Sunday, February 16, 2014

अक्षर-अक्षर मेघ उभरते - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'



अक्षर-अक्षर मेघ उभरते

तू न सही, तेरे पत्रों से ही बातें होती हैं !
चंदा-वाले दिन, सूरज-वाली रातें होती हैं !

चित्रांकित सम्बोधन अनपढ़-सपने पढ़ लेते हैं,
प्राकृत आलेखों को आँसू अर्थ नए देते हैं,
सुधियाँ कैसी भी हों, मादक सौगातें होती हैं !


अक्षर-अक्षर मेघ उभरते, नीर बरस जाता है,
इन्द्रधनुष का शब्द-भेद शर कल्प-छन्द गाता है,
यौवन अक्षत कर दें, ऐसी भी घांतें होती हैं !

मैं तेरी करुणा को, अपनी धुन में लेता हूँ,
अपने विगत रूप का अब मैं, केवल अभिनेता हूँ,
जमुना-जल पर, गंगा-जल की बरसातें होती हैं !

No comments:

Post a Comment