Sunday, January 4, 2015

थोड़ी-सी राहत थी .................... प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

थोड़ी-सी राहत थी

आज ज़रा फुर्सत थी, उस टोले चला गया
उसके घर जाना क्या, रोज़-रोज़ होता है !
सहज दिन बिताना, क्या रोज़-रोज़ होता है !

मोढ़े पर बैठ कंठ-तक गोरस पी आया,
गन्ने से मीठे पल, कलयुग में जी आया,
थोड़ी-सी राहत थी, उस टोले चला गया
रीझना-रिझाना, क्या रोज़-रोज़ होता है !
रूठना-मनाना, क्या रोज़-रोज़ होता है !


झिलमिल बहुरूप नैन-कोरों में ठहर गये,
रूढ़ हुए शब्दों को अर्थ मिले नये-नये,
कैसी-कुछ चाहत थी, उस टोले चला गया
मन को गा पाना क्या रोज़-रोज़ होता है !
छेड़ना तराना, क्या रोज़-रोज़ होता है !

मौज से फटेंगी अब कितनी ही संधायें,
लोकगीत गायेंगी, मूक-बधिर यात्राएँ,
वक्त की इनायत थी, उस टोले चला गया !
ख़ुद पर इतराना, क्या रोज़-रोज़ होता है !
साथ दे ज़माना, क्या रोज़-रोज़ होता है !



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