Tuesday, January 20, 2015

मैं दोस्ती के हाथ मात ........... प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’



जैसे बना मैं वैसे रहा, ज़िंदगी के पास !
अँधियारा छोड़ जाता रहा, रौशनी के पास !!

वो झील में, घाटी में, समन्दर में क्या मिले,
ज़िद करके मेरी प्यास रुकी है नदी के पास !

मैं  दोस्ती  के  हाथ  मात  खाता  रहा  हूँ,
लड़ने का और ढंग, मेरी  दुश्मनी  के  पास !


वो  शख्स मेरा  यार-व्यार  कुछ  भी नहीं है,
दिल छोड़ के सब-कुछ है उस आदमी के पास !

सब  कुछ है  मुझ में, दुश्मनी, जज़्बा  नहीं है,
जो चाहे चला आये मेरी, मेरी  दोस्ती के पास !

‘सिन्दूर’ के अन्दाज़ से मत खुद को देखिये,
कुछ ख़ास चीज होती है हर आदमी के पास !


2 comments:

  1. बहुत ही यथार्थपरक और सुंदर कविता।

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