Thursday, February 6, 2014

नयन रह जाएँ ठगे-ठगे ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'


ऐसे क्षण आये जीवन में, माटी कंचन लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

तन लहराये अगरु-गंध-सा
मन लहरे किसलय-सा
हर पल लगे प्रणय की वेला
हर उत्सव परिणय-सा,
छाया तक कस लेने-वाला बंधन, कंगन लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

अपनी छाया अंकित कर दूँ
इस दिहरी, उस द्वारे,
पानी में प्रतिबिम्ब निहारूं
मन मोहक पट धरे,
चकाचौंध कर देने-वाला सूरज, दर्पण लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

इधर प्रभंजन उठे, उधर
मैं उपवन-उपवन डोलूं,
फूलों के उर्मिल रंगों में
धूमिल पलकें धो-लूँ,
गगन-विचुम्बी वातचक्र, नर्तित नंदनवन लगे !
ऐसे क्षण आये जीवन में, माटी कंचन लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

तन लहराये अगरु-गंध-सा
मन लहरे किसलय-सा
हर पल लगे प्रणय की वेला
हर उत्सव परिणय-सा,
छाया तक कस लेने-वाला बंधन, कंगन लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !



अपनी छाया अंकित कर दूँ
इस दिहरी, उस द्वारे,
पानी में प्रतिबिम्ब निहारूं
मन मोहक पट धरे,
चकाचौंध कर देने-वाला सूरज, दर्पण लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

इधर प्रभंजन उठे, उधर
मैं उपवन-उपवन डोलूं,
फूलों के उर्मिल रंगों में
धूमिल पलकें धो-लूँ,
गगन-विचुम्बी वातचक्र, नर्तित नंदनवन लगे !
नयन रह जाएँ ठगे-ठगे !

प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

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