Sunday, May 25, 2014

मन तुम क्यों छिपकर रोते हो - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन तुम क्यों छिपकर रोते हो
क्यों अपने ये ओंठ सी लिये
क्यों जीवन खोते हो

जो कुछ चला गया जाने दो
करो न उसकी चिंता
कुछ तो है अस्तित्व तुम्हारा
बित्ता या दो बित्ता
उतना ही लेकर जी डालो
शेष उमर कुछ करते
इसी तरह तुम खालीपन को
रहो गीत से भरते

क्यों तुम अपनी ही राहों पर
खुद कांटे बोते हो

जिनसे तुमने नाता जोड़ा
उनके भी थे नाते
इसीलिए अपनी गलती का
तुम यह फल थे पाते
अब अपनी तुम दिशा बदल लो
अपने अन्दर जाओ
और वहीँ से तुम रागों की
फिर बांसुरी बजाओ

उस अमराई में भी रह लो
जिसके तुम तोते हो

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