सुकुमार चाँदनी रही झूल उन्मत्त चाँद की बाँहों में !
उर पर लहरे काले कुंतल ,
ज्यों उमड़ चली यमुना की लहरें
लो डूब गये दो ताजमहल ,
पुलकित सपनों की चहल-पहल ,
किरणें भोलापन गयीं भूल , ताम-सघन कुञ्ज की छांहों में !
अधरों पर जूही उठी विहँस ,
आकाश-कुमुदनी की पाँखुरियाँ
अंग-अंग पर गयीं बरस ,
मन हरसिंगार-सा उठा विकस ,
खिल उठे स्पर्श के विपुल फूल , रस-स्निग्ध प्रणय की राहों में !
नत पलकों में अधमुंदे भँवर ,
ज्यों खोल रहे धीरे-धीरे -
घन वरुनिजाल में उलझे पर ,
सांसें सुनती सांसों के स्वर ,
खिंच गया लाज का श्लथ दुकूल , अनगिन अनबोली चाहों में !
उर पर लहरे काले कुंतल ,
ज्यों उमड़ चली यमुना की लहरें
लो डूब गये दो ताजमहल ,
पुलकित सपनों की चहल-पहल ,
किरणें भोलापन गयीं भूल , ताम-सघन कुञ्ज की छांहों में !
अधरों पर जूही उठी विहँस ,
आकाश-कुमुदनी की पाँखुरियाँ
अंग-अंग पर गयीं बरस ,
मन हरसिंगार-सा उठा विकस ,
खिल उठे स्पर्श के विपुल फूल , रस-स्निग्ध प्रणय की राहों में !
नत पलकों में अधमुंदे भँवर ,
ज्यों खोल रहे धीरे-धीरे -
घन वरुनिजाल में उलझे पर ,
सांसें सुनती सांसों के स्वर ,
खिंच गया लाज का श्लथ दुकूल , अनगिन अनबोली चाहों में !
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