Monday, April 13, 2020

किसी चीज की हद होती है - यश मालवीय

किसी चीज की हद होती है
जो तय हो उगते सूरज-सी
वही बात शायद होती है |

मुद्राएँ अंगारों-वाली करती दिखें चिरौरी
मानसून ने ठंडी कर दी धूप-सरीखी त्यौरी
जिसकी जड़ कांपती नहीं हो
वही शाख बरगद होती है |

भरी सुबह चेहरों पर मिलती शामों-वाली स्याही
जो   षड्यंत्रों  में   शामिल हैं  देते  वही  गवाही
सूक्ति रची जो सिंहासन ने
वही सूक्ति अनहद होती है |

लिए लाठियाँ कानूनों की हांक रहे बकरी
अपना बुना जाल है सारा कैसी अफरा-तफरी
जिन आँखों पर काले चश्मे
वही आँख संसद होती है |

अपनी परछाई पर शासन करने की बीमारी
छोटे से शीशे में उठती आदमक़द लाचारी
नींव कि जिसकी ईंट हिल रही
वही नींव गुम्बद होती है |  

Saturday, April 11, 2020

हिंसक - अनिल सिन्दूर

नाखून
हैं तो पोरों की
सुरक्षा को
लेकिन
गाहे-बगाहे
हम गड़ा ही देते हैं
उन्हें
और बन जाते हैं
हिंसक |

दुश्मन को मात देने की क़ुव्वत नहीं गई - प्रोफ़े. रामस्वरूप सिन्दूर

शिद्द्त के साथ जीने की, आदत नहीं गई |
क़िस्मत से मेरी खुल के, अदावत नहीं गई |

जाने को उसके साथ सभी कुछ चला गया
पर छोड़ मुझको तन्हा मुहब्बत नहीं गई |

जो कुछ भी कमाया था गँवाया है इश्क़ में
पर पाक - साफ़ रूह की लागत नहीं गई |

विष पी के जी रही है ज़िन्दगी लम्हा-लम्हा
ये  और-और  जीने की  हसरत  नहीं  गई |

हाथों  में  हथकड़ी  है  मेरे  पाँव में  बेड़ियाँ
ख्वावों में उससे मिलने की हसरत नहीं गई |

'सिन्दूर ' तेरे  दाँव  लगाने  के  दिन  गये
दुश्मन को मात देने की क़ुव्वत नहीं गई |

Thursday, April 9, 2020

हिम की तरह पिघल - प्रोफ़े. रामस्वरूप सिन्दूर

जिन राहों पर चलना है
तू उन राहों पर चल |
कहाँ नहीं सूरज कि किरणें, तूफानी बादल |

मन की चेतनता पथ का अँधियारा हर लेगी,
मन्जिल की कामना, प्रलय को वश में कर लेगी,
जिस वेला में चलना है
तू उस वेला में चल |
यात्रा का हर पल होता है किस्मत - वाला पल |

सपनों का रस, मरुथल को भी मधुवन कर देगा,
हारी - थकी देह में नूतन जीवन भर देगा,
जिस मौषम में चलना है
तू उस मौषम में चल |
भीतर के संयम की दासी, बाहर की हलचल |

उठे कदम की ख़बर ज़माने को हो जाती है,
अगवानी के लोकगीत हर दूरी गाती है,
जिस गति से भी चलना है
तू उस गति से ही चल |
निर्झर-जैसा बह न सके, तो हिम की तरह पिघल | 

Wednesday, April 8, 2020

कस कर और जियो - प्रोफ़े. रामस्वरूप सिन्दूर

रो-रो मरने से क्या होगा
हँस कर और जियो |
वृद्ध - क्षणों को बाहुपाश में
कस कर और जियो |

रक्त दौड़ता अभी रगों में, उसे न जमने दो,
बाहर जो भी हो, पर भीतर लहर न थमने दो,
चक्रव्यूह टूटता नहीं, तो
धंस कर और जियो |

श्वांस जहाँ तक बहे, उसे बहने का मौका दो,
जहाँ डूबने लगे, उसे कविता की नौका दो,
गुन्जन- जन्मे संजालों में
फंस कर और जियो |

टूटे सपने जीने का, अपना सुख होता है,
सूरज, धुन्ध-धुन्ध आँखें शबनम से धोता है,
ज्वार-झेलते अन्तरीप में
बस-कर और जियो |

नेह और बाती जलती है - कृष्ण मुरारी पहारिया

नेह और बाती जलती है
दिया सम्हाले रहता है
अपनी मिटटी की काया में
किरणें पाले रहता है

नेह दूसरों के प्रति करुणा
बाती जितनी आयु मिली
मिटटी की काया किरणों से
रहती कैसी खिली-खिली


जलने का व्रत है प्रभात तक
तम    को    टाले     रहता है

दिया हाथ में लेकर चलना
चलन हुआ जग वालों का
लेकिन क्यों कृतज्ञ हो कोई
बहुमत    बैठे - ठालों  का

फिर भी तो देखा यह दीपक
खुद को   बाले    रहता   है 


Saturday, April 4, 2020

स्वच्छता अभियान की एक पहल


मुझे प्रभाती किरणों ने जो, - कृष्ण मुरारी पहारिया

मुझे प्रभाती किरणों ने जो
दिया, उसी को बाँट रहा हूँ
मैं दर्पण हूँ दर्पण जैसा
अपना जीवन काट रहा हूँ

कभी अँधेरा था राहों पर
कुंठा की टेढ़ी गलियां थी
फिर शायद उजास छाया जो
भरी खेत की सब फलियाँ थी


आज उजाले की आभा से
सभी दूरियां पाट रहा हूँ

सावन-भांदों- सी बरसातें
हैं बस अब इतिहास कथाएं
वरद हुई जब विहंस शारदा
बिसर गयी सालती व्यथाएं

अब अपना एकांत सनातन
नहीं भीड़ की बाट रहा हूँ