Sunday, February 2, 2014

घर में भी सम्मान मिला है - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'


मैं प्रसंगवश कह बैठा हूँ तुम से अपनी राम कहानी !

मेरे मन-भावन मंदिर में बैठी हैं खंडित प्रतिमाएं,
विधिवत् आराधन जारी है, हँसी उड़ाती दसों दिशाएं;
मूक वेदना के चरणों में, मुखर वेदना नत-मस्तक है,
जितनी हैं असमर्थ मूर्तियाँ, उतना ही समर्थ साधक है;
एक ओर ज़िंदगी कामना, एक ओर निष्काम कहानी !

बिखर गयी ज़िंदगी कि जैसे बिखर गयी रत्नों की माला,
कोहनूर कोई ले भागा, तन का उजला मन का काला;
हारा मेरा सत्य, कि जैसे सपना भी न किसी का हारे,
सांसों-वाले तर चढ़ गये, जो वीणा के तार उतारे;
ख़ास बात ही तो बन पाती है, दुनिया की आम-कहानी !

एक ज्वार ने मेरे सागर को शबनम में ढाल दिया है,
कहने को उपकार किया है, करने को अपकार किया है;
प्रखर ज्योति ने आँज दिया है आँखों में भरपूर अँधेरा,
मैं इस तरह हुआ जन-जन का, कोई भी रह गया न मेरा;
कामयाब है जितनी, उतनी ही ज्यादा नाकाम कहानी !

निर्वसना प्रेरणा कुन्तलों बीच छिपाये चन्द्रानन है,
आँसू ही पहचान सकेगा, लहरें गिन पाया सावन है;
मेरा यह सौभाग्य, कि मुझको हर अभाव धनवान मिला है,
पीड़ा को बाहर-जैसा ही, घर में भी सम्मान मिला है;
नाम-कमाने की सीमा तक, हो-बैठी बदनाम कहानी !

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