Tuesday, March 31, 2020
सीने से लगाना चाहिये - प्रोफ़े. रामस्वरूप सिन्दूर
झुक गये काँधों को फिर से आज़माना चाहिये |
इन को कुछ दिन बोझ तेरा भी उठाना चाहिये ||
हिचकियाँ आईं तो उस की, याद आकर रह गयी,
दिल ये कहता है उसे इस सिम्त आना चाहिये |
ये दरो-दीवार तेरे कान में कहने लगे,
अब तो तुझको और ही कोई ठिकाना चाहिये |
साथ तेरे कौन है इससे तुझे निस्बत नहीं,
ग़ैर को भी गमसुमारी का बहाना चाहिये |
तू बड़ा शायर है तो इन्सान उससे भी बड़ा,
ये हकीक़त अब जहाँ को, मान जाना चाहिये |
जो न समझे शेर, लेकिन साथ दे 'सिन्दूर' का,
ऐसा भोला दोस्त सीने से लगाना चाहिये |
इन को कुछ दिन बोझ तेरा भी उठाना चाहिये ||
हिचकियाँ आईं तो उस की, याद आकर रह गयी,
दिल ये कहता है उसे इस सिम्त आना चाहिये |
ये दरो-दीवार तेरे कान में कहने लगे,
अब तो तुझको और ही कोई ठिकाना चाहिये |
साथ तेरे कौन है इससे तुझे निस्बत नहीं,
ग़ैर को भी गमसुमारी का बहाना चाहिये |
तू बड़ा शायर है तो इन्सान उससे भी बड़ा,
ये हकीक़त अब जहाँ को, मान जाना चाहिये |
जो न समझे शेर, लेकिन साथ दे 'सिन्दूर' का,
ऐसा भोला दोस्त सीने से लगाना चाहिये |
दिहाड़ी मजदूर - रतन कुमार श्रीवास्तव ( आई पी एस, सेवानिवृत डी आई जी )
ये जो दिहाड़ी जिंदगी,
बिखरने लगी है टूटकर !
हमवतन और वेवतन,
चलने लगे हैं छूटकर !
सड़कों पर सोने नहीं देता,
पांवों से भी चलने नहीं देता !
थक गया हूँ इस शहर में,
इस जिन्दगी से टूटकर !
धूप में जलने की कीमत,
ठंड में मरने की कीमत !
अब कोई कीमत देता नहीं,
क्या करूँ, कैसे करूँ, परिजनों से छूटकर !
घरों में कैद हैं घरोंदे वाले,
घरों से काम करते हैं घरोंदे वाले !
हम कहाँ जायें, खिलायें,
हर दर बदर से रूठकर !
काश ! कोई होंसला थोड़ा भी दे दे,
पीठ पर कोई भी अपना हाथ दे !
हम भी कुछ कर दिखायेंगे जरुर,
इन रहवरों के साथ जुड़कर !
बिखरने लगी है टूटकर !
हमवतन और वेवतन,
चलने लगे हैं छूटकर !
सड़कों पर सोने नहीं देता,
पांवों से भी चलने नहीं देता !
थक गया हूँ इस शहर में,
इस जिन्दगी से टूटकर !
धूप में जलने की कीमत,
ठंड में मरने की कीमत !
अब कोई कीमत देता नहीं,
क्या करूँ, कैसे करूँ, परिजनों से छूटकर !
घरों में कैद हैं घरोंदे वाले,
घरों से काम करते हैं घरोंदे वाले !
हम कहाँ जायें, खिलायें,
हर दर बदर से रूठकर !
काश ! कोई होंसला थोड़ा भी दे दे,
पीठ पर कोई भी अपना हाथ दे !
हम भी कुछ कर दिखायेंगे जरुर,
इन रहवरों के साथ जुड़कर !
Monday, March 30, 2020
मैंने चिंतन गहन कर लिया - कृष्ण मुरारी पहरिया
तुम्हें गर्व है, तुमने छिपकर तीर चलाये
मुझे गर्व है, मैंने उनको सहन कर लिया
तुमने मेरी शुभचिन्ता के अभिनय में जब
ठगवत अपने मीठे-मीठे बोल निकाले
तब पहले तो मुझको कुछ विश्वास हुआ था
अब समझा हूँ मीत तुम्हारे करतब काले
तुम्हें गर्व है, तुमने मुझको विष दे डाला
मुझे गर्व है, मैंने हँसकर ग्रहण कर लिया
मुस्काते हो अब तुम मेरी दशा देखकर
सोच रहे हो अंतर मेरा रोता होगा
मेरे कौशल को समझोगे आगे चलकर
तुम डूबोगे ऐसे, अन्तिम गोता होगा
तुम्हें गर्व है, तुमने मेरी पीर बढ़ाई
मुझे गर्व है, मैंने चिंतन गहन कर लिया
मुझे गर्व है, मैंने उनको सहन कर लिया
तुमने मेरी शुभचिन्ता के अभिनय में जब
ठगवत अपने मीठे-मीठे बोल निकाले
तब पहले तो मुझको कुछ विश्वास हुआ था
अब समझा हूँ मीत तुम्हारे करतब काले
तुम्हें गर्व है, तुमने मुझको विष दे डाला
मुझे गर्व है, मैंने हँसकर ग्रहण कर लिया
मुस्काते हो अब तुम मेरी दशा देखकर
सोच रहे हो अंतर मेरा रोता होगा
मेरे कौशल को समझोगे आगे चलकर
तुम डूबोगे ऐसे, अन्तिम गोता होगा
तुम्हें गर्व है, तुमने मेरी पीर बढ़ाई
मुझे गर्व है, मैंने चिंतन गहन कर लिया
Sunday, March 29, 2020
मुझको एहसास की चोटी से उतारे कोई - प्रोफ़े. रामस्वरूप सिन्दूर
मुझको एहसास की चोटी से उतारे कोई !
