Thursday, January 30, 2014

कोई अनुबंध जिया मैंने - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

कोई अनुबंध जिया मैंने

पल-छिन कोई अनुबंध जिया मैंने !
जीवन कितना निर्बंध जिया मैंने !

मैं महाशून्य की हिम-यात्रा पर था
सहयात्री-सा संवेदन साथ रहा,
सर्पीले आरोहण-अवरोहण में
मेरे सिर पर करुणा का हाथ रहा,
वैदेही-छवियों के सम्मोहन में
परिचय-विहीन सम्बन्ध जिया मैंने !

मैं आ पहुंचा फूलों की घाटी में
जल-प्लावन का आदिम एकांत लिये,
सुरभित सुधियों की विषकन्याओं ने
मेरे अधरों पर दंशन टांक दिये,
हो गया तरंगित अमृत शिराओं में
आजन्म मन्त्रवत छन्द जिया मैंने !

थिर हुई एक छाया संवेगों में
स्वप्न-से रूप आते हैं, जाते हैं,
जो शब्द , नाद ही नाद हो गये हैं
वे शब्द, मुझे गीतों में गाते हैं ,
शरबिद्ध-मिलन का आदि श्लोक हूँ मैं
आँसू-आँसू आनन्द जिया मैंने !



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