर को पटकते थे
वही जुगनुओं की
चरागों की
बिल्ली की आँखों की ताबन्दगी थी
नदी मेरे अन्दर से गुजरती थी
आकाश ........................
आँखों का धोखा नहीं था
ये बात उन दिनों की है
जब इस जमीं पर
इबादत घरों की ज़रूरत नहीं थी
मुझी में
खुदा था !
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