मेरी आवाज़ में ही मुझको पुकारे कोई !!
ज़िन्दगी दर्द सही, प्यार के क़ाबिल न सही,
मेरे रंगों में मेरा रूप संवारे कोई !
जीती बाज़ी को हार के भी मैं उदास नहीं,
मेरी हारी हुई बाज़ी से भी हारे कोई !
राख कर डाली किसी नूर ने हस्ती मेरी,
राख मल-मल के मेरी रूह निखारे कोई !
तू नहीं, चाँद नहीं और सितारे भी नहीं,
किस तरह से ये' सियह रात गुजारे कोई !
चोट पर चोट से सियाह हुआ हर पहलू,
दम निकलता है अगर फूल भी मारे कोई !
बाँसुरी-जैसी बजे घाटियों की तनहाई,
किस क़दर प्यार से 'सिन्दूर' पुकारे कोई !
मेरी आवाज़ में ही मुझको पुकारे कोई !!
ज़िन्दगी दर्द सही, प्यार के क़ाबिल न सही,
मेरे रंगों में मेरा रूप संवारे कोई !
जीती बाज़ी को हार के भी मैं उदास नहीं,
मेरी हारी हुई बाज़ी से भी हारे कोई !
राख कर डाली किसी नूर ने हस्ती मेरी,
राख मल-मल के मेरी रूह निखारे कोई !
तू नहीं, चाँद नहीं और सितारे भी नहीं,
किस तरह से ये' सियह रात गुजारे कोई !
चोट पर चोट से सियाह हुआ हर पहलू,
दम निकलता है अगर फूल भी मारे कोई !
बाँसुरी-जैसी बजे घाटियों की तनहाई,
किस क़दर प्यार से 'सिन्दूर' पुकारे कोई !
Saturday, March 28, 2020
वे चले जा रहे हैं - गौरव सोलंकी (कोरोना वायरस के दौरान लॉकडाउन में फसे मजदूरों को दृष्टिगत लिखी कविता )
वे चले जा रहे हैं
कभी इस हाथ में पकड़ते हैं बैग,
कभी दूसरे में.
एक ने तो अपनी पत्नी को ही
कंधे पर बिठा लिया है
सैकड़ों किलोमीटर के सफ़र के लिए.
मेरी भाषा की फिल्मों में उनकी कोई प्रेम कहानी नहीं
कोई स्टार ऐसा चैलेन्ज नहीं देता टिवटर पर
किसी सैल्फ डिस्कवरी के ट्रैवल वाले गाने में ये दृश्य न दिखे हैं, न दिखेंगे !
हम अपने घर में झाड़ू लगाकर, साला अपना खाना खुद बनाकर गर्व कर रहे हैं
यूरेका यूरेका ! जाम कर दिया है हमने इंटरनेट को अपने खाने की तस्वीरों को !
और ये चले जा रहे हैं बिना खाने के
बिना सवाल पूछे
बिना कोई दरवाजा खटखटाए !
इनके बच्चे थकते नहीं क्या ?
ये नहीं मांगते क्या मेक अन चीज और दूसरे हाथ में फोन ?
कैसा लगता होगा जब पिता को रास्ते में कहीं भी पुलिस पीट देती है ?
इनके लोहे के पैर हैं इनकी छाती में अथाह धीरज है
इन्होने बनाई हैं छतें और खिड़कियाँ
जिनसे ये सुन्दर सूरज दिखता है
इन्होने उगाई हैं फसलें, वे अनाज जिन्हें हमने स्टॉक कर लिया है
इन्होने अपने कन्धों पर सैंकड़ों सालों से इस पृथ्वी को ढोया है,
तो एक बैग क्या है ?
ये तो पंहुच ही जायेंगे देर सवेर,
पैरों में छाले और पीठ पर मार के निशान लेकर.
मुझे बस ये जानना है कि हम कहाँ पंहुचेगें
कौन से हैशटेग पर पंहुच कर ये हमारे कमरों से अपनी ईटें मांगेगे ?
कौन से पर हमें याद आयेगा कि किसी के हिस्से के खाने में से,
एक थाली उसे देने को
दान नहीं बोलते !
कभी इस हाथ में पकड़ते हैं बैग,
कभी दूसरे में.
