Tuesday, April 28, 2015

एक ग़ज़ल दुष्यंत कुमार की



रोज़ जब रात को बारह का गज़र होता है,
यातनाओं  के  अँधेरें  में सफ़र होता है !

कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए,
वो घरौंदा सही, मिट्टी का भी घर होता है !

सिर के सीने में कभी, पेट से पावों में कभी,
एक जगह हो तो  कहें  दर्द  इधर होता है !

ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगें,
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है !

सैर के वास्ते सड़कों पर निकल आते थे ,

अब तो आकाश से पथराव का डर होता है !

2 comments:

  1. दुष्‍यंत जी की गजलों का जवाब नहीं।

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  2. दुष्‍यंत जी की गजलों का जवाब नहीं।

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