Friday, October 28, 2022

हम निकल पाये न पिंजरे तोड़कर - विनोद श्रीवास्तव

 हम निकल पाये न पिंजरे तोड़कर  

बादलों ने फिर कहा 

आओ चलें घर छोड़कर

चाहकर भी हम 

निकल पाये न पिंजरे तोड़कर


आँख खुलते ही खड़ी मिलती 

हजारों ख्वाहिशें 

घेरकर रखतीं हमेशा प्रार्थनायें आयतें 



यों न आया जा रहा 

घर - द्वार से मुंह मोड़कर 

चाहकर भी हम 

निकल पाये न पिंजरे तोड़कर 


बालपन से आज तक

घुमड़ी घटा से प्यार है 

पर हमारे पास तो बस 

जेब है बाज़ार है 


फिर भला आ जायें कैसे 

सिर्फ खालें ओढ़कर

चाहकर भी हम 

निकल पाये न पिंजरे तोड़कर 


बादलों ! जो है तुम्हारे गाँव 

हम सब के बनें 

गर्जना हो बिजलियाँ हों

छतरियां जल की तनें


दौड़ आयेगा 

हिरन - मन मुग्ध सपने जोड़कर 

चाहकर भी हम 

निकल पाये न पिंजरे तोड़कर