एक ने तो अपनी पत्नी को ही
कंधे पर बिठा लिया है
सैकड़ों किलोमीटर के सफ़र के लिए.
मेरी भाषा की फिल्मों में उनकी कोई प्रेम कहानी नहीं
कोई स्टार ऐसा चैलेन्ज नहीं देता टिवटर पर
किसी सैल्फ डिस्कवरी के ट्रैवल वाले गाने में ये दृश्य न दिखे हैं, न दिखेंगे !
हम अपने घर में झाड़ू लगाकर, साला अपना खाना खुद बनाकर गर्व कर रहे हैं
यूरेका यूरेका ! जाम कर दिया है हमने इंटरनेट को अपने खाने की तस्वीरों को !
और ये चले जा रहे हैं बिना खाने के
बिना सवाल पूछे
बिना कोई दरवाजा खटखटाए !
इनके बच्चे थकते नहीं क्या ?
ये नहीं मांगते क्या मेक अन चीज और दूसरे हाथ में फोन ?
कैसा लगता होगा जब पिता को रास्ते में कहीं भी पुलिस पीट देती है ?
इनके लोहे के पैर हैं इनकी छाती में अथाह धीरज है
इन्होने बनाई हैं छतें और खिड़कियाँ
जिनसे ये सुन्दर सूरज दिखता है
इन्होने उगाई हैं फसलें, वे अनाज जिन्हें हमने स्टॉक कर लिया है
इन्होने अपने कन्धों पर सैंकड़ों सालों से इस पृथ्वी को ढोया है,
तो एक बैग क्या है ?
ये तो पंहुच ही जायेंगे देर सवेर,
पैरों में छाले और पीठ पर मार के निशान लेकर.
मुझे बस ये जानना है कि हम कहाँ पंहुचेगें
कौन से हैशटेग पर पंहुच कर ये हमारे कमरों से अपनी ईटें मांगेगे ?
कौन से पर हमें याद आयेगा कि किसी के हिस्से के खाने में से,
एक थाली उसे देने को
दान नहीं बोलते !
प्रतिनिधि हो गई हूँ अपने वंश की - रेनू चन्द्रा
शामिल हो गये मेरे अस्तित्व में
रुढियों की खिलाफ़त बनकर
खोया नहीं था मैंने माँ को
वह मुझमें ही समा गयी थी
स्नेह बनकर
खोया नहीं था मैंने बहन को
वह मेरे साथ ही रहने लगी
मेरे बचपना बन कर
खोया नहीं मैंने सासू माँ को
वह मुझमें झलकने लगी
उपदेश और कहावतों की शक्ल में
खोया नहीं मेरा प्यारा देवर भी
वह एकात्म हो गया मेरे साथ
दबंगी की सूरत में
खोए नहीं मेरे पिताजी
वो मेरे साथ रहने लगे हैं मुझमें
अनुशासन बन कर
मैं, सिर्फ़ मैं ही नहीं रही
प्रतिनिधि हो गई हूँ
अपने वंश की
नदी रोज पूंछा करती है - कृष्ण मुरारी पहरिया
नदी रोज पूंछा करती है, ऐसे क्यों चल दिए अकेले
वहां वही अनजान नगर है, यहाँ भावनाओं के मेले
भीड़ भरे उस कोलाहल में, पशुता के बल न्याय हो रहा
आम आदमी अब भी अपना, जीवन जैसे भार ढो रहा
शोषण - उत्पीड़न की पहले जैसी जटिल उपस्थिति जारी
चिंता - तृष्णा नृत्य कर रही, राग भरा अनुराग सो रहा
भला वहाँ पर कैसे कोई, मधुर कल्पनाओं से खेले
प्यार वहां कांटे पर तुलता, परंपरा रिश्ते रचती है
अभ्यंतर के व्यंग अंध-कक्ष में, केवल एक घृणा बचती है
और घृणा का व्यंग उभरकर, मुस्कानों में सदा खेलता
शिष्टाचार बोझ लगता है, मोह नहीं, माया पचती है
भाव वहां ऐसे बिकते हैं, ज्यों मंडी में गुड़ के मेले
वहां वही अनजान नगर है, यहाँ भावनाओं के मेले
भीड़ भरे उस कोलाहल में, पशुता के बल न्याय हो रहा
आम आदमी अब भी अपना, जीवन जैसे भार ढो रहा
शोषण - उत्पीड़न की पहले जैसी जटिल उपस्थिति जारी
चिंता - तृष्णा नृत्य कर रही, राग भरा अनुराग सो रहा
भला वहाँ पर कैसे कोई, मधुर कल्पनाओं से खेले
प्यार वहां कांटे पर तुलता, परंपरा रिश्ते रचती है
अभ्यंतर के व्यंग अंध-कक्ष में, केवल एक घृणा बचती है
और घृणा का व्यंग उभरकर, मुस्कानों में सदा खेलता
शिष्टाचार बोझ लगता है, मोह नहीं, माया पचती है
भाव वहां ऐसे बिकते हैं, ज्यों मंडी में गुड़ के मेले
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