हम निकल पाये न पिंजरे तोड़कर
बादलों ने फिर कहा
आओ चलें घर छोड़कर
चाहकर भी हम
निकल पाये न पिंजरे तोड़कर
आँख खुलते ही खड़ी मिलती
हजारों ख्वाहिशें
घेरकर रखतीं हमेशा प्रार्थनायें आयतें
यों न आया जा रहा
घर - द्वार से मुंह मोड़कर
चाहकर भी हम
निकल पाये न पिंजरे तोड़कर
बालपन से आज तक
घुमड़ी घटा से प्यार है
पर हमारे पास तो बस
जेब है बाज़ार है
फिर भला आ जायें कैसे
सिर्फ खालें ओढ़कर
चाहकर भी हम
निकल पाये न पिंजरे तोड़कर
बादलों ! जो है तुम्हारे गाँव
हम सब के बनें
गर्जना हो बिजलियाँ हों
छतरियां जल की तनें
दौड़ आयेगा
हिरन - मन मुग्ध सपने जोड़कर
चाहकर भी हम
निकल पाये न पिंजरे तोड़कर