Monday, May 5, 2014

कौन बसा है दिल में मेरे , ये भी भूल गया हूँ मैं ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

कौन बसा है दिल में मेरे , ये भी भूल गया हूँ मैं !
आँखों में सूरत न किसी की , किस को ढूढ़ रहा हूँ मैं !!

चार बड़ी सी दीवारों में , रहने को , रहता हूँ मैं !
ठौर-ठिकाना कोई पूछे , चुप कर रह जाता हूँ मैं !!

मंजिल मिल पाना मुश्किल था , वो ही पा ही ली मैंने ,
अब क्या है जो साँझ-सकारे , बच्चों सा रोता हूँ मैं !

सब कुछ भूल चूका था फिर भी , बाक़ी क्या-कुछ यादों में !
सोचा था , मर गया कभी का , लगता है ज़िन्दा हूँ मैं !

सोते में चलने की आदत , मुझको राहत देती है !
जाने किस को गाते-गाते , ख़ुद को गा उठता हूँ मैं !

मैं तन-मन के साथ रहा हूँ , तन-मन साथ रहे मेरे ,
अब ये छोड़ चले हैं मुझको , इन को छोड़ चला हूँ मैं !

इश्क़ कहे तू राजपुरुष है , अश्क कहे 'सिन्दूर' है तू !
दो छोरों पर फँसे तार का , बजता इकतारा हूँ मैं !



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